।। आओ मंदिर चले ।।
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प्रश्न-31 साष्टांग नमस्कार किस प्रकार और क्यों किया जाता है?

उत्तर- दोनों पैर लम्बे फैलाकर, हाथों को मस्तक के ऊपर ले जाकर पेट के बल लेटकर जो नमस्कार किया जाता है, वह साष्टांग नमस्कार कहलाता है। यह पूर्ण समर्पण भाव का प्रतीक है। साष्टांग नमस्कार का भी उद्देश्य संसार से छूटकर मुक्ति को पाना है।

प्रश्न-32 भगवान के दर्शन करते समय चावल किस प्रकार चढ़ाए जाते हैं?

उत्तर- भगवान के दर्शन करते समय चावल पांच जगह चढ़ाए जाते हैं।

प्रश्न-33 पांच जगह चावल क्यों चढ़ाए जाते हैं?

उत्तर- अहिरंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु इन पांचों परमेष्ठियों को अलग-अलकग द्रव्य चढ़ाने हेतु पांच जगह चावल चढ़ाए जाते हैं अैर भगवान के पंच कल्याण के प्रतीक स्वरूप अर्थात गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण इन पांचों कल्याणकों की प्रप्ति हेतु पांच जगह चावल चढ़ाए जाते हैं।

प्रश्न-34 मंदिर में जिनवाणी के दर्शन क्यों करना चाहिए?

उत्तर- जिनवाणी अर्थात शास्त्रों में भगवान जिनेन्द्र के श्रीमुख से अवतरित वाणी का संकलन होता है। साक्षात अरिहंत के अभाव में उनकी वाणी ही हमारे कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करती है। मात्र जिनवाणी के माध्यम से ही धर्म का अस्तित्व कायम रहता है। अतः ऐसी परोपकारी, मंगलमयी जिनवाीण का दर्शन एवं भक्ति भावपूर्वक करना चाहिए।

प्रश्न-35 जिनवाणी के दर्शन करते समय चावल किस प्रकार और क्यों चढ़ाना चाहिए?

उत्तर- जिनवाणी के दर्शन करते समय चावल चार जगह चढ़ाए जाते हैं, क्येंकि जिनवाणी चार भागों में संकलित है। प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग, अतः चारों अनुयोगों को अलग-अलग चालव चढ़ाए जाने चाहिए।

प्रश्न-36 गुरूओं (मुनिराजों) के दर्शन क्यों करने चाहिए?

उत्तर- वैसे तो जिनवाणी की कृपा से ही कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है। फिर भी जिनेन्द्र भगवान की वाणी गम्भीर ओर अपने-आप में गहन रहस्य छिपाए हुए है। उस रहस्य को हर अल्पज्ञानी व्यक्ति समझ नहीं सकता। उसका रहस्य तो जिनेन्द्र भगवान के समान आचरण करने वाले पूज्य गुरूदेव ही समझ जाते हैं और हमारा कल्याण करते हैं क्योंकि जिनवाणी मौन हैं, जिन प्रतिमा मूक है। मात्र गुरू ही मुखरित होते हैं। अतः परोपकारी गुरूओं के भी दर्शन जरूर करने चाहिए।

प्रश्न-37 गुरूओं के दर्शन करते समय चावल किस प्रकार और क्यों चढ़ाना चाहिए?

उत्तर- गुरूओं के दर्शन करते समय चावल तीन स्थानों में चढ़ाना चाहिए क्योंकि मुनियों के तीन भेद हैं-आचार्य, उपाध्याय, साधु। तीनों की अलग-अलग वंदना करने हेतु एवं रत्नत्रय की उपलब्धि हेतु तीन जगह चावल चढ़ाना चाहिए।

प्रश्न-38 मंदिर में वेदी की प्रदक्षिणा क्यों देते हैं?

उत्तर- चूंकि वेदी भगवान की गंधकुटी का प्रतीक होती है और समवसरण में भगवान के चार मुख दिखाई देते हैं। समयसरण में भगवान के पीछे बैठने वालों को भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। इसी उद्देश्य को लेकर मंदिर में दर्शन करते समय भगवान के चारों मुखों का अवलोकन करने के लिए वेदी की प्रदक्षिणा दी जाती है एवं परिक्रमा दुनिया का सबसे बड़ा वशीकरण मंत्र है। परिक्रमा लगाने से सब वश में हो जाते हैं। शादी में जब एक लकड़ी की परिक्रमा लड़के-लड़की लगाते हैं तो ज्ीवन-भर के लिए एक-दूसरे के हो जाते हैं, यदि भक्त भगवान की परिक्रमा लगा ले तो भक्त और भगवान भी एक-दूसरे के हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। प्रभु की परिक्रमा लगाने से संसार की परिक्रमा रूप जाती है।

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प्रश्न-39 मंदिर में तीन ही प्रदक्षिणा क्यों दी जाती है?

उत्तर- तीनों प्रदक्षिणा मन की शुद्धता, वचन की शुद्धता और काय (शरीर) की शुद्धतापूर्वक की जाती है अर्थात है जिनेन्द्र! मैं अपने मन को विकारों से रहित कर, वचनों को सात्विक कर और शरीर को स्नानादि से शुद्ध करके आपको नमस्कार कर रहा हूं। अर्थात त्रियोग की शुद्धि करके त्रियोगों से तीन बार प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करता हूं।

प्रश्न-40 मंदिर में शिखर क्यों बनाते हैं?

उत्तर- जिस प्रकार समवशरण के ऊपर अशोक वृक्ष होता है उसी प्रकार मंदिर में अशोक वृक्ष के प्रतीक रूप शिखर बनाया जाता है एवं जो लोग परिस्थितिवश मंदिर नहीं जा पाते तो वह दूर से ही शिखर की वंदना करके पुण्यार्जन कर लेते हैं और यदि ऊपर से देवता आदि के विमान निकलते है तो ऊंचे-ऊंचे शिखर देखकर वे भी जिनालय के दर्शन का लाभ उठा पाते हैं। इसलिए भी मंदिर में शिखर बनाए जाते हैं एवं जैसे अशोक वृक्ष के नीचे जाने पर सारे शोक नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मंदिर के शिखर के नीचे जाकर (परमात्मा) की उपासना करने से भी सारे शोक नष्ट हो जाते हैं। मंदिर के शिखर प्रकृति, से विशुद्ध परमाणुओं को संग्रहीत कर मंदिर में नीचे पहुंचते हैं, जिससे मंदिर का यातायात शुद्ध बना रहता है। इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मंदिर में शिखर बनाए जाते हैं।

प्रश्न-41 शिखर पर कलश क्यों चढ़ाए जाते हैं?

उत्तर- कलश मंगल एवं पूर्णता का प्रतीक होते हैं। मानव जब परमात्मा की सतत साधना करता है तो पूर्ण या परमात्मा हो जाता है, मानव का क्रमिक विकास ही परमात्मा हैं जिस तरह से कलश सबसे नीचे बड़ा उसके ऊपर दूसरा उससे छोटा फिर तीसरा उससे छोटा अर्थात क्रम-क्रम से शून्यता की ओर पहुंचता है वैसे ही मनुष्य जैसे-जैसे आकांक्षा, कामना, वासना से छूटता है वैसे ही मनुष्यता को उपलब्ध होकर परमात्मा तत्व को प्राप्त कर लेता है। इसी बात की प्रेरणा हेतु मंदिर के शिखर पर कलश चढ़ाए जाते हैं।

प्रश्न-42 कलश के ऊपर ध्वजा क्यों लगाई जाती हैं?

उत्तर- मंदिर जी में हो रही भक्ति, पूजन, मंत्र आदि की शब्द वर्गणा को मंदिर के ऊपर की ओर खींचकर ध्वजा के माध्यम से वह पुद्गल शब्द वर्गणा सर्वत्र हवाओं को स्पर्शित होकर व्याप्त होती है और जहां-जहां वह हवा जाती है, वहां-वहां का वातावरण शुद्ध, शांत, सात्विक, धार्मिक होता जाता है। इसलिए कलश के ऊपर ध्वजा लगाई जाती है।

प्रश्न-43 मंदिर के सामने मानस्तम्भ क्यों बनाते हैं?

उत्तर- मानस्तम्भ अर्थत जिसको देखकर मान स्तम्भित हो जात है वह मानस्तम्भ कहलाता है। मंदिर जी में प्रवेश समर्पण, श्रद्धा, आस्था के भावों को लेकर करना चाहिए। अपने अहंकार, मान, कषाय आदि को मंदिर के बााहर छोड़कर मंदिर में प्रवेश करें एवं जिनेन्द्र महिमा दर्शाने का भी एक माध्यम मानस्तम्भ होता है और जिना मंदिर में प्रवेश वर्जित है, वे मानस्तम्भ को देखकर परमात्मा के दश्ज्र्ञन का लाभ लेते हैं।

प्रश्न-44 मंदिर में कौन-कौन से कार्य नहीं करने चाहिए?

उत्तर मंदिर में नाक, कान, आंख का मैल नहीं निकालना चाहिए।
मंदिर में मूलमूत्र आदि नहीं करना चाहिए।
खांसी, कफ आदि नहीं करना चाहिए।
वमन, कुल्ला आदि नहीं करना चाहिए।
हाथ-पैर के नख नहीं तोड़ना चाहिए।
शरीर का मैल व पसीना नहीं निकालना चाहिए।
अंगुली चटकाना, फोड़े आदि को नहीं फोड़ना चाहिए।
दंत मंजन व दांतों में सींक नहीं करना चाहिए।
घाव आदि पर पट्टी मल्हम नहीं करना चाहिए।
शौच आदि को पहनकर गए हुए वस्त्र पहनकर नहीं आना चाहिए।

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