।। परिशिष्ट ।।

तीर्थकर वर्द्धमान महावीर के पूर्वभव । (तीर्थकर वृषभदेव के समय से)

१. मरीच, २. ब्रह्मस्वर्ग का देव , ३. जटिल ब्राह्मण, ४. सौधर्म स्वर्ग का देव, ५. पुष्यमित्र ब्राह्मण, ६. सौधर्म स्वर्ग का देव, ७. अग्निसह ब्राह्मण, ८. सनत्कुमार स्वर्ग का देव, ९. अग्निमित्र ब्राह्मण, १०. माहेन्द्र स्वर्ग का देव, ११. भारद्वाज ब्राह्मण, १२ माहेन्द्र स्वर्ग का देव तथा त्रस-स्थावर योनि-संबंधी असंख्यातों भव, १३. स्थावर ब्राह्मण, १४. माहेन्द्र स्वर्ग का देव, १५. विश्वनन्दी, १६. महाशुक्र स्वर्ग का देव,१७. त्रिपृष्ठ नारायण, १८. सप्तम नरक का नारकी, १९. सिह, २०. प्रथम नरक का नारकी, २१. सिंह, २२. प्रथम स्वर्ग का देव, २३. कनकोज्ज्वल, २४. लान्तव स्वर्ग का देव २५. हारपण राजा, २६. महाशक स्वर्ग का दव, २७. प्रिय मित्र चक्रवती, २८. सहस्रार स्वर्ग का देव, २९. नन्दराजा (तीर्थकर प्रकृति का वन्ध),३०. अच्युत स्वर्ग का इन्द्र, ३१. तीर्थकर महावीर वर्द्धमान ।

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1. मरीचि हाकल्पोत्यस्तताभज्जटिलद्विजः ।
सुरसौधर्मकल्पेषु पुष्यमित्यधिजस्ततः । सौधर्मजोऽमरस्तस्माद् द्विजन्मारिनरामाय: ।।2।।
सनत्कुमारदेवोऽस्मादग्निमित्राभिदोद्विजः : महन्माहेन्द्रकल्पेभुभारद्वाजोद्विजान्वये ।।3।।
जातो माहेन्द्र कल्पेषु मानुष्योनततपम्पतः । नरकेषुनसस्थावरेष्वसम्यातवत्सरान् ।।4।।
सान्त्वाततो विनिर्गल्य स्थावराच्योदिजो भवत् । ततपचतुर्थकल्पेऽभूद्विश्वनन्दिस्ततश्चयुतः ।।5।।
महाशके ततादेवस्विषण्डेशस्विपिण्ठंवाक् । सप्तमे नरके तस्माच्चगजविद्विषः ।।6।।
प्राविमें नरके तस्मात्सिहस्सद्धर्मनिाचल: । तत: सौधर्मकल्पभूसिंह केतु : सुरोत्तम : ।। 7।।
कनकोवनल नामाभ'तताविद्याधराधिपः । देवस्सप्तमकल्पेषु हरिषेणस्ततोनूप: ।।8।।
महामफे ततोदेव : प्रियमिनोनुचक्रभृत् । ससहबारकल्पभूद्द वस्सूर्यप्रभातयः ।।9।।
राजाचंदाभियस्तस्मात् पुष्पोत्तर विमानजः । अच्युतेन्द्रस्तताच्युत्वा वर्धमान जिनेवर : ।।10।।

--बर्द्धमान तीर्थंकर पूजा

1. तीर्थकर वृषभदेव का पौत्र । इसने तीर्थंकर के साथ दीक्षा ली, परन्तु मुनिचर्या की कठोर साधना में असमर्थ होने से उन्मार्गगामी हो गया और संसार-परिभमण का पाव बना । अन्त में मरीचि का जीव ही तीर्थकर बर्द्धमान महावीर बना।

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अवतार नहीं, उत्तार

जैन-दर्शन कार्य के होने में कारण को प्रमुख स्थान देता है । कहा भी है-- 'कारणाऽभावे कार्याऽभावः ।' कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव होता है । एतावता जन्म-मृत्यु आदि भी कार्य हैं; जो सकारण ही हो सकते हैं। जैसे धान्य (तप-सहित चावल) को बोने पर और उसके विकासानकल साधन जलादि के जुटाने पर धान्य की उत्पत्ति--पौधे का निःसरण होता है । यदि धान्य की उत्पत्ति के कारणभत तुष को उससे पथक कर दिया जाए तो वह उत्पन्न नहीं हो सकता अथवा जैसे बीज के अभाव में वृक्ष उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही जन्म-क्रिया में कारणभूत कर्मों का अभाव होने से मक्तात्मा (सर्वथा शुद्ध) जीवों का जन्म नहीं होता। दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि क्या धर्म चढ़ाव के लिए है,या उतार के लिए ? संसार में जन्म-मरण-रूप अबस्था उतार-'अवतार' है और संसार से ऊपर उठने की अवस्था 'उत्तार' है। अवतार हीन अवस्था का द्योतक है और उत्तार ऊंची अवस्था है । कोषकारों ने 'अवतरणं अवतारः नीचे आने को अवतार कहा है । जैसा कि लोग मानते हैं-परमात्मा ऊपर से इस लोक में अवतरण करता है, अवतार लेता है।

आत्मा; महात्मा, परमात्मा

जैन मान्यता में सर्वसाधारण जाति की अपेक्षा से आत्माओं के स्वभावों में कोई अन्तर नहीं-विकास की अपेक्षा से उनमें तर-तम भेद को स्थान दिया गया है। जब संसारी कर्म-बन्धन में जकड़ा आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करता है, तब उसकी इस क्रिया को शरीर से शरीरान्तर होना, अवतरण कहा जाता है। और इसमें मल कारण जीव के अपने पूर्वकृत कर्म होते हैं । ये क्रिया समस्त संसारी जीवों में यथासमय योग्यतानुसार होती रहती है। यही संसारी जीव जव अपना विकास करता है, महावत आदि जैसे बन्धन शिथिलकारक साधनों की ओर बढ़ता है वह महात्मा कहलाता है; और महात्मा पद में पूर्ण होने पर 'परम आत्मा पद पा लेता है। कर्म-वन्धनों से सर्वथा, सदा-सदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसके अवतरण (अवतार) का प्रश्न नहीं रहता।

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* बीजाभाव तरोरिख ।

-समन्तभद्राचार्य

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चूकि तीर्थंकर महावीर सर्वकर्म-मुक्त है--उनका अवतार संभव नहीं है । उनसे पूर्व जो आत्माएं परमात्मा-अवस्था-मुक्ति में पहुँच चुके है, उनके भी जन्म (अवतार) लेने का प्रश्न नहीं। महावीर अपने पूर्वभवों और महावीर-जीवन में भी सदा ही ऊपर चढने का प्रयत्न करते रहे-वे क्रमशः बढते ही रहे. उनका उत्तार हआ । यत:उत्तार का अर्थ भी कोषकारों ने निम्न प्रकार से दिया है-

उक्त अर्थों और भावों के प्रकाश में हम कह सकते है कि जन-दर्शन मुक्त आत्माओं के अवतारवाद में विश्वास नहीं रखता और वह संसारी जीवों के ऊपर उठने यानी मुक्ति-मार्ग में बढ़ने की क्रिया (वास्तविक उद्योग) पर बल देता है।

वह उत्तारवाद को मानता है। अतः महावीर ने अवतार लिया ऐसा कहना भी असंगत है । महावीर के पूर्वभव दान से भी यही तात्पर्य है कि वे विकास यानी उत्तार की ओर बढ़े। वे मक्ति से वापिस नहीं आये। वे अवतारी आत्मा नहीं थे।

नित्य और कृतकृत्य

जैन मान्यतानुसार मक्त जीव अनन्तकाल तक मुक्ति में ही रहते है। मुक्त जीव के जैस अवतार नहीं, वैसे ही उसके मुक्तरूप-सर्वथा शुद्ध (पूर्णशुद्ध) अवस्था प्राप्त करने पर उसे उत्तार की अपेक्षा भी नहीं । अवतार और उत्तार दोनों ही अवस्थाएं संसार से संबंधित है-मोक्ष (मुक्ति ) से इनका कोई संबंध नहीं। जैनधर्म ने मुक्ति से पुनरावृत्ति का सर्वथा निषेध किया है। मुक्तात्माओं के स्वरूप के वर्णन से भी यह बात सर्वथा सिद्ध होती है। वहाँ णिच्चा (नित्य) और किदकिच्चा (कृतकृत्य) दो गुण ऐसे है जो सिद्ध अवस्था के तद्वस्थ रहने पर अच्छा प्रकाश डालते हैं; तथाहि—

'अट्टविहकम्मवियला सीदीभदा णिरंजणा णिच्चाः ।
अट्ठगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धाः ।।

--आचार्य नेमिचन्द्र (जीवकाण्ड)

-सिद्धगण (मुक्तजीव) ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित, अनन्तसुखरूप, मल-रहित, नित्य, अट्ठगुण-सहित, कृतकृत्य और लोकानवासी होते हैं। तीर्थकर महावीर ने भी सिद्ध पद पाया-व ऊँचे उठ गये । अब उनके आवरण का भी प्रश्न नहीं रहा । वे मुक्त हो गये । 'कल्याणमस्तु जगतः ।'

स्याद्वाद : गलत समझा गया

"जैनधर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है उतना अन्य किसी सिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया। यह बात अल्पज्ञ पुरुष के लिए क्षम्य हो सकती थी, किन्तु यदि मझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूंगा, यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता है। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मल ग्रन्थों के अध्ययन करने की परवाह नहीं की।"

-(फणिभूषण, भ. पू. अध्यक्ष, दर्शनशास्त्र-विभाग, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी)

स्याद्वाद : अभेद्य दुर्ग

''मैं कहाँ तक कहूँ बड़े-बड़े नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैनमत का खण्डन किया है वह ऐसा किया है जिसे देख-सुन हँसी आती है। स्याहाद यह जैनधर्म का एक अभेद्य किला है, उसके अन्दर वादी-प्रतिवादियों के मायामय गोले नहीं प्रवेश कर सकते।

जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।"

-(पं. स्वामी राममिथ शास्त्री, प्रोफेसर, संस्कृत कालेज, वाराणसी)

स्याद्वाद : गंभीर स्थान

"न्यायशास्त्र का स्थान बहुत ऊँचा है। स्वाद्वाद का स्थान बड़ा गम्भीर है। वह वस्तुओं की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है।"

-(डा. थासस, प्रधान अस्थपाल, इण्डिया आफिस, लन्दन)

अन्धकारों में ही डूबे रहते

"प्राचीन दर्जे के हिन्दू-धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का स्वाबाद किस चिड़िया का नाम है। धन्यवाद है जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैण्ड के कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञों को, जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायियों के कौति-कलाप की खोज की और भारतवर्ष के इतर जैनों का ध्यान आकृष्ट हुआ। यदि वे विदेशी विद्वान जैन-धर्म-ग्रन्थों की आलोचना न करते, उनके प्राचीन लेखकों की महत्ता प्रगट न करते तो हम लोग शायद आज भी पूर्ववत अज्ञान के अन्धकार में ही डूबते रहते ।

-(आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, भू. पू. सम्पादक 'सरस्वती', प्रयाग)

'मुझे यह बड़ा प्रिय है।

जिस प्रकार स्याबाद को मैं जानता है, उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ। मुझे यह अनेकान्त बड़ा प्रिय है।"

-(महात्मा गांधी)

वस्तुस्थिति यही है

"अनेकान्तवाद, या सप्तभंगीन्याय जैन-दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है। प्रत्येक पदार्थ के जो सात अन्त या स्वरूप जैन शास्त्रों में कहे गये हैं, उनको टीक रूप से स्वीकार करने में आपत्ति हो सकती है। कुछ विद्वान् भी सात में कुछ को गौण मानते हैं। साधारण मनुष्य को वह समझने में कठिनाई होती है कि एक ही वस्तु के लिए एक ही समय में है' और 'नहीं' दोनों बातें कैसे कही जा सकती हैं, परन्तु कठिनाई के होते हए भी वस्तुस्थिति तो ऐसी ही है।'

-(डा. सम्पूर्णानन्द)

स्याद्वाद : विश्वदर्शनों में अद्वितीय

"जैनाचार्यों की यह वृत्ति अभिनन्दनीय है कि उन्होंने ईश्वरीय आलोक ( Ravelation) के नाम पर अपने उपदेशों में ही सत्य का एकाधिकार नहीं बताया। इसके फलस्वरूप उन्होंने साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता के दुर्गणों को दूर कर दिया। जिसके कारण मानवइतिहास भयंकर द्वन्द्र और रक्तपात के द्वारा कलंकित हुआ। अनेकान्तबाद अथवा स्याद्वाद विश्व के दर्शनों में अद्वितीय है। स्यावाद सहिष्णुता और क्षमा का प्रतीक है। कारण, वह यह मानता है कि दूसरे व्यक्ति को भी कुछ कहना है। सम्यग्दर्शन और स्याबाद के सिद्धान्त औद्योगिक पद्धति द्वारा प्रस्तुत की गई जटिल समस्याओं को सुलझाने में अत्यधिक कार्यकारी होंगे।"

-(डॉ.एस.बी. नियोगी, भू.पू. चीफ जस्टिस, तथा उपकुलपति, नागपुर वि.वि., नागपुर)

मूल में निविरोध

"जब से मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है जिसे वेदान्त के आचार्य ने नहीं समझा। और जो कुछ अब तक जैनधर्म को जान सका हूँ उससे मेरा दढ़ विश्वास हआ है कि यदि वे जनधर्म को उसके मूल ग्रन्थों से देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्म का विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।"

--(डा. गंगाप्रसाद झा, प्रयाग विश्वविद्यालय)

स्याद्वाद : नि:संशय

"महावीर के सिद्धान्त में बताये गये स्याद्वाद को कितने ही लोग संशयवाद कहते हैं, इसे मैं नहीं मानता । स्याद्वाद संगायवाद नहीं है, किन्तु वह एक दृष्टि-बिन्दु हमको उपलब्ध करा देता है। विश्व का किस रीति से अवलोकन करना चाहिये यह हमें सिखाता है। यह निश्चय है कि विविध दष्टि-बिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये बिना कोई भी वस्तु सम्पूर्ण स्वरूप में आ नहीं सकती। स्यादाद (जैनधर्म) पर आक्षेप करना अनुचित है।"

-(प्रो. आनन्द शंकर बाबूभाई ध्रुव)

अनेकान्त : अहिंसा-साधना का चरमोत्कर्ष

'इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा-साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितनी ही शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।"

-(रामधारी सिंह 'दिनकर'-संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ-137)

'सिद्धिरनेकान्तात्'

'सिद्धिः शब्दाना निष्पत्तिर्जप्तिर्वा भवत्यनेकान्तात् । अस्तित्वनास्तित्व-नित्यत्वानित्यत्व विशेषण विशेषाद्यात्मकत्वात् दृष्टेण्ट प्रमाणविरुद्धादाशास्त्र परिसमाप्तेरित्येषोऽधिकारी बेदिलव्यः । वक्ष्यति-सात्मेतादिरिति अनेकान्ताधिकारे सत्येवाद्यन्त व्यपदेशो घटने अन्यथा तद्भावात् कि बेन सह गहयेत् यतः संज्ञा स्यात् ।”

-(शब्दार्णव चन्द्रिका, सोमदेवमूरि)

अनेकान्त : सिद्धि का मर्म

अनेकान्त से सिद्धि होती है; अर्थात् शब्दों की निष्पत्ति अथवा ज्ञप्ति अनेकान्त से होती है। अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व-अनित्यत्व, विशेषण और विशेष्य आदि अनेकान्तात्मक हैं अतः इष्ट प्रमाण से अविरूद्ध दृष्टिगोचर होने से इस अनेकान्त का अधिकार इस (व्याकरण शास्त्र) की परिसमाप्ति पर्यन्त जानना चाहिये । जैसा कि आगे कहा जाएगा। 'सात्मेतादि' । (सूत्र) जिसका अर्थ है 'इत्संज्ञक के साथ उच्चार्यमाण आदि वर्ण अपने सहित उन, मध्यपतित वर्णाक्षरों का ग्राहक होता है', अर्थात् 'अण्' यह प्रत्याहार है। इसमें 'अ इ उ ण सूत्रान्तःस्थ वर्णों का ग्रहण है। प्रथमाक्षर 'अ' और अन्त्य 'ण के मध्यवर्ती इ-उ' का ग्रहण भी होता है। यह अनेकान्त अधिकार होने पर ही घटित हो सकता है अन्यथा उसके अभाव में किससे किसका ग्रहण किया जाए कि संज्ञा का निर्माण हो।

'सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्प
सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् ।
सर्वापदामन्तकरं निरन्तं,
सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।

-(आचार्य समन्तभद्र : युक्त्यनुशासन)

'हे तीर्थंकर महावीर, आपका ही यह धर्मतीर्थ सर्वोदय सर्व अभ्युदयकारी है और गौण-मुख्य की विवक्षा लिये हए अशेष धर्मवाला है। जो परस्पर अपेक्षा का प्रतिपादन नहीं करता वह सर्वधर्मों से शून्य है। अत: हे भगवन्, आपका यह तीर्थ समस्त आपत्तियों का अन्त करने वाला और किसी के द्वारा खंडनीय नहीं है।

-(अनेकान्त-सप्तमंगी-स्याद्वाद)