।। कूलग्राम में प्रथम आहार ।।

आहार करना संसारी जीवों का स्वभाव माना जाता है । मक्त जीव आहार रहित, स्व-स्वभाव-ज्ञानादिगुण पूर्ण है। उन्हें लोक-व्यवहृत आहार सर्वथा नहीं है। आहार का अर्थ भोजनमात्र में लिया जाता है, परन्तु वह भोजन भी आगम में छह प्रकार का बतलाया गया है और ऐसे भोजन (आहारों) में से जीव अपनी-अपनी आवश्यकताओं अथवा योग्यतानुसार आहार ग्रहण करता है। तपस्वी वर्धमान को भी संसारी होने के कारण आहार-क्रिया से वियुक्त नहीं किया जा सकता। वे बन में दो दिन तक ध्यानस्थ रहे और तीसरे दिन, अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी को आहार के लिए उठे । छह प्रकार के आहारों में उन्होंने कर्म, नो-कर्म, लेपाहार के त्याग में तो पहले ही उद्यम कर रखा था । मनसाहार केवल आत्म-चिन्तवन था। ओजाहार का प्रश्न ही नहीं (यह अंडजादि जीवों में होता है ) इन पांच प्रकार के आहारों के अतिरिक्त षष्ठ आहार-कबलाहार उन्हें आवश्यक था। आखिर, शरीरस्थिति की आवश्यकता देखते हए कवलाहार का सर्वथा, सहसा ही कसे त्याग किया जा सकता है ? फिर अभी तो तपस्वी वर्धमान को इस शरीर से तपस्या रूपी महत्त्वपूर्ण कार्य भी लेना था, इसी के सहारे अपने घाति-अघाति कौ के क्षयकरण रूप कार्य को तपस्या द्वारा पूरा करना था। उन्हें शरीर-पोषण के लिए नहीं, अपितु तपपोषण-हेतु आहार की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति उन्हें करना पड़ रही थी, यानी वे स्वयं के लि। स्वयं भोजन नहीं करते थे--उन्हें करना पड़ता था । दिगम्बर मनि के संबंध में कहा गया है--

'ले तप बढ़ावन हेत नहि तनपोषते तज रसनि कौं।'

-दौलतराम

अर्थात वे अपनी साधना की वृद्धि के लिए आहार लेते हैं। शरीर के पोषण पर उनका लक्ष्य नहीं होता और वे आहार में अनेक प्रकार के रसों का त्याग करते रहते है।) इस विधि में वे खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पय इन चार प्रकार के कवलाहारों में अपना परिमाण करते हैं-छहों रसों में भी कई रसों का त्याग करते हैं। आहार पर जाने से पूर्व वे व्रतपरिसंख्यान (आखड़ी) भी लेते हैं, भूख से अल्प आहार करते है आदि । जैन शास्त्रों में इस विधि का वर्णन विस्तार से मिलता है, वहाँ इस सब विधि को बाह्य तप में गिनाया गया है। मुनि का आहार दिन में एक बारही होता है-वे दूसरी बार किसी प्रकार का आहार (जल आदि) ग्रहण नहीं करते । आहार-विधि भी खड़े होकर लेने की है, ताकि प्रमाद का परिहार हो सके । उनके हाथ ही पात्र का कार्य करते हैं, किसी पात्र (बर्तन) का वहाँ उपयोग नहीं होता। कहा भी है:

'इक बार दिन में लै आहार, खड़े अलप निज पाणि "में ।'

-दौलतराम (छहढाला)

"एक बार भोजन की बिरिया, मौन-साधि बस्ती में आवें ।
जो नहि बने जोग भिच्छाविधि, तो महंत मन खेद न लावें ।

-भूधरदास पार्श्वपुराण, ४।१२५

तपस्वी वर्धमान दो दिन के उपवास (बेला) के बाद चर्या (आहार) को उठे। वे ई-समिति-पूर्वक नगर की ओर बढ़े। मौन थे, शद्ध और निर्दोष आहार उन्हें ग्रहण करना था । वे चलते-चलते कुलग्राम 4 में पहुंचे जहाँ नगरपति राजा कल ने मुनिराज को पडगाहा-उनकी नवधा भक्ति की और आहार-दान का लाभ लिया, उसे आज मार्गशीर्ष कृष्णा द्वादशी का दिन वरदान बन कर आया, उसके पंचपरावर्तन की सीमा निश्चित हुई, वह मोक्ष का पात्र बना। तीर्थकर को सर्वप्रथम आहार देने वाले मोक्ष के अधिकारी होते हैं।

आहार के प्रसंग में तीर्थकर महावीर चरित्र में पं० मनसुखसागर ने लिखा है-

चौपाई

'कूल' नाम नप लखि महावीर । भक्ति सहित ह आयो तीर ।।
'तिष्ट-तिष्ठ' प्रभु प्रामुक अन्न । जल प्रासुक तुम जग में धन्न ।।
चरन प्रछाल अरच बहुदर्व । जन्म सुफल निज जान्यो सर्व ।।
क्षीर भक्ति अक्षय निधि चवें । जै जै आखर खुर बहु हवं ।।
पंचाश्चर्य अमर मन लाई। नृप गृह करें अधिक हरपाई ।।
सगुण सार्द्ध पत्न सु इष्ट । महिमा कहि कहि करै सुविष्ट ।।

चौपाई

जिन अहार करि बन गये; आतमगण मन धार ।
निश्चलांग करि ध्यान घर, परम प्रीति सुखकार ।।

चर्या हेतु आते हुए भी महावीर को जब कूल राजा ने देखा तब वह भक्तिपूर्वक निकट आया और बोला-'हे स्वामिन् अत्र-तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ आहार-जल शुद्ध है। तुम जगत् में धन्य हो।' उसने प्रभ के चरणों का प्रक्षालन किया और अर्ध से उनकी पूजा की । अपना जन्म सफल माना और क्षीर-मिश्रित अन्न का आहार दिया। इससे राजा कल के घर अक्षय निधि उत्पन्न हुई, देवों ने अनेक प्रकार जय-जयकार किया। राजा कल के यहाँ पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि आदि) उन देवों द्वारा किये गये । देवों ने--रत्न की वृष्टि की ओर राजा कुल की पुण्य-महिमा का वर्णन किया।

वीर जिन आहार ग्रहण करके वन चले गये। उन्होंने अपने मन को आत्मस्वरूप में लगाया और प्रीतिपूर्वक सुखदायक ध्यान में अपना अंग स्थिर किया, अर्थात् वे त्रियोग से ध्यानस्थ हो गये।

आहार-दान का महत्त्व

आहारदान श्रावक के आवश्यक कर्मों (क्रियाओं) में गभित है। इस दान के अनुमोदन मात्र से अनेक जीव आत्म-कल्याण कर गये और फिर जिसने तीर्थंकर को आहारदान दिया हो, उसके पुण्य का कहना ही क्या? वह तो महाभाग्यशाली है। जो श्रावक नित्य आहारदान देते हैं, वे धन्य है, कहा भी है-

'दाणं मोयण मेत्तं दिण्णइ धाणो हवेइ सायारो।

--रयमासार, कुन्दकुन्द-१५

जो श्रावक भोजनमात्र (आहारमात्र) देता है, वह धन्य होता है ।

राजा कल के बड़े भाग्य है जो तपस्वी तीर्थकर वर्धमान को प्रथम आहारदान का मुयोग मिला। उसने इस हर्ष में उत्सव मनाया । देवों ने उसके घर-आंगन में रत्नवृष्टि की, पुष्पवृष्टि की, दुदुभि-नाद किये, "धन्य-धन्य' शब्द कहे और सुगन्धित मन्द-मन्द पबन का संचार किया। वे अपने भवनों को चले गये। इधर कल भी अपनी धर्मभावना को दृढ़ करते हुए प्रजापालन में तत्पर रहे। वे काल-लब्धि को पाकर मोक्ष प्राप्त करेंगे।

आहारदान की महिमा उत्तम पात्र से और भी बढ़ जाती है, क्योंकि उत्तम पात्र की साधना में सहायक होना अतुल पुण्योपार्जन करना है । मुनिगण की आहारचर्या बड़ी संतुलित और कठिन है। उन्हें शरीर-स्थिति के साथ तप-स्थिति का भी विशेष ध्यान रखना पड़ता है। उन्हें आरोग्य शास्त्र का भी ज्ञान होना उचित है। वे मुनि धन्य हैं, जो तप की सिद्धि के लिए बहुमुखी प्रतिभा का उपयोग करते हैं:

आरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिविपश्चित
स्वारथ्यं सदा साधयति सिद्ध सुखैक हेतम ।
अन्य स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो
बध्नाति कम निज दुष्परिणाम भेदात ।।

-कल्याण कारक शास्त्र सं. ८९

जो विद्वान् मनि आरोग्य-शास्त्र को जानकर आहार-विहार रखते हुए स्वास्थ्य रक्षा कर लेता है, बह सिद्धसूख के मार्ग को प्राप्त कर लेता है, किन्तु जो स्वास्थ्यरक्षा-विधान को नहीं जानता वह अपने आहार-विहार में सदोष होने से रोग पीड़ित रहता हुआ अपने ही दुष्परिणाम भेद से कर्मबन्ध करता है।

'तप करि जो करम खिपावै'

महान कार्य-सिद्धि के लिए महान् परिश्रम करना पड़ता है। तीर्थकर वर्धमान महावीर को अनादि कर्म-बन्धन-छेद-रूप महान कार्य साधने में तपस्या रूप महा श्रम करना ङ्के उचित लगा, क्योंकि कर्म-छा का उपाय इसका अतिरिक्त अन्य नहीं। आचायों से कम) की निर्जरा के विधान में तप को ही प्रमुखता दी है । तपस्या* द्वारा किया गया कर्मक्षय शिव (मोक्ष) के सुख को प्राप्त करा सकता है :

'तप करि जो करम खिपावै । सौई शिवसुख दरसाब ।'

--पं. दौलतराम छहढाला

तीर्थकर का मख्य लक्ष्य तो आत्मसुख-प्राप्ति था और इसी के लिए बे विरक्त भी हुए थे । यदि उन्हें इन्द्रिय-जन्य नश्वर सुख की चाह होती तो राज-प्रासाद में किस बात की कमी थी? बे गहस्थ-बन्धन से मंह क्यों मोड़ते? वे जानते थे कि जब तक संयमरूपी जल से भरित आत्मारूपी नदी में स्नान नहीं किया जाएगा, तब तक शुद्धि कर्मों से पृथकत्व नहीं होगा। बाह्य आचार-विचार आत्मा की उपलब्धि में कारण अवश्य है, किन्तु आत्मप्राप्ति के चरम क्षण-शुक्ल ध्यान की प्रक्रिया में उन्हें भी छोड़ना पड़ता है, उन्हें अहोरात्र प्रतिक्षण साथ रहने वाले शरीर से भी ममत्व तोड़ना पड़ता है, अर्थात् तप ध्यान की उत्कृष्ट अवस्था में 'तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते ।-(छहढाला) रूप अवस्था हो जाती है । यदि प्रभु तीर्थकर ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली (कामदेव) महाराज की तपस्यावधि में उनके तन पर लताएं चढ़ गई, दीमकों ने बामियां बना ली, पर उन्हें पता तक न चला; आदि । इन सब प्रसंगों से यही पुष्ट होता है कि आत्म गुणों में अवगाहन ही कर्मक्षय-आत्मशुद्धि अर्थात् मोक्ष का मार्ग है। कहा भी है—

'आत्मा-नदी संयम-तोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटादयोमिः ।
तत्रावगाहं कुरुपाण्डपुत्र ! न बारिणा शुद्ध यति चान्तरात्मा ।।

जल अथवा बाह्य साधनों से शरीर कदाचित पवित्र हो सकता हो, परन्तु आत्मा की शुद्धि तो अन्तरंग तप-सत्य, शील, दया आदि के द्वारा ही कथंचित् संभव है। इसलिए आत्म-गणों के विकास के हेतु इन्हें धारण (ग्रहण) कर शनैः शनैः पूर्ण निवृत्ति प्राप्त करना श्रेय है। अत: तीर्थकर महाबीर वर्धमान ने अपने को तपस्या में लगा दिया। वे जब आत्म-साधना में निमग्न हो जाते थे, तब कई दिन एक आसन से अचलस्थिर बैठ जाते थे, या खड़े ही ध्यान किया करते थे। कभी-कभी पूरे मास तक लगातार ध्यान करते रहते थे। ऐसे समय में उन्हें आहार-पान तो होता ही नहीं था, साथ ही बाहरी वातावरण भी उनके अनुभव से अछता रहता था। वे अपनी सहन-शक्ति को स्थिर और दढ रखने के लिए अनेक परीषहों को सहन करते थे। * शीतऋतु में पर्वत या नदी-तट पर बैठे रहते. ग्रीष्मऋत में तप्त पर्वत अथवा बालका प्रदेश में बैठे रहते थे, चारों ओर से चलने वाली गरम ल के थपेड़े उन्हें विचलित नहीं कर पाते थे। नग्न दिगम्बर श्रमण-तपस्वी वर्धमान को किसी कष्ट का अनुभव नहीं होता था। वर्षा ऋतु में मूसलाधार पानी बरसता था, शीतल वायु चलती थी, परन्तु महावीर उस समय भी धीर रहकर अपनी वीरता और सहनशीलता का परिचय देते थे।

वन में सिंह दहाड़ रहा हो, हाथी चिघाड़ रहा हो, सर्प फुफकार रहा हो, या उनके शरीर को जकड़ रहा हो, इस पर भी उन्हें पता नहीं ।

जैन-शास्त्रों में तपस्या का अत्यन्त महत्त्व है। और तपस्या का स्थान भी बड़ा उच्च एवं उत्कृष्ट है। वास्तव में तप इच्छा-निरोध का नामान्तर है । बिना इच्छा निरोध किये, आस्रव नहीं रुकता और आस्रव के रुके विना संवर व निर्जरा नहीं होते। मनि, संवर और निर्जरा के लिए कठिन श्रम करते हैं और ऐसे श्रम के कारण उन्हें श्रमण कहा जाता है। श्रमण दिगम्बर मुनि के अपने विशेष मूल गुण होते हैं:

'पंच महाव्रत, पंचसमितिघर, इन्द्रिय पांचों दमन करें ।
षट् आवश्यक, केशलोंच, इकबार खड़े भोजन करते ।
दांतन-स्नानत्याग भू-सोबत यथाजात-मुद्रा धरते ।

बे काय-बचन और मन की प्रवृत्तियों के रोकने में तत्पर रहते हैं, वाह्य और अन्तरंग दोनों प्रकार के तपों को तपते रहते हैं, समितियों का पालन करते हैं, क्षमा आदि विश्व-धर्म के दशलक्षणों को धारण करते हैं। बाह्य परिग्रहों का त्याग तो वे दीक्षा के समय ही कर देते है-उनकी साधना राग-द्वेष क्रोधादि रूप अन्तरंग परिग्रह के त्याग में भी होती है। द्वादश-अनुप्रेक्षा-चिन्तबन करते हैं । क्षुधा आदि परीग्रहों का सहन स्वेच्छा से करते हैं और उपसर्गों के प्रसंग में भी अपने धर्म में स्थिर रहते है। भयानक से भयानक कठिन परिस्थिति भी उन्हें मनि-धर्म से विचलित नहीं कर सकी।

श्रमण महामनि तीर्थंकर वर्धमान महावीर अपनी चर्चाओं में पूर्ण सावधान रहे । आत्म-ध्यान, पदार्थ-चिन्तन आदि से उपयोग हटने पर जब आवश्यकता अनुभव होती व निकटवर्ती नगर-ग्राम में श्रावकों के यहाँ एक बार शुद्ध-निर्दोष आहार-ग्रहण कर आते थे, क्योकि तप-वृद्धि में कारणभूत शरीर की स्थिति में आहार कारण है और जब तक आय-कर्म शेष है-शरीर रहना ही है। वे रसों से अपनी इन्द्रियों को पृष्ट नहीं करते थे-रस परित्याग भी उनके आहार का अंग होता था, क्योंकि श्रमण दिगम्बर मनि आहार का ग्रहण तप-वृद्धि के उद्देश्य से करते हैं, कहा भी है—

लै तप-बढ़ावन हेतु, नहि तन-पोषते तज रसन को ।
एक बार दिन में ले अहार, खड़े अलप निज पाणि में ।

-(छहढाला, दौलतराम)

उनका आहार यदि होता है तो चौबीस घण्टों में एक बार । वे दूसरी बार जल भी ग्रहण नहीं करते। उन्हें गृहस्थ के घर ही आहार लेना होता है, क्योंकि जनसाधु अपरिग्रही होते हैं। जब वे स्वयं नग्न हैं, तब भोजन-पात्र, आच्छादन-वस्त्र व भिक्षा अन्न की संभाल का उन्हें विकल्प ही क्यों हो? फिर संग्रह-वृत्ति उन्हें व्यर्थ है, जब कि दूसरी बार उन्हें लेना ही नहीं होता, इसीलिए, दिगम्बर मनि को 'पाणिपात्र' भी कहा जाता है।

सिहवृत्ति से आहार

मुनि को सिंहवृत्ति कहा गया है । जैसे ध्यान आदि में उनकी वृत्ति सिंह की भांति स्वाधीन और मुस्थिर होती है, वैसे ही वे आहार-हेतु जाते हैं और श्रावक के घर आहार ग्रहण करते समय सिंहवृत्ति का परिचय देते हैं। वे याचना नहीं करते अपितु जो श्रावक उन्हें नवधाभक्ति पूर्वक विधि सहित सम्मान देते हैं-उनके ही आहार ग्रहण करते हैं । तीर्थकर महावीर का अधिक समय ध्यान में ही व्यतीत होता था। वे आहार लेकर वन में चले जाते और ध्यानस्थ हो जाते । वे कभी पर्वत, कभी वन और कभी नदी तट पर ध्यानस्थ रहते । बेकहीं दो दिन, कहीं चार दिन और कहीं सप्ताह ठहरते और बिहार कर अन्यत्र चले जाते । शरीर में थकान अनभव होने पर जब वे आवश्यक समझते थे एक करवट से पृथ्वी पर लेटकर अल्प निद्रा ले लेते थे।-

भू -माहि पिछली रैन में, कुछ शयन एकासन करै ।'