महाश्रमण वेशधारी तपस्वी महावीर बर्धमान एकाकी तपस्या करते वनबनान्तर भ्रमण करते रहे। उन्होंने बाह्य बेश की भाँति अपना आन्तर वेश भी परिवर्तित कर रखा था-उनके विचार, आचार और दृष्टिकोण में दीक्षा-काल से ही परिवर्तन हो चुका था। उनका त्याग उनके सम्यक् चित्त का संकल्प था। उनके 'मनस्यक वचस्यक कर्मण्येकं महात्मनाम' का वे पूर्ण अनसरण करते थे जैसा कि तीर्थंकर ऋषभदेव प्रभति तीर्थकर पूर्वकाल में करते रहे थे। अपने पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ की परम्परा को उन्होंने पूरा-पूरा निभाया। जसे पूर्ववर्ती कर्मविजेताओं ने अपरिग्रह व्रत का पूर्ण पालन किया, महावीर भी बहिरंग वस्त्रादि परिग्रह और अन्तरंग कषायादि परिग्रह से सर्वथा मुक्त-नग्न थे । वे शीत आदि अनेक परीषहों को सहन करते थे ।। आचार्य कुन्दकुन्द ने परिग्रह-रहित को अनागार और परिग्रह-धारी को सागार (गृहस्थ) कहा है-
'सायारं सग्गथे परिग्गहारहिय खलु णिरायारं ।'
-नारित्तपाहुड, २
परिग्रह (वस्त्रादि) सहित सागार और परिग्रह-रहित मुनि होते हैं । ] एतावता दिगम्बर वृत्ति ही मुनि श्रेणी में गभित होती है। दिगम्बर वेशधारी होने के कारण ही ऋषभ प्रभृति महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों को दिगम्बरों का शास्ता कहा गया है। तीर्थंकर और श्रमण मनि दीक्षा ग्रहण के पश्चात् अपने पास तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखते। वे पाणिपात्राहारी होने के कारण बर्तन-आदि के विकल्पों से भी बचे रहते हैं। शास्त्रों में विधान है कि श्रावक को हाथ में भोजन नहीं करना चाहिये । (बर्तन में ही करना चाहिये) और साधु को पाणिपात्र ही होना चाहिये-
'खेडेवि ण कायब्वं पाणिप्पतं सचेलस्स । णिच्चेल पाणिपत्त उबइठें परमजिणवरि देहि ।। एकको बि मोक्खमग्गो सेसा य अभग्गया सव्वे । चेलेण य परिगहिया ते भणिया इचाणिज्जा।
-सुत्नपाइङ ७, १०, १३
सचेल [वस्त्रधारी] को खेल [विनोद] भाव से भी हाथ को भोजनपात्र नहीं बनाना चाहिये। निचेल [दिगम्बर को पाणिपात्र में भोजन का [जिनन्द्रों ने] विधान किया है। एक [नग्नत्व] ही मोक्षमार्ग है शेष वस्त्रादि सहित] अमार्ग [मोक्षपथ में हैं। जो वस्त्र [चेल] सहित है, उनके प्रति इच्छामि [इच्छाकार] कहना चाहिये । 'नमोऽस्तु' शब्द नग्न-दिगम्बर के निमित्त प्रयुक्त करना चाहिय।
दिगम्बरत्व को ही साध-मनित्वपद प्राप्त है, श्रमण भी वे ही हैं, इसीलिए दिगम्बर मार्ग में वस्त्रादि को अपवाद-रूप में भी स्वीकार नहीं किया गया। यदि स्वीकार किया भी जाता तो भी अपवाद को सदाकाल उत्सर्ग नहीं माना जाता। अन्यथा वह एक रोगी जैसी विडम्बना हो जाती । मनि को विवसन शब्द से (जनतर साहित्य में) संबोधित किया गया मिलता है। कोषकार 'विवसन' को नग्न और जैन साधु के रूप में स्वीकार करते हैं। जैन साहित्य में एक स्थान पर जैन-तार्किक आचार्य समन्तभद्र की घटना का उल्लेख है कि एक बार उन्हें भस्म-व्याधि रोग हो गया और मुनिपद त्यागना पड़ा। रोग के उपशान्त होने पर जब उन्होंने मुनि-श्रेणी में आने की इच्छा की, तब उन्हें प्रायश्चितपूर्वक अपना (आपत्कालीन गृहीत) वस्त्र त्यागना पड़ा; क्योंकि शासन में अपवाद मार्ग होने पर उसको उत्सर्ग मार्ग नहीं माना जाता, अर्थात् उसे सर्वथा सदा के लिए ग्रहण नहीं किया जाता।
शास्त्रों में अनेक स्थलों पर 'चल' शब्द देखने में आता है। 'चल' वस्त्र को कहते हैं । जहाँ तक 'चल' का विधान है, वहाँ तक श्रावक संज्ञा रहती है। उत्कृष्ट श्रावक जो मनि-पद में जाने की तैयारी करता है वह मात्र छोटी लंगोटी (लघ कोपीन) ही रखने का अधिकारी होता है। फिर बड़े या दो,तीन-चार वस्त्रों की तो कल्पना भी मुनिमार्ग में संभव नहीं है। मुनियों के बाईस परीषहों में नग्न-परीषह का विधान भी इसीलिए किया गया है। यह तो पहिले ही कह आये है कि मुनि पद संयम के दृढ़ करने और कर्मों से छुटकारा पाने के लिए धारण किया जाता है। अत: मुनि संयम के उपकरण मात्र रखने के अधिकारी होते हैं। यदि उन्हें 'सचेल' या 'अचेल' (अल्प चेल) अर्थात् अल्प वस्त्र धारक माना जाए तो वह उनके इन्द्रिय तथा प्राणी दोनों में से किसी भी संयम का साधक न होकर बाधक ही होता है । कथा भी लोक में प्रसिद्ध है कि एक साधवेशी लंगोटीमात्र के कारण पुरी गृहस्थी के जंजाल में ही पड़ गया। उसे विल्ली-कुत्ता और गाय तक पालने पड़े और खेती आदि के अनेक प्रसंग उपस्थित हो गये। कहा भी है—
'फास तनक-सी तन में साले । चाह लंगोटी की दुखभाले । भाले न समता सुख कभी नर, विना मुनि-मुद्रा धरै। धनि नगन पर तन नगन ठाड़े सुर-असुर पायनि पर।
इसीलिए भक्तगण निम्नपद को भी बड़े चाव से पढ़ते देखे जाते है-
'मेरे कब है बा दिन की सुघरी । तन-बिनु बसन, असन-बिनु वन में निवसौं नासा-दृष्टि धरी।।'
तीर्थकर एवं दिगम्बर मुनि काम-विजयी होने के कारण भी वस्त्र-रहित होते हैं। बे बालकवत् निर्विकार होते हैं, अत: उनके द्वारा किसी कमजोरी के छ पाये जाने का भी प्रश्न पैदा नहीं होता । वे तो कोष, काम और उदराग्नि को क्षमा, वैराग्य और अनशन के द्वारा शान्त करने वाले होते है, तथाहि-
'त्रयोऽग्नयः समुद्दिष्टाः क्रोधकामोदराग्नयः । तेषु क्षमा विरागत्वानाहुतिभिर्वने ।
-उत्तरपुराण, २०२
क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि ये तीन अग्नियाँ बत्तलाई गई है। इनमें क्षमा, वैराग्य और अनशन की आहुतियाँ देने वाले जो मनि बन में निवास करते हैं, वे आत्मयज्ञ कर इष्ट अर्थ को देने वाली अष्टम पृथिवी मोक्ष स्थान को प्राप्त होते हैं।) तीर्थकर महावीर वर्धमान भी इसी मार्ग में बढ़े जा रहे थे ।
जगत में कुछ पदार्थ बहत परिश्रम एवं कष्टसाध्य होते हैं, उनका रूप अनंक परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने पर निखरता है। मिट्टी-पत्थरों में मिला हुआ रत्न-पाषाण खुदाई करने के बाद निकलता है। उसे छैनी, टॉकी और हथोड़ों की मार सहनी पड़ती है, शाण की तीखी रगड़ खानी पड़ती है, तब झिलमिलाता बहुमूल्य रत्न कहलाता है। अग्नि में तपकर सोना शुद्ध-चमकीला होता है, वह प्रतिष्ठा पाता है और ग्ग्राहक उसे पूर्ण आदर से खरीदता है। श्रमण मनियों को भी अनेक प्रकार के तप करने होते हैं। वे यम-नियम, व्रत-संयम, गप्ति, समिति, धर्म आदि के द्वारा मोक्ष में साधनमत चारित्र-वृक्ष को लगातार सींचते रहते है। तीर्थंकर को सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो जन्म से होते हैं-उनमें मिथ्यात्व का अंशमात्र भी नहीं होता, पर चारित्र की पूर्णता के बिना मोक्ष नहीं होता; अत: उन्हें चारित्र-वृक्ष दृढ़ और प्रशस्त करना होता है। कहा भी है-
'व्रतसमुदायमूलः संयमस्कन्ध बन्धो, यम-नियमपयोभिर्वधित : शीलशाखः । समितिकलितभारो गुप्ति गुप्त प्रवालो गणकुसुमसुगन्धिः सत्तपशिचत्रपत्रः । शिवसुखफलदायी यो दयाछाययोधः, शमजनपथिकानां खेदनोदे समर्थः । दुरितरविजतापं प्रापयन्नन्तभावं । स भवविभवहान्य नोऽस्तुचारित्रवृक्षः ।
--वीरभक्ति, ४-५
सम्यक् चारित्ररूप वृक्ष का मूल व्रत-समुदाय [महाव्रतादि -समुदाय] है। संयम से उसके सुदृढ़ स्कन्धबन्ध की रचना हुई है, यम और नियम की सावधान सिंचाई से वह बढ़ता है । शील उसकी शाखाएँ हैं और समितियों ने उसके भार को उठा रखा है । गप्तियाँ उसके कोमल-किसलय (पत्र) है। मूलगण पुष्प-सौरभ और श्रेष्ठ तप उसके बहुरंगी बिभिन्न पत्ते है। वह शिवसुख (कल्याण अथवा मोक्ष) रूप फल देता है तथा दया-रूपी छाया से युक्त है । वह संसार-यात्री भव्यों के खेद को दूर करने में समर्थ है। पापरूपी सूर्य-ताप उसके छायाचित्रों का स्पर्श नहीं कर सकता। इस प्रकार विविध श्रेष्ठता-विभूषित यह चारित्र-बृक्ष संसार-हानि [जन्ममरण-चक्र-विलोप] रूप सर्वोत्तम लाभ का साधन है।
आत्मा अनंत वैभव का पुंज है । वह अप्रतिम है। उसके समान ससार में अन्य अमल्य पदार्थ नहीं है । आत्मा का वैभव भी रत्न की भाँति अनादिकालीन कर्म-परम्परा के मैल से ढंका है । इसे दूर करने के लिए परीषह, उपसर्ग सभी सहने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर आत्मा परमात्मा बनता है। वर्द्धमान महावीर को तपश्चरण करते हुए पर्याप्त समय हो गया था। उनकी संचित कर्मराशि क्रमश: निर्जीर्ण हो रही थी, आस्रव और बन्ध में भी संकोच हो चला था, उनका निखार निकट आ रहा था।
एक बार विहार करते हुए महावीर वर्द्धमान विहार प्रान्तीय कृम्भिका ग्राम के निकटवर्ती वन में पहुँचे । ऋजकला । नदी का सुन्दर तट था। शीतल मन्द बयार चल रही थी, वातावरण शान्त और नि:स्तब्ध था। वे सालवृक्ष के नीचे शिलापट पर विराजमान हो गये। उन्होंने वहाँ प्रतिमायोग धारण किया और ध्यानस्थ हो गये। स्वात्मचिन्तन में निमग्न होते ही उन्हें सातिशय अप्रमत्तगणस्थान की प्राप्ति हो गयी । उन्होंने चारित्र मोहनीय कर्म की शेष २१ प्रकृतियों के क्षय-हेतु अष्टम गुणस्थान को प्राप्त कर लिया ।
जैसे ऊँचे भवन पर शीघ्र चढ़ने के लिए सीढ़ी (निसैनी) उपयोगी होती है, वैसे ही कर्मवन्धन छेद कर ऊँचे चढ़ने के लिए क्षपक श्रेणी आवश्यक होती है। इसमें आत्म-परिणामों की प्रतिक्षण निर्मलता होती है। क्षपक श्रेणी का स्थान ८, ९,१० और १२ वाँ गणस्थान होता है। आदि के तीन गुणस्थानों में बहुत अंश में मोहनीय की प्रकृतियाँ क्षीण हो जाती हैं, परन्तु मोह का पूर्ण क्षय बारहवें गणस्थान में होता है । महावीर वर्द्धमान ने अधःकरण के पश्चात् पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्ल ध्यान के प्रभाव से अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान प्राप्त किये।
इस समय आत्मा के समस्त कलषित, विकृत भाव समूल नष्ट हो जाते हैं तदनन्तर बारहवें गणस्थान में ही एकत्ववितर्क नामक द्वितीय शक्ल ध्यान होता है और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय क्षय हो जाते हैं । मोहनीय के और ज्ञानावरण, दर्शनाबरण तथा अन्तराय इन चारों कर्मों के क्षय से केवलज्ञान (अनन्तज्ञान), अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तबल प्रकट हो जाते हैं। तेरहवें गणस्थान के अन्त में तीसरा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान होता है। तीर्थंकर ने इन सभी प्रक्रियाओं में पूर्णत: सफलता प्राप्त की, उनके घाति-कर्म क्षय हए और उन्होंने उसी दिन वैशाखशुक्ला दशमी को हस्तोत्तरा नक्षत्र की चन्द्रस्थिति में अपराह्न (तीसरे प्रहर के प्रारम्भ) में केवलज्ञान प्राप्त किया। * इस उपलब्धि के लिए उन्हें १२ वर्ष, ५ मास, १५ दिन तपश्चर्या करनी पड़ी।
उन्होंने अपने पूर्व-तृतीय भव में जिस हेतु तपस्या की थी और इस भव में जिस निमित्त राजवैभव-सुख छोड़ा था, वह उत्तम कार्य सम्पन्न हो गया। यह जहाँ तीर्थकर महावीर वर्द्धमान का परम कल्याण दर्शन था, वहाँ समस्त विश्व का, विशेषतः भारतभमि का परम सौभाग्य था कि उसे एक सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी अनपम उदय मिल गया; और महावीर की तीर्थकर प्रकृति का उसे लाभ मिलने का अवसर आ गया—
'शकल दस वैसाख दिवस अरि, घाति चतुक छय करना । केबल-लहि भवि भव-सर तारे, जजौ चरण सुख-भरना ।। नाथ मोहि राखो हो सरना । श्री बर्द्धमान जिनरायजी, मोहे राखो हो सरना ।
-कविवर वृन्दावन
अब तीर्थकर केवलज्ञानी हैं। उनके ज्ञान में जगत् के पदार्थ दर्पणवत् झलकने लगे। कहा भी है-'सर्वद्रव्यपर्याथषु केवलस्य । --तत्त्वार्थसूत्र, १२९ । केवलज्ञान सर्वद्रव्यों की सर्वपर्यायों को युगपद् जानता है। इसीलिए तो अमृतचन्द्राचार्य उस केवलज्ञान-ज्योति को नमस्कार करते है—
'तज्जयति परं ज्योति: समं समस्तैरनंतपर्यायः । दर्पणतल एव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।
---पुरूषार्थ १.