।। सरस्वती देवी के 108 मंत्रों के 108 अघ्र्य ।।

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100 - ऊँ ह्मीं कलायै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

101 - ऊँ ह्मीं भगवत्ये नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

102 - ऊँ ह्मीं दीप्तायैं नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

103 - ऊँ ह्मीं सर्वशाोकप्रणाशिन्यै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

104 - ऊँ ह्मीं महर्षिधारिण्यै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

105 - ऊँ ह्मीं पूतायै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

106 - ऊँ ह्मीं गणाधीशावतारितायै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

107 - ऊँ ह्मीं ब्रह्मलोकस्थिरावासायै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

108 - ऊँ ह्मीं द्वादशाम्नाय देवतायै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

पूर्णाघ्र्य - शंभु छनद
श्रुतज्ञान सकल यह द्वादशांग-मय जिनवर ध्वनि से प्रगट सांच।
इन सौ बारह करोड़ तेरासी, लाख अठावन सहस पांच।।
इन द्वादशांग अरू अंगबाह्य को, नित प्रति वंदन करता हूं।
भक्ती अघ्र्य चढ़ा करके, श्रुतज्ञान ज्योति को धरता हूं।।109।।

ऊँ ह्मीं तीर्थंकर मुखकमलविनिर्गत द्वादशांगमयी सरस्वतीदेव्यै पूर्णाध्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जाप्य मंत्र - ऊँ ह्मीं श्रीं वद वद वाग्वादिनि भगवति सरस्वति ह्मीं नमः।
(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावल से 108 बार मंत्र को जपें।)

जयमाला
शंभु-छंद

जय जय र्तीािंकर धर्म चक्रधर, जय प्रभु समवसरण स्वामी।
जय जय त्रिभुवन त्रयकाल एक, क्षण में जानों अंतर्यामी।।
जय सब विद्या के ईश आप की, दिव्यध्वनी जो खिरती है।
वह तालु-ओष्ठ-कंठादिक के , व्यापार रहित ही दिखती है।।1।।

अठरह महाभाषा सातशतक, क्षुद्रक भाषायम दिव्य धुनी।
उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।।
तीनों संध्या कालों में वह, त्रय त्रक मुहूर्त स्वयमेल खिरे।
गणधर-चक्री उरू इंद्रों के, प्रश्नों वश अन्य समय भि खिरे।।।।

भव्यों के कर्णों में अमृत, बरसाती शिव सुखदानी है।
चैतन्य सुधारस की झरणी, दुखहरणी यह जिनवाणी है।
जन चार कोश तक इसे सुनें, निजनिज के सब कर्तव्य गुनें।
नित ही अनंत गुण श्रेणिरूप, परिणाम शुद्ध कर कर्म हनें।।3।।

छह द्रव्य पांच हैं अस्तिकाय, अरू तत्व सात नवपदार्थ भी।
इनको कहती ये दिव्यध्वनी, सबजन हितकर शिवमार्ग सभी।।
आनन्त्य अर्थ के ज्ञान हेतु, जो बीज पदों का कथन करे।
अतएव अर्थकर्ता निवर, उनकी ध्वनि मेघ समान खिरे।।4।।

उन बीजपदों में लीन अर्थ, प्रतिपादक बारह अंगों को।
गणधर गुरू गूंथे अतएव ग्रन्थ-कर्त मानें वंदूं उनको।।
जिन श्रुत ही महातीर्थ उत्तम, उसके कर्ता तीर्थंकर हैं।
ये सार्थक नाम धरें जग में, इससे तिरते भवसागर हैं।।5।।

जय जय प्रभुवाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अति शीतल है।।
चंदन अरू मोतीहार चन्द्र-किरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमीय प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।6।।

वस्तु में धर्म अनंत कहे, उस एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, नहिं भेद अधिक अब हो सकते।।7।।

प्रत्येक वसतु है अस्तिरूप, अरू नास्तिरूप भी है वो ही।
वो ही है उभयरूप समझो, फिर अवक्तव्य भी है वो ही।।
वो अस्तिरूप अरू अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव्य भंग धरे।
फिर अस्तिनास्ति अरू अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।8।।

इस सप्तभंगमय सिंधू में जो नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह-रोग-द्वेषादिरूप, सब कर्मकालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्यसुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
फिर परमानंद परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।9।।

मैं निज अस्तित्व लिये हूं नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूं, पुद्गल में मुझ नास्तित्व सहीं।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊं।
निश्चयनय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊं।।10।।
भगवन्! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुत दृग् से निज को अवलोकूं।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूं।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊं।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निज को अवलोकूं सुख पाऊं।।11।।

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