मोह और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के निमित्त से उत्पन्न जीव के अन्तरंग परिणामों की तरतमता अर्थात् प्रतिक्षण होने वाला उतार-चढ़ाव गुणस्थान है। गुणस्थान आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाओं को बताता है। जीव के परिणाम सदा एक से नहीं रहते. उनमें मोह व मन-वचन-काया की प्रवत्ति के कारण प्रतिक्षण उतारचढ़ाव होता रहता है। इन प्रत्येक अवस्थाओं का बोध गुणस्थान द्वारा होता है। गुणस्थानों से जीव के मोह-निर्मोह, संसार-मोक्ष, बन्ध-अबन्ध दशाओं का परिचय प्राप्त होता है।
यद्यपि जीव स्वयं अपने ज्ञान, दर्शन, सुख, बल आदि अनन्त गुणों का अधिपति सदैव है, किन्तु मात्र अनादि अज्ञान भाव से अपने स्वभाव से अपरिचित रहा और इस अपरिचय के कारण कर्मों से सम्पृक्त होता रहा, बँधता रहा है। अनन्त संसार चक्र में दुखित होता हुआ जब सदुपदेश एवं महाभाग्य में सम्यक् पुरुषार्थ से ज्ञान भाव रूप अपने को स्वीकार करता है तब बन्धमार्ग से बचता है और आनन्द रूप मुक्ति मार्ग को पा जाता है। ऐसा उतार-चढ़ाव होता ही रहता है।
यह उतार-चढ़ाव का क्रम 10वें गुणस्थान तक जारी रहता है तथा दूसरे व ग्यारहवें गुणस्थान से तो केवल अवरोहण/उतार ही होता है, ये जीव के पतनोन्मुख परिणाम हैं। बारहवाँ गुणस्थान आरोहण स्वरूप ही है। अन्ततः जीव 13वें व 14वें गुणस्थान से ऊर्ध्वारोहण करता हुआ मोक्षशिखर पर ही पहुँचाता है। इसी को पञ्चसंग्रह प्राकृत अधिकार, 1/3 में आचार्य देव कहते हैं-
जेहिं दु लक्खिजंते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं॥
अर्थात् दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदर्शियों ने गुणस्थान संज्ञा से निर्देश किया है।
यों तो परिणामों के उतार-चढ़ाव की अपेक्षा आत्मिक विकास के आरोहणअवरोहण के अनन्त विकल्प सम्भव हैं फिर भी परिणामों की उत्कृष्टता और जघन्यता की अपेक्षा उन्हें चौदह भूमिकाओं में विभक्त किया गया है, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। जो निम्न हैं-
1. मिथ्यादृष्टि 2. सासादन सम्यग्दृष्टि 3. सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) 4. अविरत सम्यग्दृष्टि या असंयत सम्यग्दृष्टि 5. देशविरत या संयतासंयत 6. प्रमत्त संयत या प्रमत्तविरत 7. अप्रमत्त संयत 8. अपूर्वकरण 9. अनिवृत्तिकरण 10. सूक्ष्म साम्पराय 11. उपशान्त मोह 12. क्षीण मोह या वीतराग छद्मस्थ 13. सयोग केवली जिन 14. अयोग केवली जिन।
सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान) के साथ प्रयुक्त असंयत विशेषण अपने से पूर्व के गुणस्थानों में असंयतपना व्यक्त करता है। यह अन्त्यदीपक प्रयोग है। इससे ऊपर के गुणस्थान संयमी जीवों के होते हैं तथा सभी सम्यग्दृष्टि होते हैं।
प्रमत्तविरत (छठवें गुणस्थान) में प्रयुक्त प्रमत्त शब्द अपने साथ अपने से नीचे की प्रमत्त स्थिति को प्रकट करते हैं। इसी प्रकार बारहवें गुणस्थान के साथ जुड़ा छद्मस्थ शब्द भी अन्त्यदीपक है; क्योंकि आवरण कर्मों के अभाव हो जाने से उससे आगे की भूमिकाओं में छद्मस्थता नहीं रहती।
गुणस्थानों के उक्त नामों के कारण मोहनीय कर्म और योग हैं। प्रारम्भ के चार गुणस्थानों का सम्बन्ध हमारी दृष्टि (श्रद्धा) से है, जो कि दर्शन मोहनीय कर्म के निमित्त से होते हैं। पंचम आदि गुणस्थानों का सम्बन्ध जीव के चारित्रिक विकास से है, वे चारित्र मोहनीयकर्म के उपशम, क्षयोपशम और क्षय के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान योग निमित्तक हैं।
गुणस्थानों का स्वरूप इस प्रकार है-
1. मिथ्यात्व - सहज ज्ञानानन्दी शुद्ध आत्म स्वभाव अपना होने पर भी, पता न होने के कारण सुहाता नहीं हैं। यही आत्म अज्ञानी भाव, पर रुचि-रुझान में इतना तल्लीन होता है कि समझाए जाने पर भी अपने को देहादि रूप ही स्वीकारता है। ज्ञातारूप स्वीकार नहीं पाता। मात्र इतने दोष से ही यह जीव मिथ्यात्वी, अज्ञानी, संसारी, दुःखी और आकुलित रहता है। मिथ्या पद का अर्थ वितथ, व्यलीक, विपरीत और असत्य है। जब तक प्रयोजनभूत जीवादि पदार्थ विषयक श्रद्धा असत्य होती है, तब तक जीवत्व से बाह्य शरीरादि पदार्थ तथा रागादि बाह्य विकृत परिणाम अपने लगते हैं, तभी तक जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में रहता है। अनादि से आत्म अज्ञान व भ्रम से ऐसी ही दशा प्रत्येक संसारी अज्ञानी की हो रही है। जैसे पित्त ज्वर से ग्रस्त रोगी को हितकारी मधुर औषधि भी अच्छी नहीं लगती वैसे ही मिथ्यात्वग्रस्त चित्त में आत्मतत्त्व-पोषक जिनवचन प्रिय नहीं लगते हैं।
ऐसा जीव स्व-पर विवेक रहित होता है अर्थात् स्वानुभूतिपूर्वक विपरीत अभिनिवेश (मान्यता) रहित तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होता। तथा सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का भी यथार्थ श्रद्धान नहीं होता।
मिथ्यात्व के दो भेद हैं - अगृहीत और गृहीत। एकेन्द्रियादि सभी संसारी जीवों के प्रवाह रूप से जो अज्ञान भावमय मिथ्या मान्यता चली आ रही है, जिससे जीव की देहादि जड़ पदार्थों में और उनको निमित्त करते हुए रागादिभावों में एकत्वबुद्धि बनी रहती है वह अगृहीत मिथ्यात्व है। और इसके सद्भाव में जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को न जानने वाले जीवों द्वारा कल्पित जो अनादि अज्ञान पुष्ट होता है और नयी अन्यथा मान्यताएँ अंगीकार की जाती हैं वह गृहीत मिथ्यात्व कहलाता है। वह कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की निमित्तता में होता है।
यह मिथ्याभाव पाँच प्रकार भी बतलाया गया है। विपरीत, एकान्त, विनय, संशय एवं अज्ञान रूप मिथ्यापरिणति वाला।
2. सासादन सम्यग्दृष्टि – सम्यग्दर्शन के विराधन को आसादन कहते हैं, उसके साथ जो भाव होता है वह सासादन कहलाता है। जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ने अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयवश औपशमिक सम्यक्त्व के काल में कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलि काल शेष रहने पर सम्यग्दर्शन रूपी रत्नपर्वत के शिखर से च्यत होकर मिथ्यादर्शन रूपी कण्टकाकीर्ण आकलतारूप भमि के सन्मख होते हुए सम्यग्दर्शन का तो नाश कर दिया है किन्तु मिथ्यादर्शन को प्राप्त नहीं हुआ है। जीव की इस अवस्था को सासादन गुणस्थान कहते हैं।
सासादन पद के साथ सम्यक्त्व पद का प्रयोग भूतपूर्व न्याय की अपेक्षा हुआ है। इस का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है, काल पूरा होने पर नियम से मिथ्यादृष्टि होता है।
3. मिश्र-(सम्यक्मिथ्यादृष्टि) - जिस गुणस्थान में जीव के सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदयवश समीचीन और मिथ्या उभय रूप श्रद्धा युगपत् होती है, उसकी उस श्रद्धा को मिश्र गुणस्थान कहते हैं। जिसप्रकार दही और गुड़ के मिलाने पर उनका मिला हुआ परिणाम (स्वाद) युगपत् अनुभव में आता है उसी प्रकार ऐसी श्रद्धा वाले जीव के समीचीन और मिथ्या उभय रूप श्रद्धा होती है। यहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नहीं है। इस गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त है।
इस गुणस्थान से सीधे देशविरत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती तथा यहाँ परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध व मरण तथा मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है।
4. अविरत सम्यक्त्व या असंयतसम्यग्दृष्टि - निश्चय सम्यग्दर्शन से सहित और निश्चय व्रत (अणुव्रत और महाव्रत) से रहित अवस्था ही अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थगुणस्थान कहलाता है।
जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण लब्धि तथा चतुर्थगुणस्थान के योग्य बाह्य आचार से सम्पन्न होने पर, दर्शन मोहनीय एवं अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क के उपशमादिरूप अभाव के होने पर, स्वपुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख होने पर आत्मानुभूति पूर्वक होती है। अर्थात् यह अपने आत्मा का सच्चा स्वरूप समझता है कि "मैं तो त्रिकाल एकरूप रहने वाला ज्ञायक परमात्मा हूँ, मैं ज्ञाता हूँ, अन्य ज्ञेय हैं, पर के साथ मेरा कोई सम्बन्ध है ही नहीं। अनेक प्रकार के विकारी भाव जो पर्याय में होते हैं, वे भी मेरा स्वरूप नहीं हैं। ज्ञाता स्वभाव की दृष्टि एवं लीनता करते ही वे नाश को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् उत्पन्न ही नहीं होते।" इस प्रकार निर्णयपूर्वक दृष्टि स्वसन्मुख होकर निर्विकल्प आनन्दरूप परिणति का साक्षात् अनुभव करती है, तथा निर्विकल्प अनुभव के छूट जाने पर भी मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी कषायों के अभावस्वरूप आत्मा की शुद्ध परिणति निरन्तर बनी रहती है। उस को अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान कहते हैं।
इसके तीन भेद होते हैं-
1. औपशमिक 2. क्षायोपशमिक 3. क्षायिक।
इन तीन प्रकार के सम्यग्दर्शन में से किसी एक सम्यग्दर्शन के साथ जब तक इस जीव के अप्रत्याख्यानावरण आदि क्रोध, मान, माया और लोभ के उदयवश अविरतिरूप परिणाम बना रहता है, तब तक अविरत सम्यक्त्व नाम का चतुर्थ गुणस्थान रहता है। अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मज्ञान से सम्पन्न होने के कारण अभिप्राय की अपेक्षा विषयों के प्रति सहज उदासीन होता है। चरणानुयोग के अनुसार आचरण में इसके पंचेन्द्रियों के विषयों का तथा त्रस-स्थावर जीवों के घात का त्याग नहीं होता। इसलिए इसके बारह प्रकार की अविरति पाई जाती है। भोग भोगते हुए उनमें लिप्त नहीं होता, जल के बीच कमल की तरह निर्लिप्त रहता है। लक्ष्य तथा बोध शुद्ध हो जाने से संयम के पथ पर अग्रसर होने के लिए उत्कण्ठित रहता है।
5. देशविरत या संयतासंयत - चतुर्थ गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि जीव अपनी आत्मा की आंशिक शुद्ध परिणति को स्वसन्मुख पुरुषार्थ द्वारा बढ़ाता हुआ पंचम गुणस्थान को प्राप्त करता है। इस दशा में आत्मा का निर्विकल्प अनुभव (चतुर्थ गुणस्थान की अपेक्षा) शीघ्र-शीघ्र होने लगता है। और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव हो जाता है। आत्मिक शान्ति बढ़ जाने के कारण, पर से उदासीनता बढ़ती जाती है तथा सहज देशव्रत के शुभ भाव होते हैं। अतः श्रावक के व्रतों का यथावत् पालन करता है, परन्तु अपनी शुद्ध परिणति विशेष उग्र नहीं होने से तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के सद्भाव बने रहने से भावरूप मुनिपद का अधिकारी नहीं हो सकता है। यह अवस्था ही देशविरत नामक पंचम गुणस्थान है। इसे व्रताव्रत या संयतासंयत गुणस्थान भी कहते हैं; क्योंकि अन्तरंग में निश्चय व्रताव्रत या निश्चय संयमासंयम रूप दशा होती है और बाह्य में एक ही समय में त्रसवध से विरत और स्थावरवध से अविरत रहता है। इस गुणस्थान वाले श्रावक के अणुव्रत नियम से होते हैं। ग्यारह प्रतिमाओं के धारक आत्मज्ञानी क्षुल्लक, ऐलक एवं आर्यिका इसी गुणस्थान में आते हैं।
6. प्रमत्तसंयत - जिस सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष ने निज द्रव्याश्रित पुरुषार्थ द्वारा पंचम गुणस्थान से अधिक शुद्धि प्राप्त करके निश्चय सकल संयम प्रकट किया है और साथ में कुछ प्रमाद भी वर्तता है उन्हें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज कहते हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी बारह कषायों का अभाव होने से पूर्ण संयमभाव होने के साथ संज्वलन कषाय और नोकषाय की यथासम्भव तीव्रता रहने से संयम को मलिन करने वाला प्रमाद भी होता है, इसलिए इस गुणस्थान की प्रमत्त संयत संज्ञा सार्थक है।
इस गुणस्थान में मुनिराज महाव्रतों की अपेक्षा सविकल्प अवस्था में ही होते हैं, इसलिए यद्यपि इसमें उपदेश, आहार, निहार, विहार आदि विकल्प होते हैं तथापि मुनियोग्य आन्तरिक शुद्ध परिणति (निश्चय संयम दशा) निरन्तर बनी रहती है। और उसके अनुरूप 28 मूलगुण व उत्तर गुणों का और शील के सब भेदों का यथावत् पालन भी सहज होता है।
चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों के कारण आचरण किंचित् दूषित बना रहता है, किन्तु छठे गुणस्थान योग्य निश्चय संयम का घात नहीं होता।
छठे गुणस्थान में (यथोचित शुद्ध परिणति सहित) सविकल्पता और सातवें गुणस्थान में निर्विकल्पता होती है तथा दोनों का काल अन्तर्मुहूर्त ही होता है। अतः मुनिराज बारम्बार सविकल्प से निर्विकल्प एवं निर्विकल्प से सविकल्प दशा में परिवर्तित होते रहते हैं।