जीव के मन-वचन और काय की क्रिया के निमित्त से कर्म योग्य पुद्गल परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं तथा कषायों के कारण जीवात्मा से चिपक जाते है। तथा यथायोग्य काल में वे कर्म अपना अच्छा-बुरा फल देकर पके हुए फल के समान आत्मा से पृथक हो जाते है अर्थात् झड़ जाते हैं। जीव ने जिस रूप में (प्रकृति आदि) कर्म बंध किया वे उसी रूप में उदय में आवें, फल देवें यह कोई जरूरी नहीं है। जीव के शुभाशुभ भावों के अनुसार कर्मों में बहुत कुछ परिवर्तन संभव है। जीव के शुभाशुभ भावों की अपेक्षा उत्पन्न होने वाली कर्मों की विविध अवस्थाओं को करण कहते हैं।
करण दस होते हैं -
१. बंध, २. सत्ता, ३. उदय,४. उत्कर्षण, ५. अपकर्षण ६. उदीरणा, ७. संक्रमण, ८. उपशम, ९. निधक्ति, १०. निकाचित।
यह बन्ध प्रकृति, स्थिती, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा चार भेद वाला है। इनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। 148 कर्म प्रकृतियों में से 120 प्रकृति बंध योग्य होती हैं।
चौदह गुणस्थानों में बंध ने योग्य कर्म प्रकृतियाँ है (1) मिथ्यात्व में 117, (2) सासादन में 101, (3) मिश्र में 74, (4) अविरत सम्यक्त्व में 77, (5) देश विरत में 67, (6) प्रमतविरत में 63, (7) अप्रमत विरत में 59,(8) अपूर्व करण में 58, (9) अनिवृत्ति करण में 22, (10) सूक्ष्म सांपराय में 17, (11) उपशांत मोह में 1, (12) क्षीण मोह में 1, (13) सयोग केवली में 1, (14)अयोग केवली में 0 शून्य।
सत्व(सत्ता ) - कर्म बंधने के दूसरे समय से लेकर फल देने के पहले समय तक कर्म आत्मा में अपना अस्तित्व बनाये रखते है, कर्मों की इस अवस्था को सत्ता कहते हैं। सत्व योग्य कर्म प्रकृतियाँ 148 हैं।
चौदह गुणस्थानों में सत्व योग्य कर्म प्रकृति क्रमश: निम्नलिखित हैं। पहले आठवे गुणस्थानों तक क्रमश: 148, 145, 147, 148, 147, 146, 146, 138 एवं नवमें गुणस्थानों के नौ भागों में 138, 122, 114, 113, 112, 106, 105, 104, 103 तथा दसवें गुणस्थानों से तेरहवें गुणस्थानों तक 102, 101, 85 चौदहवे गुणस्थानों के उपान्त समय में 85 एवं अंत समय में 13 अथवा 12 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है।
उदय - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कर्मों का फल देना उदय कहलाता है अथवा कर्मों का अपना फल देने की समर्थता रूप अवस्था को प्राप्त होना उदय का लक्षण है। उदय में आने वाले पुद्गल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर झड़ जाते हैं।
बन्ध योग्य प्रकृतियों में सम्यक्र मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति मिलाने पर उदय योग्य 122 प्रकृतियाँ हो जाती है। मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में क्रमश: उदय योग्य प्रकृतियों की संख्या निम्न प्रकार से है 117, 106, 100, 104,87, 81, 76, 72, 66, 60, 59, 57, 42 तथा 13 है।
उत्कर्षण - कर्मों की स्थिति व अनुभाग में वृद्धि का होना उत्कर्षण कहलाता है। अर्थात नवीन बंध के संबंध से पूर्व की स्थिति में से कर्म परमाणुओं की स्थिति का बढ़ाना उत्कर्षण है। जैसे किसी मनुष्य अथवा तिर्यञ्च ने सौधर्म स्वर्ग की 2 सागर प्रमाण आयु बंध किया बाद में उत्कर्षण कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग की 22 सागर की आयु बांध ली। विशुद्ध परिणामों से शुभ कर्मों का एवं संक्लेश भावों से अशुभ कर्मों में उत्कर्षण होता है।
अपकर्षण - कर्मों की स्थिति व अनुभाग में हानि का होना 'अपकर्षण' है। जैसे राजा श्रेणिक ने सातवें नरक की 33 सागर प्रमाण आयु का बंध किया बाद में विशुद्ध परिणामों से स्थिति घटाकर प्रथम नरक की 84 हजार वर्ष प्रमाण आयु कर ली। विशुद्ध परिणामों से अशुभ कर्मों में तथा संक्लेश परिणामों से शुभ कर्मों में अपकर्षण होता है।
उदीरणा - जिन कर्मों का उदय काल प्राप्त नहीं हुआ है उनको उपाय विशेष से पचाना अर्थात अपकर्षण कर उदय में दे देना उदीरणा है। जैसे आम्रादि फल प्रयास विशेष से समय से पूर्व ही पका लिये जाते हैं। वैसे ही तप आदि साधनों के बल पर कर्मों का अपकर्षण करण द्वारा स्थिति कम करके नियत समय के पूर्व ही भोग कर क्षय किया जा सकता है।
संक्रमण - संक्रमण का अर्थ परिवर्तन है। एक कर्म की प्रकृति आदि का दूसरे सजातीय कर्म में परिवर्तन हो जाने को संक्रमण कहते हैं। यह संक्रमण किसी एक मूल प्रकृति की उत्तर प्रकृतियों में ही होता है। मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता अर्थात् ज्ञानावरण बदल कर दर्शनावरण नहीं हो सकता इत्यादि। ये संक्रमण पाँच प्रकार के होते हैं - उद्वेलन संक्रमण, विध्यात संक्रमण, अध: प्रवृत्त संक्रमण, गुण संक्रमण और सर्व संक्रमण।
उपशम - कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी, उदय में आने से रोक देना 'उपशम' कहलाता है। इस अवस्था में अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण तो संभव है किन्तु उदय, उदीरणा संभव नहीं है। उपशम अवस्था हटते ही पुन: कर्म अपना फल दे सकते हैं, जैसे बादल से ढका हुआ सूर्य, बादलों के हटते ही पुन: प्रकाश और प्रताप रूप कार्य करने में समर्थ हो जाता है।
निधति - कर्म की वह अवस्था जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है किन्तु उत्कर्षण और अपकर्षण हो सके निधति कहलाती है।
निकाचित - कर्म की वह अवस्था जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण चारों ही न हो सके। निकाचित कहलाती है। इस प्रकार जैन सिद्धान्त में प्राणियों के अपने कर्मों के फल भोग तथा पुरूषार्थ द्वारा उसको बदलने की शक्ति इन दोनों में भलीभाँति समन्वय स्थापित किया है।
दस करणों के दृष्टान्त-
जिस प्रकार किसी को मृत्युदण्ड मिला होतो राष्ट्रपति उसे अभयदान दे सकता है अर्थात् मृत्युदण्ड को वापस ले सकता है। उसी प्रकार आचार्य श्री वीरसेनस्वामी, श्री धवला, पुस्तक ६ में कहते हैं- "जिणबिंबदंसणेण णिधक्तणिकाचिदस्स वि मिच्छतादिकमकलावस्स खय दंसणादो।" अर्थात् जिनबिम्ब के दर्शन से निधति और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय होता देखा जाता है तथा नौवें गुणस्थान में प्रवेश करते ही दोनों प्रकार के कर्म स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।