जो आत्मा को परतंत्र करता हैं, दु:ख देता है, संसार में परिभ्रमण कराता है उसे कर्म कहते हैं। अनादि काल से जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है, इन दोनो का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है। 'मैं हूँ।" इस अनुभव से जीव जाना जाता है और जगत में कोई दरिद्र है कोई धनवान है, कोई रोगी है कोई स्वस्थ्य है इस विचित्रता से कर्म का अस्तित्व जाना जाता है।
वे कर्म मुख्य रुप से आठ प्रकार के हैं - (१) ज्ञानावरणी (२) दर्शनावरणी (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र (८) अंतराय
प्राणियों की हिंसा करना, दूसरों की वस्तु चुरा लेना, दान आदि देने नहीं देना, निर्माल्य का ग्रहण करना इत्यादि कार्यों से अंतराय कर्म का बन्ध होता है।
उपरोक्त कमों का बन्ध चार प्रकार का होता है १. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बंध ३. प्रदेश बंध ४. अनुभाग बंध
इस प्रकार शुभाशुभ कर्म के बंध को जानकर उनके बंध के कारण उनका फल जानकर विवेक पूर्वक कर्मों से बचने का छुटकारा पाने का उपाय ही कर्म सिद्धान्त को पढ़ने समझने का प्रयोजन है।