आठों कर्मो के आस्रव
ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म के आस्रव - ज्ञान और दर्शन में किये गये प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात, ये ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्म के आस्रव हैं।
प्रदोष - किसी धर्मात्मा के द्वारा की गईं तत्त्वज्ञान की प्रशंसा का नहीं सुहाना प्रदोष है। निन्हव-किसी कारण से ज्ञान को छुपाना निन्हव है।
मात्सर्य - वस्तु स्वरूप को जानकर यह भी पण्डित हो जावेगा, ऐसा विचार कर किसी को न पढ़ाना मात्सर्य है।
अन्तराय - किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय है। आसादन-दूसरे के द्वारा प्रकाशित होने योग्य ज्ञान को रोक देना आसादन है। उपघात-सच्चे ज्ञान में दोष लगाना उपघात है।
वेदनीय के आस्रव - निज पर तथा दोनों के विषय में स्थित दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन, ये असाता वेदनीय के आस्रव हैं।
दुःख - पीड़ारूप परिणाम विशेष को दुःख कहते हैं।
शोक - अपना उपकार करने वाले पदार्थ का वियोग होने पर विकलता होना शोक है।
ताप - संसार में अपनी निन्दा आदि के हो जाने से पश्चात्ताप करना ताप है।
आक्रन्दन - पश्चात्ताप से अश्रुपात करते हुए रोना आक्रन्दन है।
वध - आयु आदि प्राणों का वियोग करना वध है।
परिदेवन - संक्लेश परिणामों का अवलम्बन कर इस तरह रोना कि सुनने वाले के हृदय में दया उत्पन्न हो जावे, सो परिदेवन है।
यद्यपि शोक आदि दुःख के ही भेद हैं तथापि दुःख की जातियाँ बतलाने के लिए सबका ग्रहण किया है।
साता वेदनीय के आस्रव - भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, सराग संयमादि, योग, शान्ति, शौच तथा अर्हद्भक्ति आदि ये साता वेदनीय के आस्रव हैं।
भूतव्रत्यनुकम्पा - भूत-संसार के समस्त प्राणी पर दया करना भूतानुकम्पा और व्रती, अणुव्रती या महाव्रती जीवों पर दया करना, सो व्रत्यनुकम्पा है।
दान - निज और पर के उपकार योग्य वस्तु के देने को दान कहते हैं।
सराग संयमादि - पाँच इन्द्रिय और मन के विषयों से विरक्त होने तथा छह काय के जीवों की हिंसा न करने को संयम कहते हैं और राग सहित संयम को सराग संयम कहते हैं।
यहाँ आदि शब्द से संयमासंयम (श्रावक के व्रत), अकाम निर्जरा (बन्दीखाने आदि में संक्लेश रहित भोगोपभोग का त्याग करना) और बालतप-(मिथ्यादर्शन सहित तपस्या करना) का भी ग्रहण होता है।
योग- इन सबको अच्छी तरह धारण करना योग कहलाता है।
क्षान्ति - क्रोधादि कषाय के अभाव को शान्ति कहते हैं।
शौच - लोभ का त्याग करना शौच है। इति शब्द से अर्हदक्ति, मुनियों की वैयावृत्ति आदि का ग्रहण करना चाहिए।
दर्शन मोहनीय का आस्रव - केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद करना दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव है।
अवर्णवाद - गुणवानों को झूठे दोष लगाना, सो अवर्णवाद है।
केवली का अवर्णवाद - केवली ग्रासाहार करके जीवित रहते हैं इत्यादि कहना, सो केवली का अवर्णवाद है।
श्रुत का अवर्णवाद - शास्त्र में मांस भक्षण करना आदि लिखा है, ऐसा कहना श्रुत का अवर्णवाद है। संघ का अवर्णवाद-ये साधु शूद्र हैं, मलिन हैं, निन्द्य हैं, नग्न हैं इत्यादि कहना संघ का अवर्णवाद है।
धर्म का अवर्णवाद - जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए धर्म में कुछ भी गुण नहीं है, उसके सेवन करने वाले असुर होवेंगे, इत्यादि कहना धर्म का अवर्णवाद है।
देव का अवर्णवाद - देव मदिरा पीते हैं, मांस खाते हैं, जीवों की बलि से प्रसन्न होते हैं आदि कहना देव का अवर्णवाद है।
चारित्र मोहनीय के आस्रव - कषाय के उदय से होने वाले तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय के आस्रव हैं।
नरक आयु के आसव - बहुत आरंभ और परिग्रह का होना नरक आयु का आस्रव है।
तिर्यंच आयु के आस्रव - माया, छल-कपट करना तिर्यच आयु का आस्रव है।
मनुष्य आयु का आस्रव - थोड़ा आरंभ और थोड़ा परिग्रह का होना मनुष्य आयु का आस्रव है। स्वभाव से ही सरल परिणामी होना भी मनुष्य आयु का आस्रव है।
सब आयुओं का आस्रव - दिग्वतादि ७ शील और अहिंसा आदि पाँच व्रतों का अभाव भी समस्त आयुओं का आस्रव है।
शील और व्रत का अभाव रहते हुए जब कषायों में अत्यन्त तीव्रता, तीव्रता, मन्दता और अत्यन्त मन्दता होती है, तभी वे क्रम से चारों आयुओं के आस्रव के कारण होते हैं।
देव आयु का आस्रव - सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल तप, ये देव आयु के आस्रव हैं।
सम्यग्दर्शन से भी देवायु का आस्रव होता है। सम्यग्दर्शन से वैमानिक देवों का आस्रव ही होता है अन्य देवों का नहीं। यद्यपि सम्यग्दर्शन किसी आस्रवरूप नहीं है, तो भी उसके साथ जो रागांश है, उससे बंध होता है।
अशुभ नामकर्म का आस्रव - योगवक्रता और विसंवाद से अशुभकर्म का आस्रव होता है।
शुभ नामकर्म का आस्रव - योगवक्रता और विसंवाद के विपरीत अर्थात् योगों की सरलता और अन्यथा प्रवृत्ति का अभाव ये शुभ नामकर्म के आस्रव हैं।
१. दर्शनविशुद्धि - पच्चीस दोष रहित निर्मल सम्यग्दर्शन। २. विनय सम्पन्नता - रत्नत्रय तथा उनके धारकों की विनय। ३. शीलव्रतेष्वनतिचार - अहिंसादि व्रत और उनके रक्षक क्रोधत्याग आदि शीलों में विशेष प्रवृत्ति। ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग - निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना। ५. संवेग - संसार से भयभीत रहना। ६. शक्तितस्त्याग - यथा शक्ति दान देना। ७. शक्तितस्तप - उपवासादि तप करना। ८. साधु समाधि - साधुओं का उपसर्ग दूर करना या समाधि सहित वीर मरण करना। ९. वैयावृत्यकरण - रोगी तथा बाल-वृद्ध मुनियों की सेवा करना। १०. अर्हद्भक्ति - अर्हत भगवान की भक्ति करना। ११. आचार्यभक्ति - आचार्य की भक्ति करना। १२. बहुश्रुतभक्ति - उपाध्याय की भक्ति करना। १३. प्रवचनभक्ति - शास्त्र की भक्ति करना। १४. आवश्यकापरिहाणि - सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओं में हानि नहीं करना। १५. मार्ग प्रभावना - जैनधर्म की प्रभावना करना। १६. प्रवचन वात्सल्य - धर्मी में गोवत्स के समान प्रेम-स्नेह रखना। ये सोलह भावनाएं तीर्थकर प्रकृति नामक नामकर्म के आस्रव हैं।
इन १६ भावनाओं में दर्शनविशुद्धि नामक प्रथम भावना मुख्य है। इस भावना के साथ अन्य १५ भावनाएं हों, चाहे कम हों तो भी तीर्थकर नामकर्म का आस्रव हो सकता है।
नीच गोत्र कर्म का आस्रव - दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरे के मौजूद गुणों को ढांकना और अपने झूठे गुणों को प्रकट करना, ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।
उच्च गोत्र का आस्रव - नीच गोत्र के आस्रवों से विपरीत अर्थात् पर प्रशंसा तथा आत्म-निन्दा और नम्र वृत्ति तथा मद का अभाव ये उच्च गोत्र कर्म के आस्रव हैं।
अन्तरायकर्म का आस्त्रव - पर के दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न करना अन्तराय कर्म का आस्रव है।