‘गिरनार और शत्रुंजय पर एक समय दोनों सम्पद्रायों में झगड़ा हुआ और उसमें शासन देवता की कृपा से दिगम्बरों की पराजय हुई। जब इन दोनों तीर्थों पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अधिकार सिद्ध हो गया, तब आगे किसी प्रकार का झगड़ा न हो सके इसके लिए श्वेताम्बर संघ ने यह निश्चय किया कि अब से जो प्रतिमाएं बनायी जाये, उनके पादमूल में वस्त्र का चिन्ह बना दिया जाये। यह सुनरक दिगम्बर को क्रोध आ गया ओर उन्होंने अपनी प्रतिमाओं को स्पष्ट नग्न बनाना शुरू कर दिया। यही कारण् है कि सम्प्रति राजा आदि की बनवायी हुई प्रतिमाओं पर वस्त्र लांछन नहीं है और स्पष्ट नग्नत्व भी नहीं हैं।1
इससे यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पहले दोनों की प्रतिमाओं में भेद नहीं था। परंतु अब दोनों की प्रतिमाओं में इतना अंतर पड़ गया है कि उसे देखने से आश्चर्य होता है। पं. बेचरदास जी ने लिखा है-
‘यह सम्प्रदाय (श्वे. सम्प्रदाय) कडोरा कटिसूत्र वाली मूर्ति को ही पसंद करता है उसे ही मुक्ति का साधन समझता हैं वीतराग संयासी फकीर की प्रतिमा को जैसे किसी बालक को गहनों से लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणों से श्रृंगारित कर उसी शोभा में वृद्धि को समझता है और परमयोगी वर्द्धमान या इतर किसी वीतराग की मूर्ति को विदेशी पोशाक जाकिट, कालर, घड़ी वगैरह से सुसज्जित कर उसका खिलौने जितना भी सौन्दर्य नष्ट करके अपने मानव जन्म की सफलता समझता2 है।’
इस तरह परस्पर की खींचातानी के कारण जैन संघ में जो भेद पड़ा वह भेद उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया ओर उसी के कारण आगे जाकर दोनों सम्प्रदायों में भी अनेक अवान्तर पंथ उत्पन्न होते गये।