।। संघभेद ।।

जिनधर्म (दिगम्बर) की मान्यता के अनुसार भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति विक्रम राजा की मृत्यु के 136 वें वर्ष में हुई है। दोनों में सिर्फ 3 वर्ष का अंतर होने से दोनों की उत्पत्ति काल तो लगभग एक ही ठहरता है, रह जाती है कथा की बात। सो माहवीर के द्वारा प्रतिपादित और आचरित दिगम्बर धर्म उनके बाद एकदम लुप्त हो जाय और फिर क्रूद्ध साधु के नग्न हो जाने मात्र स ेचल पड़े और इतने विस्तृत और स्थायी रूप में फैल जाय, यह सब कल्पना की वस्तु हैं, किंतु वास्तविकता इससे दूर है। तो श्वेताम्बर विद्वान इस कथा को ठीक समझते हैं। वे भी इस बात को मानते हैं कि पहले साधु नग्न रहते थे फिर धीरे-धीरे परिग्रह बढ़ा।

उदाहरण के लिए श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजयजी के शब्द ही हम यहां उद्धृत करते हैं-

‘आर्यरक्षित के स्वर्गवास के बाद धीरे-धीरे साधुओं का निवास बस्तियों में होने लगा और इसके साथ ही नग्नता का भी अंत होता गया। पहले बस्ती में जाते समय 1. जैन साहित्य में विकार, पृ. 87-105 बहुधाकटिबंध का उपयोग होता था। वह बस्ती में बसने के बाद निरंतर होने लगा। धीरे-2 कटि वस्त्र का आकार प्रकार बदलता गया। पहले मात्र शरीर का गुहृ अंग ही ढकने का विशेष ख्याल रहता था, पर बाद में सम्पूर्ण नग्नता ढांक लेने की जरूरत समझी गयी और इसके लिए वस्त्र का आकार प्रकार भी बदलना पड़ा।’

उपाधियों की संख्या में जिस क्रम से वृद्धि हुई उसे भी मुनि कल्याण विजय के ही शब्दों में पढ़ें-

‘पहलीे प्रति व्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था। पर आर्यरक्षित सूरि ने वर्षा काल में एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखने की जो आाज्ञा दे दी थी, उसके फलस्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्यय धारणीय उपकरण हो गया। इसी तरह झोली में भिक्षा लाने का रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्र निमित्तक उपकरणों की वृद्धि हुईं परिवणामस्वरूप स्थविरों के कुल 14 उपकरणों की वृद्धि हुई जो इस प्रकार है-

1 पात्र

2पा. बंध

3पात्र स्थान

4पात्र प्रमार्जनिका

5 पटल,

6 रजस्त्राण

7 गुच्छक

8 दो चादरें

9 दो चादरें

10ऊनी वस्त्री (कम्बल)

11रजोहरण

12मुखपट्टी

13मात्रक और

14चालपट्टक

यह उपधि औपधिक अर्थात सामान्य मानी गयी ओर आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण बढ़ाये गये वे औपग्रहिक कहलाये। औपग्रहिक उपधि में संस्तारक उत्तरपट्टक, दंडासन और दंड ये खास उल्लेखनीय हैं। ये सब उपकरण आजकल के श्वेताम्बर जैनमुनि रखते हैं।’1

एक और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इस तरह साध्ुओं की उपधि में वृद्धि होती गयी, दूसरी ओर आचारण में जो अचेलकता के प्रतिपादक उल्लेख थे उन्हें जिनकल्पी का आचार करार दे दिया गया और जिन कल्प का विच्छेद होने की घोषणा करके महावीर के अचेलक मार्ग को छठा देने का प्रयास किया गया तथा उत्तर काल में साधु के वस्त्रपात्र का समर्थन बड़े जोर से किया गया, यहां तक कि नग्न विचरण करने वाले महावीर के शरीर पर इन्द्र द्वारा देवदूष्य डलवाया गया। जैसा कि पं. बेचरदासजी ने ही लिखा है-

‘इस समाज के कुलगुरूओं ने अपने पसंद पड़े ‘वस्त्रपात्र’ वाद के समर्थन के लिए पूर्व के महापुरूषों को भी चीवरधानी बना दिया है और श्री वर्धमान महाश्रमण की नग्नता ने देख पड़े इस प्रकार का प्रयत्न भी किया है। इस विषय के ग्रन्थ लिखकर ‘वस्त्रपात्र’ वाद को ही मजबूत बनाने की वे आज तक कोशिश कर रहे हैं।उनके लिए आपवादिक माना हुआ ‘वस्त्रपात्र’ वाद का मार्ग औत्सर्गिक मार्ग के

1. श्रमण भगवान महावीर।

समान हो गया हैं वे इस विषय में यहां तक दौड़े हैं कि चाहे जैसे अगम्य जंगल में, भीषण गुफा में या चाहे जैसे पर्वत के दुर्गम शिखर पर भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुए पुरूष वा स्त्री को जैनी दीक्षा के लिए शासनदेव कपड़े पहनाता है और वस्त्र के बिना केवलज्ञानी को अमहाव्रती तथा अचारित्री कहते तब भी नहीं हिचकिचाये। कोई मुनि वस्त्ररहित रहे ये बात उन्हें नहीं रूचती। इनके मत से वस्त्रपात्र के बिना किसी की गति ही नहीं होती।’

दसूरी ओर जैन (दिगम्बर) परम्परा के आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट घोषणा कर दी थी-

‘ण’ वि सिज्झइवत्तधरो जिणसासणे जठ वि होई तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सब्वे।।23।।

अर्थात-‘जिन शासन में तीर्थंकर ही क्यों न होय यदि वह वस्त्रधारी है तो सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। नग्नता ही मोक्ष का मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है।’ साथ ही साथ उन्हेंने यह भी कहा-

नग्गो पावइं दुक्खं नग्गो संसारसायरे भमइ।
नग्गो न लहई बोहिं जिणभाावणवज्जिओ सुइरं।।38।।

अर्थात-‘जिन भावना से रहित नग्न दुख पाता है, संसार रूपी सागर में भटकता है और उसे ज्ञान लाभ नहीं होता।’

इस तरह एक ओर के शिथिलाचार और दूसरी ओर की दृढ़ता के कारण संघभेद की बीच में अंकुर फूटते गये ओर धीरे-2 उनहोंने वृक्ष और महावृक्ष का रूप धारण कर लिया। प्रारम्भ में दिगम्बरता ओर श्वेताम्बरता का यह झगड़ा सिर्फ मुनियों तक ही था, क्योंकि उन्हीं की नग्नता और सवस्त्रता को लेकर यह उत्पन्न हुआ था। किंतु आगे श्रावकों की भी क्रियापद्धति में उसे सम्मिलित करके श्रावकों में भी झगड़ों के बीज बो दिये गये जो आज तीर्थक्षेत्रों के रूप में अपने विषफल दे रहे हैं इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि प्राचीनकाल में दिगम्बरी और श्वेताम्बरी प्रतिमाओं का भेद नहीं था। दोनों ही नग्न प्रतिमाओं को पूजते थे। मुनि जिन विजयजी ने (जैन हितैषी भाग 13, अंक 6 में) लिखा है-

‘मथुरा के कंकाली टीला में जो लगभग दो हजार वर्ष की प्राचीन प्रतिमाएं मिली हैं, वे नग्न हैं और उन पर जो लेख हैं वे श्वेतामबर कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार हैं।’

इसके सिवा 17 वीं शताब्दी के श्वतेताम्बर विद्वान पं. धर्मसागर उपाध्याय ने अपने प्रवचन परीक्षा नामक ग्रन्थ में लिखा है-