जैन तीर्थंकरों ने धर्म का उपदेश किसी सम्प्रदाय विशेष की दृष्टि से नहीं किया था। उन्होंने तो जिस मार्ग पर चलकर स्वयं स्थायित्व सुख प्राप्त किया, जनता के कल्याण के लिए ही उसका प्रतिपादन किया। उपदेश के सम्बंध में लिखा है-
अनात्मार्थ विना रागै‘ शास्ता शास्ति सतो हितम्। ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते।।8।।-रत्नकरंड श्रा.
अर्था्- ‘तीर्थंकर बिना किसी राग के दूसरों के हित का उपदेश देते हैं। शिल्पी हाथ के स्पर्श से शब्द करने वाला मृदंग क्या किसी की अपेक्षा करता है?’
अर्थात जैसे शिल्पी का हाथ पड़ते ही मृदंग सेध्वनि निकलती है वैसे ही श्रोताओं की हित कामना से प्रेरित होकर वीतराग के द्वारा हितापेदेश दिया जाता है। इसलिए उनका उपदेश किसी वर्ग विशेष या जाति विशेष के लिए न होकर प्राणिमात्र के लिए होता है। उसे आसानी से मनुष्य-देव, स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षी सभी समझ जाते हैं और अपनी-अपनी रूचि, श्रद्धा और शक्ति के अनुसार हित की बात लेकर चले जाते हैं किंतु जो लोग उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करते हैं और जो कामाचार पसंद करते हैं, वे परस्पर में बंट जाते हैं और इस तरह से जैन धर्म मे ं भी सम्प्रदाय कायम हो जाता है।
भगवान महावीर से ढाई सौ वर्ष पहले भगवान पाश्र्वनाथ हो चुके थे। भगवान महावीर के समय में भी उनके पूर्ण अनुयायी मौजूद थे। उन्हीं में से भगवान महावीर के माता-पिता थे। भगवान महावीर ने भी उसी मार्ग पर चलकर तीर्थंकर पद प्राप्त किया ओर उसी मार्ग का उपदेश किया। कुछ हठी पुराने सुखशक्ति लोगों के सिवा समस्त जैनसंघ अभिन्न था। आगे भी ऐसा ही रहा। किंतु श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में मगध में जो भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, उसने संघ के साधुओं में भेद को जन्म दिया।
निग्र्रन्थ मान्यता के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। उस समय जैन साधुओं की संख्या बहुत ज्यादा थी। सबको भिक्षा नहीं मिल सकती थी। इस कारण बहुत से निष्ठावान दृढ़व्रती साधु श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत को चले गये और शेष स्थूलभद्र के साथ वहीं रह गये। स्थूलभद्र के आधिपत्य में हरने वाले साधुओं ने सामयिक परिस्थितियों से पीडित होकर वस्त्र, पात्र, दण्ड वगैरह उपाधियों को स्वीकार कर लिया। जब दक्षिण को गया साधुसंघ लौटकर आया और उसने वहां के साधुओं को वस्त्र पात्र वगैरह के साथ पाया तो उन्होंने उनको समझाया। मगर वे माने नहीं, फलतः साधुसंघ भेद हो गया और वस्त्र-पात्र के पोषक साधु श्वेताम्बर कहलाये और इनके कारण सनातन जैनी नग्नता के पोषक साधु दिगम्बर कहलाये।
श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार मगध में दुर्भिक्ष पड़ने पर भद्रबाहु स्वामी नेपाल की ओर चले गये थे जब दुर्भिक्ष हटा और पाटलीपुत्र में बाहरी अंगों का संकलन करने का आयोजन किया गया तो भद्रबाहु उसमें सम्मिलित नहीं हो सके। फलतः भद्रबाहु और संघ के साथ कुछ खींचातानी भी हो गयी जिसका वर्णन आचार्य हेमचन्द्र अपने परिशिष्ट पर्व में किया है। इसी घटना को लक्ष्य में रखकर डाॅ. हर्मन जेकोवी ने जैन सूत्रों की अपनी प्रस्तावना में लिखा है-
पाटलीपुत्र में भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अंग एकत्र किये गये थे। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही भद्रबाहु को अपना आचार्य मानते हैं। ऐसा होने पर भी श्वेताम्बर अपने स्थविरों की भट्टावली भद्रबाहु के नाम से प्रारम्भ नहीं करते किंतु उनके समकालीन स्थविर सम्भूति विजयक नाम से शुरू करते हैं। इससे यह फलित होता है कि पाटलीपुत्र में एकत्र किये गये अंग केवल श्वेताम्बरों के ही माने गये हैं समस्त जैन संघ के नहीं।
इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि संघभेद का बीजारोपण उक्त समय में ही हुआ था।
श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार प्रथम जिन श्रऋषभदेव ने और अंतिम जिन श्रीमहावीर ने तो अचेलक धर्म का उपदेश दिया। किंतु बीच के बाईस तीर्थंकरों ने सचेल ओर अचेल दोनों धर्मों का उपदेश दिया। जैसा कि पंचाशक में लिखा है-
आचेलक्को ध्म्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मंझिमगाण जिणाणं होई सचेलो अचेलो य।।12।।
और इसका कारण यह बतलाया है कि प्रथम ओर अंतिम जिनके समय साधु वक्र-जड़ होते थे- जिस-तिस बहाने से त्याज्य वस्तुओं का भी सेवन कर लेते थे। अतः उन्होंने स्पष्ट रूप से अचेलक अर्थात वस्त्ररहित धर्म का उपदेश दिया। इनके अनुसार पाश्र्वनाथ के समय के साधु सवस्त्र भी हो गये थे और उनका महावीर के संघ में मिल जाना आगे चलकर शिथिलाचार का प्रोत्साहक बना अैर श्वेताम्बर सम्प्रदाय की सृष्टि हुई। ऐसा कुछ विद्वानों का मत है। श्वेताम्बर विद्वान पं. बेचरदासी ने लिखा है-
श्रीपाश्र्वनाथ और श्रीवर्धमान के शिष्यों के 250 वर्ष के दम्र्यान किसी भी समय पाश्र्वनाथ के संतानियों पर उस समय के आचारहीन ब्राह्मण गुरूओं का असर पड़ा हो और इसी कारण उन्होंने अपने आचारों में से कठिनता निकालकर विशेष नरम और सुकर आचार बना दिये हों यह विशेष संभावित है। पाश्र्वनाथ के बाद दीर्घ तपस्वी वर्धमान हुए। उन्होंने अपना आचारण इतना कठिन और दुस्सह रखा कि जहां तक मेरा ख्याल है इस तरह का कठिन आचरण अन्य किसी धर्माचार्य ने आचारित किया हो ऐसा उल्लेख आज तक के इतिहास में नहीं मिलात। वर्धमान का निर्वाण होने से परम त्यागी-मार्ग के चक्रवर्ती का तिरोधान हो गया ओर ऐसा होने से उनके त्यागी निग्र्रन्थ निर्नायक से हो गये। तथापि मैं मानता हूं कि वर्धमान के प्रताप से उनके बाद की दो पीढियों तक श्रीवर्धमान का वह कठिन त्यागमार्ग ठीक रूप से चलता रहा था। यद्यपि जिन सुखशीलियों ने उस त्यागमार्ग को स्वीकारा था उनके लिए कुछ ठूठें रखी गयी थीं और उन्हें ऋजुप्राज्ञ के सम्बोधन से प्रसन्न रखा गया था। तथाापि मेरी धारणा में जब वे उस कठिनता को सहन करने में असमर्थ निकले और श्रीवर्धमान, सुधर्मा और जम्बू जैसे समर्थ त्यागी की छाया में वे ऐसे दब गये थे कि किसी भी प्रकार की चींपटाक किये बिना यथा-तथाा थोडी-सी छूट लेकर भी वर्धमान के मार्ग का अनुकरण करते थे। परंतु इस समय वर्धमान, सुधर्मा या जम्बू कोई भी प्रतापी पुरूष विद्यमान न होने से उन्होंने शीघ्र ही यह कह डाला कि जिनेश्वर का आचार जिनेश्वर के निर्वाण के साथ ही निर्वाण को प्राप्त हो गया। मेरी मान्यतानुसार संक्रान्तिकाल में ही श्वेताम्बरता-दिगम्बरता का बीजारोपण हुआ है और जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद इसका खूब पोषण होता रहा है। यह विशेष संभावित है। यह हकीकत मेरी निरी कल्पनामात्र नहीं है किंतु वर्तमान ग्रंथ भी इसे प्रमाणित करने के समबल प्रमाण दे रहे हैं। विद्यमान सूत्रग्रंथों एवं कितनेक गं्रथों में प्रसंगोपात्त यही बतलाया गया है कि ‘जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद निम्नलिखित इस बातें विच्छिन्न हो गयी हैं- मनः पर्ययज्ञान, परमावधिज्ञान, पुलाकलब्धि, आहारक शरीर, क्षपकश्रेणी, उपशमश्रेणी, जिनकल्प, तीन संयम, केवल ज्ञान और दसवां सिद्धिगमन। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जम्बू स्वामी के बाद जिन कल्प का लोप हुआ बतला कर अब से जिन कल्प के आचरण को बंद करना और उस प्रकार का आचरण करने वालों का उत्साह या वैराग्य भंग करना, इसके सिवा इस उल्लेख में अन्य कोई उद्देश्य मुझे मालूम नहीं देता। जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद जो जिनकल्प विच्छेद होने का वज्रलेप किया गया हैऔर उसकी आचरण करने वालों को जिनाज्ञा बाहर समझने की जो स्वार्थी एवं एकतरफी दम्भी धमकी का ढिढ़ोरा पीटा गया है बस इसी में श्वेताम्बरता और दिगम्बराता के विषवृक्ष की जड़1 समायी हुई है।
यद्यापि दिगम्बर परम्परा यह नहीं मानती कि बीच के 22 तीर्थंकरों ने सचेल ओर अचेल धर्म निरूपण किया था। वह तो सब तीर्थंकर के द्वारा अचेल मार्ग का ही प्रतिपादन होना मानती है। फिर भी पं. बेचरदासजी के उक्त विवेचन से संघ भेद के मूलकारण पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
श्वेताम्बर साहित्य में दिगम्बरों की उत्पत्ति के विषयों में एक कथा मिलती है जिसका आशय इस प्रकार है-‘रथवीरपुर में शिवमूर्ति नाम का एक क्षत्रिय रहता था। उसने अपने राजा के लिए अनेक युद्ध जीते थे इसलिए राजा उसका खूब सम्मान करता थाा। इससे वह बड़ा घमंडी हो गया था। एक बार शिवभूति बहुत रात गये घर लौटा। मां ने फटकारा और द्वार नहीं खोला। त बवह एक मठ में पहुंचा और साधु हो गया। जब राजा को इस बात की खबर मिली तो उसने उसे एक बहुमूल्य वस्त्र भेंट किया। आचार्य ने उस वस्त्र को लौटा देने की आज्ञा दी। किंतु शिवभूति ने नहीं लौटाया। तब आचार्य ने उस वस्त्र के टुकड़े करके उनके आसन बना डाले। इस पर शिवभूति खूब क्रोधित हुआ और उसने प्रकट किया कि महावीर की तरह मैं भी वस्त्र नहीं पहनूंगा। ऐसा कह उसने सब वस्त्रों का त्याग कर दिया। उसकी बहन ने भी उसका अनुसरण किया। स्त्रियों को नग्न न रहना चाहिए ऐसा मत शिवभूति ने तब जाहिर किया और यह भी जाहिर किया कि स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती। इस तरह महावीर निर्वाण के 609 वर्ष बाद बोटिकों की उत्पत्ति हुई और उनमें से दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ।