।। जैन संघ ।।

मुनि आर्यिका और श्रावक श्राविका, इनके समुदाय को जैन संघ कहते हैं। मुनि और आर्यिका गृहत्यागी वर्ग है और श्रावक श्राविका गृही वर्ग हैं जैन संघ में ये दोनों बराबर रहते हैं जब ये वर्ग नहीं रहेंगे तो जैन संघ भी नहीं रहेगा और जब जैन संघ नहीं रहेगा तब जैन धर्म भी न रहेगा।

यद्यपि ये दोनों वर्ग जुदे-जुदे हैं, फिर भी परस्पर में इन दोनों का ऐसा गठबंधन बनाये रखने का प्रयत्न किया गया है कि दोनों एक -दूसरे से जुदे नहीं हो सकते और दोनों का परस्पर में एक दूसरे पर नियंत्रण या प्रभाव जैसा कुछ बना रहता हैं हिंदू धर्म के साधु संतों पर जैसे उनके गृहस्थों का कुछ भी अंकुश नहीं रहता, वैसी बात जैन संघ में नहीं हैं यहां शीलभ्रष्ट और कदाचारी साधुओं पर बराबर निगाह रखी जाती है और किसी की स्वच्छंदता अधिक दिनों तक नहीं चल पाती। आज तो संघ व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी है और साधुओं में भी नियमन का अभव हो गया है, किंतु पहले यह बात न थी। पहले आचार्य की स्वीकृति और अनुज्ञाा के बिना कोई साधु अकेला विहार नहीं कर सकता था और अकेले विहार करने की अज्ञा उसे ही दी जाती थी जिसे चिरकाल के सहवास से परख लिया जाता था। मुनि दीक्षा भी हर एक को नहीं दी जाती थी। पहले उसे संघ में रखकर परखा जाता थाा और यह जानने का प्रयत्न किया जाता था कि वह किसी गार्हस्थिक, राजकीय या अन्य किसी कारण से घर छोड़कर तो नहीं भागा है। यदि उसके चित्त में वस्तुतः वैराग्य भावना प्रबल होती थी तो उसे सर्व संघ के समक्ष जिन दीक्षा दी जाती थी। साधु संघ में एक प्रधान आचार्य होते थे और कुछ अवान्तर आचार्य होते थे वे सब मिलकर संघ का निर्माण करते थे। प्रायश्चित, विनय, वैयावृतय, स्वाध्याय और ध्यान की ओर साधुवर्ग का खासतौर से ध्यान दिलाया जाता था। प्रत्येक साधु के लिये यह आवश्यक था कि वह अपने अपराधों की अलोचना आचार्य के सन्मुख करे और आचार्य जो प्रायश्चित दें उसे सादर स्वीकार करें। प्रतिदिन प्रत्येक साधु प्रातःकाल उठकर अपने से बड़ों को नमस्कार करता था और जो रोगी या असमर्थ साधु होते थे उनकी सेवाशुश्रूषा करता था। इस सेवा-शुश्रूषा या वैयावृत्य का जैन शास्त्रों में बड़ा महत्व बतलाया है और इसे अभ्यांतर तप कहा हैं इसी प्रकार आर्यिकाओं की भी व्यवस्था थी। दोनों का रहना वगैरह बिल्कुल जुदा होता था। किसी साधु को आर्यिका से या आर्यिका को साधु से एकांत में बात-चीन करने की सख्त मनाई थी और निश्चित दूरी पर बैठने का आदेश था।

साधुवर्ग राजकाज से कोई सरोकार नहीं रख सकता था। साधु के जो दस कल्प-अवश्य करने योग्य आचार बतलाये हैं। उसमें साधु के लिए राजपिण्ड-राजा का भोजन ग्रहण न करने भी एक आचार है। राजपिण्ड ग्रहण करने में अनेक दोष बतलायें हैं।

हिंदू धर्म में धार्मिक क्रियाकाण्ड और धार्मिक शास्त्र के अध्ययन अध्यापन के लिए एक वर्ग ही जुदा होने से हिंदू धर्म के अनुयायी गृहस्थ अपने धर्म के ज्ञान से तो एक तरह से शून्य से ही हो गये और आचार में केवल ऊपरी बातों तक ही रह गये। किंतु जैन धर्मै में ऐसा कोई वर्ग न होने से और शास्त्र स्वाध्याय तथा व्यक्तिगत सदाचरण पर जोर होने से सब श्रावक और श्राविकाएं जैन धर्म के ज्ञान और आचरण से वंचित नहीं हो सके। फलतः साधु और आर्यिकाओं के आचार में कुछभी त्रुटि होने पर वे उसको झट आंक लेते थे। ऐसा लगता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारक युग में मुनियों में शिथलाचार कुछ बढ़ चला था और लोगों में मुनियों की ओर से यहां तक अरूचि सी हो चली थी कि श्रावक उन्हें भोजन भी नहीं देते थे। अतः उस समय के सोचदेव सूरि और प.ं आशाधरजी को अपने-अपने श्रावकचार में गृहस्थों की इस कड़ाई का विरोध करना पड़ा था।

सोमदेवी सूरि लिखत हैं-

भक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्।
ते संतः सन्त्वसन्तों वा गृही दानेन शुद्धयति।।- उपसका.

अर्था्त-‘आहारमात्र देने में मुनियों की क्या परीक्षा करते हो? वे सज्जन हों या असज्जन हों, गृहस्थी तो दान देने से शुद्ध होता ही है।’

पं. आशाधर जी लिखते हैं-

विन्यस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनरिव।
भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत त कुतःश्रेयोऽतिचचर्निम्।-सागरधर्मा.

अर्थात-‘‘जैसे प्रतिमाओं में तीर्थंकरों की स्थापना करके उन्हें पूजते हैं वैसे ही युग के साधुओं में प्रचीन मुनियों की स्थापना करके भक्तिपूर्वक उनकी पजूा करनी चाहिए। जो लोग ज्यादा क्षेद-क्षेम करते हैं उनका कल्याण कैसे हो सकता है?’’

गृहस्थों की इस जागरूकता के फलस्वरूप ही जैन धर्म में अनाचार की वृद्धि नहीं हो सकी और न उसे प्रोत्साहन ही मिल सका। जैन गृस्थों में सदा से शास्त्रमर्मज्ञ विद्धान होते आये हैं। जिन विद्वानों ने बड़े-2 ग्रन्थों की हिंदी टीकाएं की हैं। वे सभी जैन गृहस्थ थे। उन्होंनें अपने सम्प्रदाय में फैलने वाले शिथिलाचार का डटकर विरोध किया था, जिसके फलस्वरूप एक नया सम्प्रदाय बन गया और शिथिलाचार के सर्जकों का ही लोप हो गया।

जैन संघ में स्त्रियों को भी आदरणीय स्थान प्राप्त था। जैन धर्म (दिगम्बर) यद्यपि स्त्री मुक्ति नहीं मानता फिर र्भी आिर्यका और श्रविकाओं का बराबर सम्मान करता है और उन्हें बहुत ही आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखत है। जैन संघ में विधवा को जो अधिकार प्राप्त है वे हिन्दू धर्म में नहीं है। जैन सिद्धांत अनुसार पुत्ररहित विधवा स्त्री अपने पति की तरफ से सम्पत्ति की मालकिन होती है, अपने मृत-पित के उत्तराधिकारियों की सम्मति के बिना दत्तक ले सकती है।

जैन संघ में चारों वर्ण के लोग सम्मिलित हो सकते थे। शूद्र को भी धर्म सेवन का अधिकार था। जैसा कि लिखा है-

शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुशुद्धयूाऽस्तु तादृशः।
जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्ायत्माऽस्ति धर्मभाक्।।22।।- सागारधर्मा.

अर्थात्- ‘उपकरण, आचार और शरीर की शुद्धि होने से शुद्र भी जैनी के ही समान होता है। क्योंकि काललब्धि आदि के मिलने पर जाति से हीन आत्मा भी धर्म का अधिकारी होता है।’

किंतु मुनिदीक्षा के योग्य तीन ही वर्ण माने गये हैं। किसी1 किसी आचार्य ने तीनों वर्णों का परस्पर में विवाह और खानपान करने की भी अनुज्ञा दी थी। यह बात जैन संघ की विशेषताओं को बतलाती है कि अहिंसा अणुव्रत का पालन करने वालों में जैन शास्त्रों में यमपाल चण्डाल का नाम बड़े आदर से लियाा गया है। स्वामी समंतभद्र ने यहां तक लिखा है-

सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम्।
देवा देवं र्विदुर्भस्मगूढ़ांगरान्तरौजसम्।।28।।- रत्नकरण्ड श्रा.

अर्थात्-‘सम्यग्दशर््न से युक्त चण्डाल को भी जिनेन्द्रदेव राख से ढके हुए अंगार के समान (अंतरंग में दीप्ति से युक्त) देव मानते हैं।’

जैनसंघ की दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह कि प्रत्येक जैन को अपने साधर्मी भाई के प्रति वैसा ही स्नेह रखने की हिदायत है जैसा स्नेह गौ अपने बच्चे से रखती है तथा यदि कोई साधर्मी किसी कारणवश धर्म से च्युत होता था तो जिस उपाय से भी बने उस उपाय से उसे च्युत न होने देने का प्रयत्न किया जाता थाा और यह सम्यक्त्व के आठ अंगों में से था। साथ ही साथ किसी भी साधर्मी का उपमान न करने की सख्त आज्ञा थी, जैसा कि लिखा है-

स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः।
सोेऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मों धार्मिकैर्विना।।26।।- रत्नकरण्ड आ.

‘जो व्यक्ति घमंड में आकर अन्य साधर्मियों का अपमान करता है वह अपने धर्म का अपमान करता है क्योंकि धार्मिकों के बिना धर्म नहीं रहता।’ इस तरह जैनसंघ की विशालता, उदरता और उसकी संगठन-शक्ति ने किसी उसमें उसे बड़ा बल दिया था और उसी का यह फल है कि बौद्धधर्म के अपने देश से लुप्त हो जाने पर भी जैन धर्म बना रहा और अब तक कायम है। किंतु अब वे बातें नहीं रहीं लोगों में साधर्मी-वात्सल्य लुप्त होता जाता है। अहंकार बढ़ता जाता है और किसी का नियंत्रयण नहीं रहा है। इसीलिए यह संगठन भी अब शिथिल होता जाता है।