मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त जैन पुरातत्व में कुछ ऐसे आयागपट प्राप्त हुए हैं, जिनमें जैन साधु यद्यपि नग्न अंकित हैं परंतु वे अपनी नग्नता को एक वस्त्रखण्ड से छिपाये हुए हैं। प्लेट न. 22 में कण्ह श्रमण का चित्र अंकित है, उनके बायें हाथ की कलाई पर एक वस्त्रखण्ड लटक रहा है जिसे आगे करके वे अपनी नग्नता को छिपाये हुए हैं। यही अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय का रूप जान पड़ता है।
उधर श्वेताम्बर1 भी कहते है कि छठे स्थविर भद्रबाहु के समय में अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई। इनमे ंसे र्ठ. सं. 80 में दिगम्बर का उदभव हुआ जो मूलसंघ कहलाया।
इससे भी इस सम्प्रदाय का अस्तित्व सिद्ध होता है। अब रह जाता है यह प्रश्न कि अर्द्धस्फालक श्वेताम्बरों के पूर्वज हैं या दिगम्बरों के? इसका समाधान भी मथुरा से प्राप्त पुरातत्व से ही हो जाता है। वहां के एक शिलापट्ट में भगवान महावीर के गर्भपरिवर्तन का दृश्य अंकित है और उसी के पास एक छोटी सी मूर्ति ऐसे दिगम्बर साधु की है जिसकी कलाई पर खण्ड वस्त्र लटकता है। गर्भापहार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है अतः स्पष्ट है कि उसके पास अंकित साधु का रूप भी उसी सम्प्रदायमान्य है।
सारांश यह है कि मुख्य रूप से जैन धर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो शाखााओं में विभाजित हुआ। पीछे से प्रत्येक में अनेक गच्छ, उपशाखा और उपसम्प्रदाय आदि उत्पन्न हुए। फिर भी सब महावीर भगवान की संतान हैं और एक वीतराग देव के ही मानने वाले हैं।