तम्हा दिगम्बराणं एए भटारगा वि णे पुज्जा। तिलतुसमेत्तो जेसिं परिग्गहों णेव ते गुरूणें।।16।। कजणपडिमाणं भूसणमल्लारूहणाई अंगपरियरणं। वाणारसिओ वारह दिगम्बरस्सागमाणाए।।20।।
अर्थात-‘दिगम्बरों के भट्टारक भी पूज्य नहीं हैं। जिनके तिलतुष मात्र भी परिग्रह है वे गुरू नहीं हे। वाणारसी मतवाले जिन प्रतिमाओं को भूषणमाला पहनाने का तथा अंग रचान करने का भी निषेध दिगम्बर आगमों की आज्ञा से करते हैं।’ आजकल जो तेरह पंथ प्रचलित हैं वह भट्टारकों या परिग्रहधारी मुनियों की अपना गुरू नहीं मानता और प्रतिमाओं को पुष्पमालाएं चढ़ाने और केसर लगाने का भी निषेध करता है तथा भगवान की पूजन सामग्री में हरे पुष्प और फल नहीं चढ़ाता। उत्तरभाारत में इस पंथ का उदय हुआ और धीरे-2 यह समस्त देशव्यापी हो गया। इसके प्रभाव से भट्टारकी युग का एक तरह से लोप हो गया।
किंतु इस पंथ भेद से दिगम्बर सम्प्रदाय में फूट या वैमनस्य का बीजारोपण नहीं हो सका। आज भी दोनां पंथों के अनुयायी वर्तमान हैं, किंतु उनमें परस्पर में कोई वैमनस्य नहीं पाया जाता। चूंकि आज दोनों पंथों का अस्तित्व कुछ मंदिर में ही देखने में आता है। अतः कभी किन्ही दुराग्रहियों में भले ही खटपट हो जाती हो किंतु साधारणतः दोनों ही पंथ वाले अपनी-अपनी विधि से प्रेमपूर्वक पूजा करते हुए पाये जाते हैं। एक दो स्थान में तो 20 और 13 को मिलाकर उसका आधा करके साढे सोलह पंथ भी चल पड़ा हैं आजकल के अनेक निष्पक्ष समझदार व्यक्ति‘पंथ ’ पूछा जाने पर अपने को साढे सोलह पंथी कह देते हैं। यह सब दोनों के ऐक्य ओर प्रेम का सूचक है।
परवार जाति के एक व्यक्ति ने जो बाद को तारणतरण स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए, ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी के अंत में इस पंथ को जन्म दिया था। सन् 1515 में ग्वालियर स्टेट के मल्हारगढ़ नामक स्थान में इनका स्वर्गवास हुआ। उस स्थान पर इनकी समाधि बनी है और उसे नशियांजी कहते हैं। यह तारणपंथियों का तीर्थस्थान माना जाता है। यह पंथ मूर्तिपूजा का विरोधी है। इनके भी चैत्यालय होते हैं, किंतु उनमें शास्त्र विराजमान रहते हैं और उन्हीं की पूजा की जाती है किंतु द्रव्य नहीं चढ़या जाता। तारणस्वमी ने कुछ ग्रन्थ भी बनाये थे। इनके सिवा दिगम्बर आचार्यों के बनाये हुए ग्रन्थों को भी तारण पंथी मानते हैं। इस पंथ में अच्छे धनिक और प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद हैं। इस पंथ के अनुयायियों की संख्या दस हजार के लगभग बतलायी जाती है और वे मध्य प्रांत में बसते हैं।
यह पहले लिख आये हैं कि साधुओं के वस्त्र परिधान को लेकर ही दिगम्बर और श्वेताम्बर भेद की सृष्टि हुई थीं अतः आज के श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। उनके पास चैदह उपकरण होते हैं।
1 पात्र
2 पात्र बंध
3 पात्र स्थापन
4 पात्र प्रमार्जनिका
5 पटल
6 रजस्त्राण
7 गुच्छक
8 दो चादरें
9 दो चादरें
10 ऊनी वस्त्र (कम्बल)
11 रजोहरण
12 मुखवस्त्र
13 मात्रक
14 चोल पट्टक।
इनके सिवा वे अपने हाथ में एक लम्बा दण्ड भी लिये रहते हैं। पहले वे भी नग्न ही रहते थे। बाद में वस्त्र स्वीकार कर लेने पर भी विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक कारण पड़ने पर ही वे वस्त्र धारण करते थे अैर वह भी केवल कटिवस्त्र। विक्रम की आठवीं शती के श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने संबोध प्रकरण में अपने नाम के साधुओं का वर्णन करते हुए लिखा हे िकवे बिना कारण भी कटिवस्त्र बांधते हैं और उन्हें क्लीब (कायर) कहा है। इस प्रकार पहले वे कारण पड़ने पर लंगोटी लगा लेते थे पीछे सफेद वस्त्र पहनने लगे। फिर जिन मूर्तियों में भी लंगोटे का चिन्ह बनाया जाने लगा। उसके बाद उन्हें वस्त्र-आभूषणों से सजाने की प्रथा चलायी गयी। महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष के पश्चात साधुओं की स्मृति के आधार पर ग्क्यारह अंगों का संकलन करके उन्हें सुव्यवस्थित किया गया और फिर उन्हें लिपिबद्ध किया गया। इन आगमों का दिगम्बर परम्परा नहीं मानती।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है कि स्त्री को भी मोक्ष हो सकता है तथा जीवन्मुक्त केवली भोजन ग्रहण करते हैं। दिगम्बर धर्म इन दोनों सिद्धांतों कोभी स्वीकार नहीं करतें दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इन्हीं तीनों सिद्धांतों को लेकर मुख्य भेद है। संक्षेप में कुछ उललेखनीय भेद निम्न प्रकार हैं-
1 केवली का कवलाहार
2 केवली का नीहार
3 स्त्री मुक्ति
4 शूद्र मुक्ति
5 वस्त्र सहित मुक्ति
6 गृहस्थवेष में मुक्ति
7 अलंकार और कछोटे वाली प्रतिमा का पूजन
8 मुनियों के 14 उपकरण
9 तीर्थंकर मल्लिनाथ का स्त्री होना