भारत पुरातत्व की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न देश है। इसके प्रत्येक प्रदेश मे पुरातत्व की विपुल सामग्री उपलब्ध होती है। यह सामग्री मौर्य काल से लेकर वर्तमान काल तक की है। किसी देश की पुरातत्व सामग्री इसकी समता नही कर सकती। भारतीय पुरातत्व सामग्री मुख्यतः जैन, हिन्दू और बौद्ध धर्मो से सम्बन्धित है। इस सामग्री के अध्ययन से इन धर्मों के देवता विषयक मान्यता, उनका रूप, उनके चरित्र, उन धर्मों का इतिहास, उनका प्रभाव विस्तार आदि महत्वपूर्ण बातो पर प्रकाश पड़ता है। इससे विभिन्न राजवंशों, आचार्यो और भक्तो का वंश-परिचय, मान्यताओं, कृतित्व और व्यक्तित्व और निश्चित काल का बोध होता है। इसी सामग्री से कला की विविध विधाओं, शैलियों, उनके विकास-क्रम और रूचियो का पता चलता है। पुरातत्व ही संस्कृति और सभ्यता का सबल और सशक्त उपादान है। जिन धर्मो का मूर्ति-पूजा मे विश्वास नही है, उनका कोई पुरातत्व भी नहीं मिलता।
जैन बौद्ध और हिन्दू धर्म से सम्बन्धित पुरातत्वसामग्री मे साम्य भी है और वैषम्य भी है। तीनों धर्मो का लालन-पालन और विकास एक ही देश, वेश, परिवेश, वातावरण मे हुआ, उनकी कला के विविध रूप् भी समान थे, उनके पौराणिक और ऐतिहासिक देवी-देवताओं के रूप भी समान थे ; उनके देवताओं की ध्यानमुद्रा मे भी एक सीमातक समानता थी; उनके अनेक देवताआ के नामो मे भी समानता थी; उनके धार्मिक प्रतीको और चिन्हो मे भी समानता थी, यहां तक कि उनके अनेक मन्दिरो और मूर्तियों के निर्माता शिल्पी और प्रतिष्ठाता नरेश भी एक थे। इस दृष्टि से तीनों धर्मों की पुरातन सामग्री मे साम्य परिलक्षित होता है। दूसरी ओर इनकी धार्मिक मान्यता, वस्तु कला और शिल्पकला के रूप-प्रकार और उनकी अपनी-अपनी विशेष प्रतीक-योजना की दृष्टि मे वैषम्य भी है। अनेक बार पुरातत्ववेत्ताइन धर्मों के वास्तु, स्थापत्य, विशेष प्रतीक-योजन और मान्यता विषयक भेद का ज्ञान न होने के कारण किसी धर्म की मूर्तियों, मन्दिरों और प्रतीको को अन्य धर्म का लिखने की भूल कर बैठते है। उदाहरण के रूप् मे हम कह सकते है कि अनेक पुरातत्वविदों ने अनेक स्थान की पद्मासन मुद्रावाली तीर्थंकर प्रतिमाओ को-जबकि उनके पाद-पीठपर तीर्थंकर का विशेष चिन्ह भी अंकित है-बोधि सत्व या योगासीन शिव की प्रतिमा लिख दिया, अनेक जैन देवी-देवताओ को बौद्ध तारा देवी या हिन्दू देवी मान लिया, जैसे सम्राट सम्प्रति द्वारा तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियो आदि पर निर्मित स्तम्भो, शिलालेखों, धर्मचक्र, सिंहत्रयी या चतयुर्दिक् सिंह-मूर्तियो को सम्राट् अशोक द्वारा निर्मित घोषित कर दिया; अनेक प्राचीन कला पूर्ण जैन मन्दिरो को जिनके सिर दल, जंघा, अलंकरणपट्टिकाओ आदि पर तीर्थंकर मूर्तिया उत्कीर्ण है-हिन्दू मंदिर लिख दिया। हमारा विश्वास है, ऐसी भूले जैन कला की पर्याय जानकारी न होने के कारण हुई है। ऐसी भूलो का सुधार कर देना चाहिए, जिससे इनके सम्बंध मे भ्रान्ति न हो।
भारत के सभी प्रान्तो मे जैन पुरातत्व की सामग्री विपुल परिमाण मे उपलब्ध होती है यह न केवल परिमाण की दृष्टि से ही, अपित ुगुण और वैशिष्ट्य की दृष्टि से भी विपुल है। यह जैन मन्दिरों, देश-विदेश के संग्रहालयो मे सुरक्षित है और बहुत बड़ी संख्या मे अब भी जंगलों, पहाड़ो और अनेक नगरों के भीतर-बाहर बिखरी हुई और असुरक्षित दशा मे पड़ी है।
सुविधा के लिए हम जैन पुरातत्व और कला को निम्नलिखित भागो मे विभाजित कर सकते हैं-
1 - जैन मूर्तियां
2 - जैन मन्दिर
3 - शासन देवताओं की मूर्तियां
4 - ग्ुहा मन्दिर
5 - जैन प्रतीक
6 - अभिलेख