जैन कला मे प्रतीको का विशेष महत्व है। ये प्रतीक वस्तुतः समवसरण के विभिन्न अंगों के प्रतीक है। धर्म चक्र, स्वस्तिक, वर्ध मंगल, नन्द्या वर्त, नन्दि पद, चैत्य वृक्ष य सिद्धार्थ वृक्ष, त्रिरत्न, कलश, भद्रासन, मत्स्य, पुष्प् माल, अशोक वृक्ष, पुष्प वृष्टि, दुन्दुभि, छत्र, चमर, भामण्डल, घण्टा, सर्प चिन्ह, गंगा, यमुना इन चिन्हो और प्रतीको का अपना विशेष स्थान रहा है। प्राचीन जैन मूर्तियों, मन्दिरो और शिला लेखो मे इनका खुल कर प्रयोग किया जाता था। प्राचीन काल मे प्रतीकों की ही पूजा होती थी। सिन्धु सभ्यता के अवशेषो मे अनेक सीलो और मूर्तियो पर त्रिरत्न, वृषभ आदि अंकित मिलते है।
प्रतीक योजनाओ के अन्तर्गत विविध प्रतीको का स्पष्ट अंकलन उदयगिरि-खण्डगिरि की विभिन्न गुफाओ मे मिलता है। इन प्रतीको मे वर्ध मंगल, स्वस्तिक, नन्दि पद, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थ वृक्ष, सर्प युगल, धर्म चक्र और तीर्थंकर चिन्हो का प्रयोग विपुलता से मिलता है।
ये प्रतीक प्रायः सभी मन्दिरो और मूर्तियो मे प्राप्त होता है।
गुहा मन्दिर जैन मन्दिर का ही एक विद्या है। पुरातत्व के विद्वानो का अभिमत है कि प्राचीन काल मे मन्दिर का निर्माण नही होता था, स्तूप बनाए जाते थे। ये स्तूप पूज्य पुरूषों के मरण स्थान पर बनाए जाते थे या उनकी किसी घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए बनाए जाते थे। इन्ही का विकास हाते-होते गुहा-चैत्य या गुहा-मन्दिर बनाए जाने लगे। इसी काल मे विहारो का भी निर्माण प्रारंभ हो गया। गुहा मन्दिरों के आधार पर ही स्वतन्त्र मन्दिरों के निर्माण की परम्परा चली। वास्तु कला और शिल्प कला का ज्यो-ज्यो विकास होता गया, मन्दिरों की संरचना और शिल्प मे भी उसी प्रकार परिवर्तन होते गए।
जैन गुहा मन्दिर भारत के अनेक प्रानतो मे मिलते है। सबसे प्राचीन गुहा मन्दिर उदयगिरि-खण्डगिरि के है। यहां 117 गुहा मन्दिरो का समूह है। एक स्थान पर इतने गुहा मन्दिर अन्यत्र कही नही है। ये गुहा मन्दिर ईसा पूर्व-प्रथम शताब्दी से ईसा की नौवी-दसवीं शताब्दी तक के है। इसके बाद राजगृही के गुहा मन्दिर है, जो तीसरे शताब्दी के है। विदिशा के निकट उदयगिरि के गुहा मन्दिर पांचवी शताब्दी के हैं। 7-8वीं शताब्दी मे अनेक गुहा मन्दिरो का निर्माण हुआ, जिनमे एलोरा के विश्वविख्यात गुहा मन्दिर, धारा शिव, मांगीतुंगी, अंजनेरी, गजपंथ, जिन्तूर, तारंगा, गिरनार, कुण्डल, औरंगाबाद, चांदबड़, श्रवणबेल गोला, सित्तन्नवासल, वादामी ऐहोल, पभौसा, अंकाई-तंकाई आदि मुख्य है। इनमे अनेक तो मुनियों के ध्यान-अध्ययन के काम आती थी। किन्तु अधिकांश गुफाओ मे तीर्थंकरों, मुनियो और यक्ष-यक्षियों की मन्दिर है। इन गुफाओ मे कला, पुरातत्व, इतिहास और संस्कृति की बहुमूल्य सामग्री सुरक्षित है।