अभिलेख मेे ताम्र पत्र या ताम्र शासन, शिला लेख और मूर्ति लेख सम्मिलित होते है। सबसे कम ताम्र शसन उपलब्ध होते है। अधिकांश ताम्र शासन जिनालयों के लिए राजाओं द्वारा दिए गए भूमि-दान से सम्बंधित है किन्तु दो ताम्र शासन विशेष उल्लेखनीय और विशेष ऐतिहासिक महत्व के है। एक तो प्रभासपट्टन मे प्राप्त बेबीलोनियां के बादशाह ने वुचडनज्जर का तामपत्र और दूसरे है वर्तमान बंगला देश के राजशाही जिले मे पहाड़ पुर नामक स्थान से प्राप्त ताम्र शासन। प्रभास पट्टन से जो ताम्र पट प्राप्त हुआ था, उसे डाॅ. प्राणनाथ विद्यालंकार ने इस प्रकार पढ़ा था-
‘‘रेवा नगर के राज्य का स्वामी, सुजाति का देव ने वुचडनज्जर आया है। वह यदु राज के नगर (द्वारका) मे आया है। उसने मन्दिर बनवाया सूर्य......देवनेमिका जो स्वर्ग समान रैवतक पर्वत के देव है (उनको) हमेशा के लिए अर्पण किया।’’
नेवुचडनज्जर का समय 149 ई. पू. माना जाता है। इस प्रकार यह ताम्र लेख 3100 वर्ष से अधिक प्राचीन है और हमारी जानकारी मे यह भारत का सबसे प्राचीन ताम्र लेख है।
पहाड़ पुर वाले ताम्र शासन का काल ईसा की पांचवी शताब्दी है। इसके अनुसार एक ब्राह्मण दम्पीन ने पुण्ड्र वर्धन के विभिन्न ग्रामो मे भूमि खरीद कर वटोहाली ग्राम जैन विहार को अर्हत् पूजा के लिए उस भूमि का दान किया। यह वही जैन विहार है, जिसके अवशेष खुदाई मे मिले है। यह अपने समय का विख्यात विद्यापीठ था।
शिलालेखों की संख्या विशाल है। श्रवण बेलगोला मे 500 शिलालेख प्राप्त हो चुके है। देव गढ़ के शिलालेखों की संख्या भी 300 है। उदयगिरि-खण्डगिरि गुफा-समूह मे भी पर्याप्त शिला लेख है। अन्य सैकड़ो स्थानो पर भी शिला लेख मिले है। यहां केवल दो शिला लेखो का उल्लेख किया जा रहा है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। एक तो हाथी गुम्फा उदयगिरि-खण्डगिरि की उदयगिरि पर बनी हुई है। इस गुफा के बरामदे के माथे पर सम्राट खारवेल द्वारा उत्कीर्ण लेख है। इस शिला लेख में सत्रह पंक्तियां है। इस लेख मे सम्राट खारवेल, खरवेल के जीवन, उसके राज्या रोहण, उसकी दिग्विजय, सातवहन सातकर्णी-वहसति मित्र-यूनानी आक्रान्त डैमिट्रियस आदि की पराजय, नन्दराज द्वारा कलिंग से अपह्यत ‘कलिंग जिन’ प्रतिमा की वापसी, खारवेल द्वारा किए गए लोक कल्याणकारी कार्य, खारवेल की धर्माराधना और उनके द्वारा संयोजित मुनि-सम्मेलन आदि बातो पर प्रकाश पड़ता है। यह शिला लेख सम्राट खारवेल के ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर प्रामाणिक प्रकाश डालता है।
दूसरा शिला लेख कुल्लूरगुडू (जिला शिमौगा-कर्नाटक) मे सिद्धेश्वर मन्दिर की पूर्व दिशा मे पड़े हुए पाषाण पर उत्कीर्ण है। यह शकसंवत् 1043 (ई.स. 1121) का है। इसमे बताया गया है कि जब नेमिनाथ तीर्थंकर का तीर्थ प्रचलित था, उस समय अहिच्छत्र मे गंगवंशी विष्णुगुप्त राज्य कर रहा था। इसी के शासन-काल मे भगवान नेमिनाथ का निर्वाण हुआ था। इसी प्रकार जब भगवान पाश्र्वनाथ को अहिच्छत्र मे केवल ज्ञान हुआ, उस समय वहां के गंगवंशी नरेश प्रिय बन्धु ने समवसरण मे जाकर भगवान की पूजा की।
वस्तुतः इन शिला लेखो मे हमारे अतीत का गौरव पूर्ण इतिहास सुरक्षित है। इन से अनेक राजवंशो का परिचय और शासन-कल, अनेक आचार्यों, गण्-गच्छों, जिन धर्मभक्त स्त्री-पुरूषो आदि के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। यदि देश के सम्पूर्ण उपलब्ध शिला लेखो का संग्रह करके हिन्दी अनुवाद सहित उनका प्रकाशन हो जाए, तो इससे हमारी प्राचीन संस्कृति का ऐतिहासिक आकलन करने मे बड़ी सुविधा हो जाएगी और उससे ऐतिहासिक व्यक्तियों के काल-निर्णय मे भी बड़ी सहायता मिल सकेगी।
मूर्तियों के पादपीठ पर लेख अंकित करने की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। इसलिए मूर्ति-लेखों की संख्या हजारो मे है। इनमूर्ति-लेखो से भी राजाओं के राज्-काल मुनियो और भट्टार को के काल-निर्णय, उनकी परम्परा, मूर्ति प्रतिष्ठापक भक्त श्रावकों के परिवार आदि बातो पर प्रकाश पड़ता है। शिला लेखों के समान मूर्ति-लेखों के भी प्रकाशन की आवश्यकता है।