।। जैन मूर्तियां ।।

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पुरातत्ववेत्ताओं की मान्यता है कि मूर्ति-कला का प्रारंभ मौर्यकाल से हुआ। उसस पूर्व यक्ष-पूजा अैर प्रतीक-पूजा होती थी। प्रतीक-पूजा यक्ष-पूजा से भी पूर्वकाल की मानी जाती है। प्रतीकों में स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, चैत्यवृक्ष आदिथें किनतु जब अतदाकार स्थापना से मनुष्य के मन को तृपित नहीं हुई, तब उसने तदाकार स्थापना का प्रारम्भ किया। इस काल में यक्षों की मूर्तियां बननी प्रारम्भ हुई। उसके बाद देव-मूर्तियां निर्मित होने लगीं।

मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन के फलस्वरूप जो सीलें या मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं, उससे भारतीय मूर्ति-कला के सम्बंध में पूर्व धारणाएं बदल गई हैं और उसकी परम्परा आज से पांच हजार वर्ष पूर्व प्रमाणित हो चुकी है। सिन्धु घाटी सभ्यता के काल में निर्मित कायोत्सर्गासन में नग्न योगियो की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, विद्वानों ने इन मूर्तियों को जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति माना है।

जैन पौराणिक साक्ष्यों के अनुसार पहले अयोध्या का निर्माण हुआ। सबसे प्रथम पंाच जिनालय बनाए गए। उसके पश्चात् सम्राट भरत ने कैलाश पर 72 जिनालय निर्मित कराए। इसके पश्चात् बिहार प्रदेश में पटना के लोहानीपुर मुहल्ले में एक प्रतिमा और मूर्ति का सिर मिला। यह मूर्ति हड़प्पा की मूर्ति के समान मस्तकहीन है। कुहनियों और घुटनों से भी खण्डित है। इसकी ओपदार पालिश के कारण पुरातत्ववेत्ताओं ने एकमत से इसे मौर्यकालीन जैन मूर्ति माना है। यह भारत की प्राचीनतम मूर्ति मानी जाती है। यह पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। यहां इसी काल की एक यक्षी-मूर्ति भी है।

इसके पश्चात् हमें उदयगिरि-खण्डगिरी की गुफाओं में तीर्थंकर मूर्तियां मिलती हैं। कुछ गुफाओं का निर्माण सम्राट खारवेल, उनकी महारानी और दो पुत्रों ने कराया था। खारवेल का समय इतिहासकारों के मतानुसार लगभग ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी है। खारवेल के हाथी गुफा के शिलालेख में ‘कलिंग जिन’ नामक रत्न-प्रतिमा के सम्बंध में उल्लेख है कि नन्दराज कलिंग पर आक्रमण करके इसे अपने साथ पाटलिपुत्र ले गया था। इस घटना के तीन सौ वर्ष बाद सम्राट खारवेल तत्कालीन पाटलिपुत्र नरेश बृहस्पति मित्र को पराजित करके इस प्रतिमा को पुनः कलिंग में वापिस ले गया और कुमारी पर्वत पर जिनालय बनाकर उसे प्रतिष्ठापित किया। यह प्रतिमा आपकल वैष्णवों के अधिकार में है। इस विवण से विश्वास किया जाता है कि यह प्रतिमा संभवतः शिशुनागवंश (श्रेणिक बिम्बसार या उसके वंशज) किसी राजा ने निर्मित कराई थी। यदि यह सिद्ध हो जाता है, तो यह भारत की सर्वप्राचीन प्रतिमा मानी जाएगी।

तत्पश्चात् मथुरा की शक-कुषाण कालीन जैन प्रतिमाएं काल-क्रम की दृष्टि से मानी जाती है। इनका काल ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी है। मांगीतुंगी की मूर्तियां भी इस काल कीप्रतीत होती हैं। इस काल की अनेक मूर्तियां मथुरा, लखनऊ, कलकत्ता और लन्दन के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। कटक, भानपुर, पाकवीर, वैशाली, कलुहा पर्वत, चम्पापुरी (नाथनगर) आदि में भी कुछ मूर्तियां कुषाणकाल की प्रतीत होती हैं। राजगृह की सोन भण्डार गुफाओं की मूर्तियां, पटना में श्री गोपीकृष्ण कानोडिया के संग्रहालय में स्थित पाश्र्वनाथ मूर्ति तीसरी शताब्दी की है। गुप्त काल की मूर्तियां अत्यल्प है। अदयगिरि, विदिशा, काकन्दी, ककुमग्राम, प्रयाग आदि में गुप्तकाल की अनेक मूर्तियां हैं। सातवीं-आठवीं शताब्दी की मूर्तियां तो सैकड़ों की संख्या में मिलती हैं- जैसे केशोरायपाटन, राजगृह, उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफाएं, एलोरा की गुफाएं, धाराशिव की गुफाएं, गजपन्था, करन्दै, श्रीशैलम्, वैशुनम, विल्लकम्।

9वीं, 10वीं शतब्दी और इनके पश्चात्काल की तो हजारों मूर्तियां मिलती हैं। उपरिलिखित सम्पूर्ण विवरण पाषाण मूर्तियों का दिया गया है। जिस प्रकर लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त कायोत्सर्ग वाली पाषाण प्रतिमा भारत की सबसे प्राचीन प्रतिमा मानी जाती है, इसी प्रकार पटना के राजकीय संग्रहालय में सुरक्षित 21 जैन धातु प्रतिमाएं धातु प्रतिमाओं में सबसे प्राचीन मानी जाती है। ये प्रतिमाएं शाहाबाद (बिहार) जिले के विभिन्न स्थानों से उत्खनन के फलस्वरूप प्राप्त हुई थीं। इसके कुछ पश्चात्काल की धातु प्रतिमाएं कटक, भुवनेश्वर और कलकत्ता के संग्रहालयों, दक्षिण और उत्तर भारत के अनेक जिलानयों में प्राप्त होती है।

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जैन मूर्ति-कला का वैशिष्ट्य

जैन मूर्तियों में कलागत विशेषत और वैविध्य विशेष उल्लेखनीय है। तीर्थंकर-मूर्तियां तीन आसनों में प्राप्त होती हैं-पद्मासन, अर्द्धपद्मासन और कायोत्सर्गासन या खड्गासन। तीर्थंकर माता की मूर्तियां शयनासन में मिलती है। खड्गासन मूर्तियों की अपेक्षा पद्मासन मूर्तियों की संख्या अत्यधिक है। खड्गासन प्रतिमाओं में सर्वोत्तम प्रतिमा चूलगिरि (बड़वानी) में स्थित भगवान आदिनाथ की है। इसकी ऊंचई 84 फीट है। ग्वालियर किले में आदिनाथ प्रतिमा और गोम्मटैश्वर बाहुबली की मूर्ति लगभग 57 फीट उन्नत है। कारकल में बाहुबली प्रतिमा 42 फी, खन्दार और ग्वालियर दुर्ग की कई प्रतिमाएं 35 फीट की हैं। इनकसे छोटी खड्गासन प्रतिमाएं अनेक स्थानों पर हैं, जैसी बोरीवली, कुम्भोज, बाहुबली, कोल्हापुर, कौथली, वेणूर, श्री महावीरजी, फिरोजाबाद, धमस्थल, कुन्थलगिरि, थूवौन, सोनागिरि, सिंहौनिया, अयोध्या, आरा, बजरंगगढ़, झालरापाटन, अहार, कुण्डलपुर बहुरीबन्द आदि।

पद्मासन प्रतिमाओं में सर्वोत्तम प्रतिमा ग्वालियर दुर्ग की ‘एक पत्थर की बावड़ी’ समूह की तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की है, जो 35 फीट ऊंची है। बाहुबली-प्रतिमाएं खड्गासन में ही मिलती हैं।

तीर्थंकर मूर्तियों में द्विमूर्तिका, त्रिमूर्तिका, सर्वतोभद्रिका, पंचबालयति, चतुर्विशति फलक में प्राप्त होती हैं। आदिनाथ की अनेक मूर्तियां जटायुक्त् मिलती हैं। सुपाश्र्वनाथ का चिन्ह यद्यपि स्वस्तिक है, किन्तु अनेक मूर्तियां, पंच सर्पफणावलि युक्त मिलती हैं। पाश्र्वनाथ की मूर्तियां प्रायः सप्त फणावलिमण्डित होती हैं, किन्तु नौ, ग्यारह, तेरह और सहस्त्रफणवलि भी मिलती है। सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों के पादपीठ पर लांछन (चिन्ह) और लेख रहता है। प्राचीन प्रतिमाओं पर तीर्थंकर मूर्ति के दोनों पाश्र्वों में यक्ष-यक्षी और अष्ट प्रातिहर्य का अंकन होता है। अनेक मूर्तियों पर यह नहीं भी होता। अनेक मूर्तियों पर चिन्ह, यक्ष, यक्षी प्रातिहार्य नहीं होते। ऐसी मूर्तियां सिद्ध भगवान की मानी जाती हैं। जिन पर यह होता है, वे अरिहन्त भगवान की होती है।

अनेक स्थानों पर रत्न-प्रतिमाएं भी मिलती हैं। स्फटिक की सबसे सुन्दर प्रतिमा फिरोजाबाद में हैं।

पाषाण की पद्मासन प्रतिमाएं दो प्रकार की होती हैं- परिकर सहित और परिकर रहित। परिकर में दुन्दुभिवादक, पुष्पमाल लिये हुए देव देवी या गन्धर्व, गजलक्ष्मी, चमरधारी इन्द्र, यक्ष-यक्षी और भक्त स्त्री-पुरूष, जो संभवतः मूर्ति के प्रतिष्ठा होते हैं। इसी प्रकार खड्गासन प्रतिमाओं में कुछ के साथ परिकर होता है। परिकर में उपर्युक्त परिकर के अतिरिक्त व्याल या शार्दूल भी मिलती हैं।

मूर्तियों में आदिनाथ, चन्द्रप्रभ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर की प्रतिमाओं सर्वाधिक मिलती हैं। कुछ प्रतिमाएं अद्भुत मिलती हैं। जैसे अल्वर्ट म्युजियम लन्दन में एक मूर्ति चन्द्रप्रभ तीर्थंकर की सप्तमुख् वाली है, जो सम्भवतः सप्तभंगी की प्रतीक है। सिरपुर में पाश्र्वनाथ की सप्त फणावलिवाली ओर 3 फुट 8 इंज ऊंची कृष्णवर्ण की मूर्ति भूमि से 2-3 अंगुल ऊपर अधर में टिकी हुई हैं। इसीलिए इसे अन्तरिक्ष पाश्र्वनाथ कहा जाता है। जिन्तूर (महाराष्ट्र) में पाश्र्वनाथ की एक मूर्ति 5 फुट 10 इंच ऊंची और नौफणावलिवाली है, जो केवल 2-3 इंच चैड़े पाषाण खण्ड पर टिकी हुई है। जिन्तूर में ही पाश्र्वनाथ की एक मूर्ति के ऊपर बाहुबली स्वामी के समान लताओं का अंकल मिलता है। अनेक स्थानों पर ईंट-चूना और गारे से बनी मूर्तियं मिलती है। ऐसी मूर्तियां बीना बारहा (मध्यप्रदेश) धाराशिव गुफाओं (महाराष्ट) में मिलती हैं। अनेक मूर्तियां बालुकानिर्मित मिलती हैं। पैठण (महाराष्ट) में मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकर की मूर्ति बालुकामय ही मानी जाती है।

इस प्रकार जैन मूर्तियों में जिस वैविध्य के दर्शन होते हैं, उससे जैन मूर्तिकला अत्यनत सम्पन्न एवं गरिमायम बन गई है। जैन मूर्ति की पहचान अर्धोन्मीलितनयन, नासाग्र दृष्टि और ध्यानस्थ दशा से की जाती है। अनेक मूर्तियों की छाती पर श्रीवत्स लांछन होता हैं अनेक मूर्तियां अष्ट प्रातिहार्य और यक्ष-यक्षी सहित होती है।