।। आस्त्रवभावना ।।
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मृगी के वेग की भाँति घटते-बढते होने से आस्त्रव अध्रुव हैं, पर चैतन्यमात्र जीव ध्रुव है। शीत-दाह जव के आवेश की भांति अनुक्रम से उत्पन्न होने के कारण आस्त्रवभाव अनित्य हैं और विज्ञानघनस्वभावी जीव नित्य है।

जिस प्रकार वीर्यस्खलन के साथ दारूण कामसंस्कार नष्ट हो जाता है, किसी से रोका नहीं जा सकता; उसी प्रकार कर्मोदय समाप्त होने के साथ ही आस्त्रव नाश को प्राप्त हो जाते हैं,उन्हें रोकना संभव नहीं है; अतः आस्त्रव अशण हैं; किंतु स्वयंरिचत चित्शक्तिरूप जीव शरण सहित है।

आकुलस्वभाववाले होने से आत्रव दुःखरूप है और निराकुलस्वभाववाला होने से आत्मा सुखरूप है। भविश्य में आकुलता उत्पन्न करनेवाले पुदृगलपरिणाम (कर्मबंध) के हेतु होने से आस्त्रव दुःखफलरूप हैं और समस्त पुद्गलपरिणाम का अहेतु होने से आत्मा सुखफलरूप हैं।1’’

समयसार और आत्मख्याति के उक्त कथन में जहाँ एक ओर आस्त्रवभावों को अधु्रव, अनित्य, अशरण, अशुचि, जड़, दुःखरूप एंव दुःख के कारण बताया गया है तो दूसरी ओर भगवान आत्मा को ध्रुव, नित्य, परमशरणभूत, परमपवित्र, चेतन, सुखस्वरूप एवं सुख का कारण बताया गया है।

उक्त सम्पूर्ण कथन का एकमात्र उद्देश्य ’आस्त्रवभाव: मोह-राग-द्वेषरूप विकारीभाव हेय हैं और संयोग तथा संयोगीभावों से भिन्न भगवान आत्मा परम-उपादेय है’ - यह बताना है।

’मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभाव आत्मा के स्वभावभाव नहीं, विभाव हैं, संयोगीभाव हैं। भगवान आत्मा उनसे भिन्न् ज्ञानानन्दस्वभावी है।’ - यह बात बुद्धि के स्तर पर ख्याल में आ जाने पर अज्ञानीजनों का मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्त इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाता; फलतः मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभावों से उनका एकत्व-ममत्व बना ही रहता है।

यद्यपि ज्ञानीजनों का एकत्व-ममत्व मोह-राग-द्वेषरूप भावों से नहीं होता; तथापि तज्जन्य विकल्पतरंगें उनके भी भूमिकानुसार उठा ही करती हैं,

राग-द्वेष उत्पन्न होते ही रहते हैं। उक्त राग-द्वेष और विकल्पतरंगों के शमन के लिए ज्ञानीजनों को एवं आस्त्रव भावों से एकत्व-ममत्व तोड़ने के लिए अज्ञानीजनों को भी आस्त्रवभावों की अधु्रवता, अनित्यता, अशरणता, अशुचिता, जड़ता, दुःखरूपता एवं दुःखकारणता तथा आत्मा की धु्रवता, नित्यता, शरणभूतता, चेतनता, पवित्रता, सुखरूपता एवं सुख के कारणरूपता का विचार-चिन्तन-मनन करनते रहना चाहिए।

मोह-राग-द्वेषरूप भाव आस्त्रवतत्व हैं अैर उनके संदर्भ में निरंतर किया जानेवाला उक्त चिन्तन आस्वत्रभावना है।

ध्यान रहे आस्त्रवभावाना आस्त्रवतत्व नहीं, संवरतत्व है; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में बारहभावनाओं का वर्णन संवरतत्व के प्रकरण में आता है। वहां अनुप्रेक्षाओं को संवर के कारणों में गिनाया गया है।

तत्वार्थसूत्र में उक्त कथन मूलतः इस प्रकार है -

’’आस्त्रवनिरोधः संवरः। स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः।1

आस्त्रव के निरोध को संवर कहते हैं। वह संवर तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बारह भावना, बाईस परीषहजय और पांच प्रकार के चारित्र से होता है।’’

बाहर भावनाओं के चिन्तन का मूल प्रयोजन पर और विकार से भिन्न निज भगवान आत्मा में ही रमणता की तीव्र उत्पन्न कना है, तत्संबंधी पुरूषार्थ को विशेष जागृत करना है। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए अनित्य से लेकर अशुचिभावना तक संयोगों की अनत्यिता, अशरणता, असारता, भिन्नता, अशुचिता का चिन्तन किया जाता है; इस बाता का विचार किया जाता है कि ये संयोग मात्र संयोग है, आत्मा के सुख-दुःख में साथ देनेवाले नहीं हैं।

चूंकि संयोग पररूप ही होते हैं; अतः उक्त छह भावनाओं में विशेष कर पर ही पृथकता का ही वैराग्यपरक चिनतन होता है; किंतु आस्त्रवभावना में विभाव की विपरीतता का चिन्तन मुख्य होता है।

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इसप्रकार हम देखते है कि अनित्यादि छह भावनाओं के चिनतन की विष्यवस्तु शरीरादि संयोग हैं और आस्त्रवभावना के चिंतन की विषयवस्तु संयोगीभाव हैं।

परसंयोग से या पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभाव ही संयोगीभाव हैं और वे आत्मस्वभाव से विपरीत हैं। उनकी इस विपरीतता को ही समयसार और आत्मख्याति के उक्त कथनों में अनेक हेतुओं से सोदाहरण समझाया गया है।

आस्त्रवभावों की विपरीतिता भी तो आत्मस्वभाव से ही सि; करना है; अतः जिन बिन्दुओं से आस्त्रव का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, साथ में उन्हीं बिंदुओं से आत्मस्वभाव का स्पष्टीकरण भी सहज आवश्यक हो जाताहै, अतः कह जाता है कि आत्मा नित्य है, आस्त्रव अनित्य है; आत्मा ध्रुव है, आस्त्रव अधु्रव है; आत्मा परमशरण है, आस्त्रव अशरण हैं; आत्मा चेतन है, आस्त्रव जड़ हैं; आत्मा सुखस्वरूप है, आस्त्रव दुःखस्वरूप हैं; आत्मा सुख का कारण है, आस्.व दुःख के कारण हैं।

इसप्रकार यद्यपि ये आस्त्रवभाव आत्मा में ही उत्पन्न होते हैं, आत्मा से निबद्ध हैं; तथापि आत्मस्वभाव से अन्य हैं, विपरीतस्वभाववाले हैं; अतः हेय हैं; श्रद्धेय नहीं ध्येय नहीं, उपादेय भी नहीं, मात्र ज्ञान के ज्ञेय हैं; और आस्त्रवभावों से अन्य यह भगवान आत्मा परमज्ञेय है, परमश्रद्धेय है, परमध्यये है, परम-उपादेय है।

- इस प्रकार का सतत! चिंतन ही आस्त्रवभावना है।

मात्र आस्त्रव के कारण का, भेद-प्रभेदों का विचार करते रहना आस्त्रवभावना नहीं हैं। आस्त्रवभावनाओं में आस्त्रवों के स्वरूप के साथ-सथ जिस आत्मा की पर्याय में ये मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभाव उत्पन्न होते हैं, फिर भी जो आत्मा इन मोह-रोग-द्वेष भावों से भिन्न है, परमपवित्र है, धु्रव है; उस आत्मा का भी विचार होता है, चिंतन होता है। उसके साथ-साथ आस्त्रवभावों का भी चिंतन इसप्रकार होता है कि जिससे आस्त्रवभावों से विरक्ति एवं आत्मस्वभाव में अनुरक्ति उत्पन हो; क्योंकि आस्त्रवभावना के चिंतन का उद्देश्य आस्त्रवों का निरोध है, आस्त्रवभव का अभाव करना है, उन्हें जडृमूल से उखाडृ फेंकना है।

आस्त्रवभावों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए यह आवश्यक है कि हम सम्पूर्ण आस्त्रवों को हेय जाने, सम्पूर्णतः हेय मानें; चाहे वे पापास्त्रव हों, चाहे पुण्यास्त्रव; चाहे अशुभस्त्रव हों, चाहे शुभास्त्रव। शुभ से शुीा आस्त्रव के प्रति मोह (उपादेयबुद्धि) मिथ्यात्व नामग अशुभतम आस्त्रव है। तीर्थंकर नामकर्म का बंध करनेवलो शुभतम भावों में यदि उपादेयबुद्धि रहती है तो वह अनन्तसंसार का कारणरूप मिथ्यात्व नामक अशुभतम आस्त्रवभाव है।

इस सन्दर्भ में आध्यात्मिकसत्पुरूष श्रीकानजी स्वामी के विचार भी द्रष्टव्य हैं -

’’हाड़, मांस, चमड़ा आमिय शरीर अशुचि है - हय बात तो दूर ही रही तथ पापभाव अशुचि हैं, अपवित्र हैं - हय भी सभी कहते हैं; पर यहां तो यह कहते हैंकि दया, दान, व्रत आदिरूप जो पुण्यभाव हैं; वे भी अशुचि हैं, अपवित्र हैं। आहाहा! जिस भाव से तीर्थंकर नामकर्म बंधता है, वह भाव भी मलिन है - ऐसा यहां कहते हैं।

यह बात शुभभावों में धर्म माननेवाले अज्ञानियों को कठिन लगती है, अटपटी लगती है, बुरी लगती है; परंतु स्वरूप के रसिक-आस्वादी ज्ञानी पुरूष तो शुभभावों को-पुण्यभावों को मलिन ही जानते हैं, इस कारण हेय मानते हैं।

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