।। संसारभावना ।।
दुखमय निरर्थक मलिन जो सम्पूर्णतः निस्सार है।
जगजालमय गति चार मे संसरण ही संसार है।।
भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण संसार का आधार है।
स्ंयोगजा चिद्वृत्तियाँ ही वस्तुतः संसार है।।१।।

संयोगों के लक्ष्य से आत्मा मे उत्पन्न होनेवाली दुःखमय, निरर्थक, मलिन और सम्पूर्णतः निस्सार चिद्वृत्तियाँ (विकारी भाव) ही वास्तविक संसार है; जगजालमय चतुर्गतिभ्रमण को भी संसार कहा जाता है। भ्रमरोग (मिथ्यात्व-अज्ञान) के वश होकर भव-भव में परिभ्रमण ही संसार का मूल आधार है।

संयोग हों अनुकूल फिर भी सुख नहीं संसार में।
संयोग को संसार में सुख कहें बस व्यवहार में।।
दुख-द्वन्द हैं चिद्वृत्तियाँ संयोग ही जगफन्द है।
निज आत्मा बस एक ही आनंद का रसकंद है।।२।।

अनुकूल संयोगों की प्राप्ति होने पर भी संसार मे सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अनुकूल संयोगों की प्राप्ति को सुख मात्र व्यवहार से ही कहा जाता है। वास्तव में तो सभी संयोग संसार के फन्द ही हैं, फन्दे में फँसानेवाले ही हैं और मानसिक द्वन्द्वरूप चिद्वृत्तियाँ भी दुःखरूप ही हैं। आनंद का रसकंद तो एकमात्र अपना आत्मा ही है, शेष सब तो दंद-फंद ही हैं।

मंथन करे दिन-रात जल घृत हाथ में आवे नहीं।
रज-रेत पेले रात-दिन पर तेल ज्यों पावे नहीं।।
सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा मिलती नहीं व्यापार में।
निज आतमा के भान बिन त्यों सुख नहीं संसार में।।३।।

जिसप्रकार जल का मंथन चाहे रात-दि नही क्यों न करें, पर उसमें से घी की प्राप्ति सम्भव नहीं है; इसीप्रकार रेत को रात-दि नही क्यों न पेलें, पर उसमें से तेल का निकलता संभव नहीं है तथा जिसप्रकार सद्भाग्य के बिना व्यापार मे सम्पत्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। उसीप्रकार निज आत्मा को जाने बिना संसार में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

यह एक ऐसा महासत्य है; जिसके जाने बिना संसार से विरक्ति और आत्मसन्मुख दृष्टि होना संभव नहीं है।

संसार है पर्याय में निज आतमा ध्रुवधाम है।
संसार संकटमय परंतु आतमा सुखधाम है।।
सुखधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४।।

संसार तो मात्र अध्रुव पर्याय में है, निज ध्रुवधाम आत्मा में नहीं है। यद्यपि संसार संकटमय है; तथापि आत्मा तो सुख का धाम ही है। इस सुख के धाम आत्मा से जो पर्याय विमुख है, वही पर्याय वस्तुतः संसार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

धर्म का आरंभ भी आत्मानुभूति से ही होता है और पूर्णता भी इसी की पूर्णता में। इससे परे धर्म की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आत्मानुभूति ही आत्मधर्म है। साधक के लिए एकमात्र यही इष्ट है। इसे प्राप्त करना ही साधक का मूल प्रयोजन है।

संसारभावना: एक अनुशीलन

संसार है पर्याय में, निज आतमा ध्रुवधाम है।
संसार संकटमय परंतु आतमा सुखधाम है।।
सुखधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।

‘‘अपनी-अपनी सुनिश्चित भवितव्यतानुसार प्रतिसमय होनेवाले संयोगों के वियोग एवं पर्यायों के परिणमन को रोकने या स्वेच्छानुसार परिणमाने में कोई भी समर्थ नहीं है; क्योंकि सभी संयोग और पर्यायें अनित्य हैं, अशरण हैं।‘‘ - यह बात अनित्य और अशरणभावना के अनुशीलन से अत्यंत स्पष्ट हो जाने पर भी वस्तु के सम्यक् स्वरूप से अपरिचित अज्ञानी को अज्ञानवश तथा सम्यकज्ञानी को भी कदाचित् रागवश इसप्रकार की विकल्पतरंगें उत्पन्न हो सकती हैं या होने लगती हैं कि भले ही संयोगों को स्थाई रूप प्रदान न किया जा सके; पर जबतक वे हैं, तबतक तो उनसे सुख प्राप्त होगा ही तथा जो नये संयोग प्राप्त होंगे, उनमें भी कुछ सुखकर हो ही सकते हैं।

- इसप्रकार की कल्पनाओं में उलझे रहने से उनका उपयोग संयोगों पर से हटता नहीं है, हटकर स्वभावसन्मुख होता नहीं है।

- इस स्थिति से उभरने के लिए की जानेवाली चिंतन-प्रक्रिया का नाम संसारभावना है। संसारभावना में यह चिंतन किया जाता है कि संयोगों में सुख नहीं है, संयोगों में सुख की कल्पना ही दुःख का मूल है।

‘‘दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णावश धनवान।
कहुँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान।।

उक्त छंद में इसी तथ्य को सशक्तरूप से उजागर किया गया है कि सम्पूर्ण जगत को छान मारा, पर संयोगों में कहीं सुख दिखाई नहीं दिया। यदि निर्धन धन के अभाव में दुःखी हैं तो धनवान भी कहाँ सुखी है? वे भी तो तृष्णावश होकर दुःखी ही दिखाई देते हैं।

संसरण ही संसार है और चतुर्गति-परिभ्रमण का नाम ही संसरण है। जिनागम में सर्वत्र चतुर्गति के दुःखों का ही वर्णन है। जैनसमाज में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले कविवर पंडित दौलतरामजी कृत सरल, सरस, सुबोध ग्रन्थ छहढाला का तो आरंभ ही चतुर्गति-वर्णन से होता है; उसकी तो पहली ढाल में ही चतुर्गति के दुःखों का विस्तार से निरूपण किया गया है, जो कि मूलतः पठनीय है।

उक्त छहढाला की पंचम ढाल में समागत संसारभावना सम्बंधी छनद इसप्रकार है -

‘‘चहुँगति दुख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करे हैं।
सब विधि संसार असारा, यामैं सुख नाहिं लगारा।।

चारों गतियाँ दुःखी जीवों से ही भरी पड़ी हैं। तात्पर्य यह है कि पंचपरावर्तनों के माध्यम से चतुर्गति में भ्रमण करनेवाले सभी जीव दुःखी ही हैं, चारों गतियों में कहीं भी सुख नहीं है। यह चतुर्गति-भ्रमण रूप संसार सर्वप्रकार से असार है; इसमें रंचमात्र भी सुख नहीं है, सार नहीं है।‘‘

प्रतिकूल संयोगों को दूरकर एवं अनुकूल संयोगों को मिलाकर सुखी होने की दिशा में किये गये किसी के भी प्रयत्न त नो आजतक सफल हुए हैं और न कभी होंगे; अतः संयोगों पर से दृष्टि हटा लेने में ही सार है, शेष सब संसार है।

सुख की लालसा से संयोगों की ओर देखनेवाले जगत को इस बात का विचार करना, चिंतन करना, मंथन करना अत्यंत आवश्यक है कि जिन संयोगों के लिए तू इतना लालायित हो रहा है, जिन्हें जुटाने के लिए सबकुछ भूलकर जमीन-आसमान एक कर रहा है; उनमें सुख है भी या नहीं, उनके मिल जाने पर सुख प्राप्त होगा भी या नहीं?

कहीं ऐसा न हो कि सम्पूर्ण जीवन उनके जुटाने में ही बीत जावे और वे जुट ही न पावें; क्योंकि इन संयोगों का जुटाना मेंढकों के तोलने जैसा दुष्कर कार्य है; तराजू पर एक रखो तो दो उछलकर नीचे कूद पड़ते हैं। जबतक एक संयोग जुटता है, तबतक दूसरा बिखर जाता है। जब दाँत होते हैं, तब चने नहीं मिलते हैं; जब चने मिलते हैं, तबतक दाँत गिर चुके होते हैं। जिनमें पत्थर पचाने की ताकत है; उन्हें दूध-घी नहीं मिलता, रूखी रोटियाँ खानी पड़ती हैं और जिन्हें सब-कुछ उपलब्ध है; उनका घी, शक्कर, नमक, तेल सब बंद हैं; मूँग की दाल के पानी पर जीवन चलता है। वे चाहें तो घी-दूध में दिनभर डूबे रह सकते हैं, पर उनके सामने ही अतिथि माल उड़ाते हैं और वे फीकी चाय पीते देखते रहते हैं।

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