।। पाक्षिक श्रावक।।

सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र एवं आगम द्वारा इस निग्र्रन्थ पद का आश्रय लेकर ही जीव आत्मसिद्धि रूप निर्वाण की प्राप्ति कर सकता हैं। अर्थात तीन लोक के सर्व पदार्थों का ज्ञायक परमात्मा हो जाता है।

मैं इस निग्र्रन्थपद को धारण करने का इच्छुक हूं, संयमधारण करने के लिए आराधना करता हूं, विषय कषायों से उदासीन होता हूं, विरक्त होता हूं।

मैं क्रोध , मान, माया, लोभ, रागद्वेष, मोह, माया, भय, प्रपंच, असत्य, मात्सर्य, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचरित्र, विषयभोग, समस्तव्यामोह, हिंसा झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का प्रतिक्रमण के समय तक को त्याग करता हूं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण करता हूं।

यदि मैंने मोक्ष के बहिरंगकारण निग्र्रन्थपद का अविनय एवं जुगुप्सा मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से किए हों तो मेरे वे सब भाव मिथ्या हों, मिथ्या हों।

jain temple205
वीर भक्ति

हे भगवन्! मैंने वीर प्रभु की भक्ति करने का इच्छुक हूं ओर इसके लिए मैं इस विनाशीक शरीर से ममत्वभाव को छोड़ने का अभ्यास करता हूं। मैंने दिन में या रात्रि में आवश्यक क्रियाओं के करने में जो आलस्य किया हो, शिथिलता धारण की हो, मन में ग्लानि उत्पन्न की हो, लज्जा से शीघ्रता से, दुष्टता से, अज्ञान से, मान से, प्रमाद से, अविनय से, भय से, आशा से, रागद्वेष मोह से, कुत्सित परिणामों में गुप्तरूप से, मायाचार से, आचरण में अतिचार, अनाचार, आभोग अनाभोग रूप कायिक, वाचनिक और मानसिक दुराचरण स्वयं किया हो, कराया हो, वीभत्सत्ता से भाष किया हो, स्वप्नादि में दूषण लगाया हो, अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र सूत्र जिनागम एवं प्रतिमओं की विराधना की हो तो मेरा वह सब पाप मिथ्या हो, मिथ्या हो।

हे महावीर प्रभो! मैं आपका चिंतवन करता हूं। क्योंकि आप राग द्वेष, मोह, परिग्रह शल्य (माया, मिथ्यात्व, निदान) और कषाय से रहित हो। आपने साम्यभाव धारण कर समस्त कर्मों का नाश किया है एवं शुद्धोपयोग रूप केवलज्ञान को प्राप्त कर जन्ममरण से निर्भय हो गये हो। आपके तप ही प्रधान योग है इसलिए आप शील के सागर अप्रमेय, महान मुनि, महर्षि और ज्ञानी जनों से पूज्य लोकशिरोमणि, सर्वज्ञ, सर्वमंलरहित, सिद्ध हो, बुद्ध हो, शुद्ध हो, वीतराग हो, रत्नत्रय के स्वामी हो और अनंत शुद्धगुणों के पुंज हो। हे प्रभो आप मेरा मंगल करें।

यः सर्वाणि चराचराणिविधिवद् द्रव्याणि तेषां गुणान्।
पर्यायानपि भूतभाविभवतः, सर्वान सदा सर्वथा।।
जानीते युगपत्प्रतिक्षणमतः सर्वज्ञः इत्युच्यते।
सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महत्ते, वीराय तस्मैं नम$।।

अर्थ - जो प्रत्येक समय में संपूर्ण चेतन अचेतन तथा उनके त्रिकालवर्ती गुण पर्यायों को युगपत जानने के कारण सर्वज्ञ कहे जाते हैं। उन्हीं सर्वज्ञ जिनेश्वर श्री महावीर प्रभु के लिए मेरा नमस्कार हो।

वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहिता वीरं बुधाः संश्रिताः।
वीरेणाभिहतः स्वक्रर्मनिचयो, वीराय भक्ते नमः।।
वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपः।
वीरे श्रीधृतिकीर्तिकांतिनिचयो हे वीर! तुभ्यौ नमः।।

अर्थ - हे वीर प्रभो! आप समस्त सुरेन्द्रों और असुरेन्द्रों से पूजे जाते हैं विज्ञ गणधरादि आपको सेचते हैं। आपने समस्त कर्मों को नष्ट कर दिया है, इसलिए हे वीर आपको मेरा नमस्कार है।

आपसे समुत्पन्न धर्म तीर्थ इस कलिकाल में (21000 इक्कीस हजार वर्ष) तक चलता रहेगा। आपका तपश्चरण आश्चर्यजनक है। आपमें श्री धृति कीर्ति कान्ति आदि सर्वगुणों का वास है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूं।

चैतन्य भक्ति
नमः समयसारा, स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय, सर्व भावान्तरच्छिदे।

अर्थ - जो शुद्ध सत्ता स्वरूप है, जिसका स्वभाव चेतनास्वरूप है, जो निजानुभव रूपक्रिया से प्रकाशमान है और निजशक्ति से अन्य सर्वजीवाजीव चराचर पदार्थों को सर्व क्षेत्रकाल भाव संबंधी सर्वविशेषणों (सामान्य विशेषात्मक) सहित एक समय में युगपत जानने वाला, द्रव्यकर्म, भावकर्म-नोकर्म रहित, शुद्ध चिदानन्द आत्म द्रव्य मेरे देह में शक्ति रूप से विराजमान है। उसको मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं।

ये वीर पादौप्रणमन्तिनित्यं, ध्याने स्थिरताः संयमयोगयुक्ताः।
ते वीतशोकाहि भवन्ति लोके, संसार दुर्ग विषमंतरन्ति।

अर्थ - जो मनुष्य संयमधारण कर और ध्यान में लीन होकर वीरप्रभु को नमस्कार करता है वह समस्त शोक दूर कर संसार से पार हो जाता है।

jain temple206
चारित्रं सर्वजिनेश्चरितं, प्रोक्तं च सर्वशिष्येभ्यः।
पणमामि पञ्चभेदं, पऽचमचारित्रलाभाया।।

अर्थ - सामायिक चारित्र को सर्व तीर्थंकरों ने स्वयं पालन किया है तथा पांचों (सामायिक, छेदोप स्थापना परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात) चारित्रों को पालन करने का उन्होंने अपनी सभी शिष्यों को उपदेश भी दिया है। मैं उस पंचम यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति की अभिलाषा से उसी पंऽ्चभेदरूप चारित्र को भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं।

त्याग, व्रत, संयम, नियम, यम, शील, समिति, गुप्ति, तप, भावना, परीषहजय, उपसर्ग विजय तथा दशधर्म ये व्यवहार चारित्र के भेद हैं। चारित्र मोक्ष का साधन है व समस्त पाप और संसार का नाश करने वाला है। इससे मैं श्रद्धापूर्वक भक्तिभाव से उसे नमस्कार करता हूं।

धर्म की महिमा
धम्मों मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तबो।
देवावि तस्य पणमंति, जस्स धम्मे रदो मणो।।

अर्थ - धर्म समस्त मंगलों में प्रधान मंगल है। अहिंसा, संयम और तप ये धर्म के अंग हैं। जिसे मनुष्य का मन धर्म में संलग्न है उसको देवता भी नमस्कार करते हैं।

धर्मः सर्वसुखाकारों हितकरो, धर्म बुधाश्चिन्वते।
धर्मेणैव हि लभ्यते शिवसुखं धर्माय तस्मैं नमः।।
धर्मान्नास्त्यपरः सुहद्भवभृतां, धर्मस्य मूलं दया।
धर्में चितमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म!! मां पालय।।

अर्थ - धर्म संपूर्ण सुखों का कत्र्ता है सुधर्म को विद्वान गणधरादि मुनीश्वर धारण करते हैं। धर्म से मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है ऐसे धर्म के लिए मैं भक्तिभाव से नमस्कार करता हूं।

प्राणियेंक ा धर्म से भिन्न कोई बंधु नहीं है। धर्म का मूल दया है। मैं अपने चित्त को सदा धर्म में लगाता हूं। हे धर्म तू सदा मेरी रक्षा कर।

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