प्रतिदिन करने योग्य
तीन लोकों में जितने अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय सर्व साध ुतथा जिन प्रतिमाऐं, जिन चैत्यालय, सिद्ध क्षेत्र और तीर्थक्षेत्र हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूं।
श्री कैलाश गिरि श्री, श्री गिरनार जी, श्री सम्मेद शिखरजी श्री चम्पापुरी जी, श्री पावापुरजी तथा हस्तिनापुर प्रभृति समस्त सिद्ध क्षेत्रों से और विदेह क्षेत्र से तथासमस्त कर्म भूमियों से जितने जीव कर्म मल रहित सिद्ध, बुद्ध ओर निर्मल हो गये है। वे चार प्रकार के संघ हमे मंगल करके पवित्र करें, शांति करे। विशुद्ध भावना से मैं अष्टांग (हाथ, परमस्तकओर छाती) नवाकर नमस्कार करता हू वे कर्मों का नाश करें।
हे भगवन्! शंकादिक 8 दोष, 8 मद, 6 अनायतन 3 मूढ़ता और 7 व्यसनों में जो भी दोष लगे हों, उनकी मैं आलोचना करता हूं।
हे जिनेश्वर! मैं ने आठ मूल गुणों में दोष लगाये हो,उनका मैं प्रतिक्रमण करता हूं।
हे प्रभों! मैं ने मूल गुणों का पालन करते समय मद्यादि शराब के त्याग में अचार (अथाना) चलित दही, छाछ, कांजी और आसव (अर्क) का सेवनकिय, कराया, और सेवन करने की अनुमोदना करने के फल स्वरूप अतिचार अनाचार सहित दैवसिक, साप्ताहि कपाक्षिक, चातुर्मासिक, षड्मासिक तथा वार्षिक संबंधी जो पाप लगे हों उनका में अतः करण से प्रतिक्रमण करता हूं।
हे वीराग देव! कृत-कर्मों के पश्चाताप पूर्वक में प्रतिक्रमण करता हूं। दर्शन प्रतिमा के पालन करने में जिन मार्गमें शंका की हो शुभाचरण पालन कर सांसारिक सुख की आकांक्षा तथा निदान किया हो। धर्मात्माओं के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि की होमिथ्यामार्ग और उन पर चलन वालों की प्रशंसा की हो इत्यादि जो पाप अतिचार सहित मन वचन काय पूर्वक किये हों करायें हो या अनुमति प्रदान की होतो मैं उन समस्त कार्यों की आलोचना करता हूं वे कर्म निरर्थक हो ऐसी कामना करता हूं।
इतर निगोद 7 लाख, नित्य निगोद 7 लाख, पृथ्वीकाय 7 लाख, आपकाय 7 लाख, तेजकाय 7 लाख, वायुकाय 7 लाख, वनस्पति आदि इक इन्द्रिय सम्बंधि 10 लाख, दोइन्द्रीय 2 लाख, तीनइन्द्रिय 2 लाख, चुतुरिन्द्रिय 2 लाख, पयुपंचेन्द्रीय 4 लाख, देवगति 4 लाख, नरकगति 4 लाख, मनुष्यगति 14 लाख, इस प्रकार 84 लाख योनीयां। मातृ पक्ष से और 1 करोड़ साढ़े निन्यानवे लाख कुल कोटि पितृपक्ष से और लक्ष करोउ़ सूक्ष्म बादर पर्याप्त, अपर्याप्त लब्धि अपर्याप्त आदि जीवों की विराधना की हो और राग द्वेष का पाप लगा हो तो हे भगवन्! यह मिथ्या हों।
पंच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पन्द्रह योग, पच्चीस कषाय तथा सत्तावन आसव्र का पाप लगा हो तो हे नाथ वह मिथ्या हों।
तीन दण्ड, तीन शल्य, तीन गर्व का पाप लगा हो तो हे प्रभो! वह मिथ्या हो।
राज्य कथा, चोर-कथा, स्त्री कथा, भोजन कथा, का पाप लगा होतो हे जिनेश! वह मिथ्या हो।
चार आर्तध्र्यान, चार रौद्र ध्यान का जो पाप लगा होतो हे परमात्मन्! वह मिथ्या हो।
त्रस जीवों की विराधना का जो पाप लगा हो तो हे मुनीश्वर वह मिथ्या हो।
सप्त व्यसन के सेवन का सप्तभयों का पाप लगा हो तो भगवान वह मिथ्या हो।
अष्टमूल गुण व्रत में अतिचार का जो पाप लगा हो तो परमेश्वर! वह मिथ्या हो।
दस बहिरंग और अंतरंग परिग्रह हो जो पाप लगा होतो हे जिन देव वह मिथ्या हो।
पंद्रह प्रमाद का तीप्रत्येक अणुव्रत के पांच पांच अतिचारों का जो पाप लगा हो तो कहे कैवल्यमूतै वह मिथ्या हो।
पानी छानने मे बिछानी करने मे जो पाप लगा हो, वह हे देव! व्ह मिथ्या हो।
बोलने में, चलने में टहलने में, हिलने में, धोने में, बैठने में मार्ग में, जाने में, अनजाने में, देखने में, अनदेखने में कोई रोद्र परिणाम का दुश्चिन्तन का पाप लगा हो तो हे अरिहंत देव! वह पाप मिथ्या हो।
सूक्ष्म या बादर जीव जैर से चपाया हो, भय पाया हो त्रास हुआ हो, वेदना हुई हो, छेदना की होतो हे पतित-पाव! वह मिथ्या हो।
सर्व मुनि आर्यिक श्रावक, श्राविकाओं की निंदा की होकराई हो, अनुमोदना की हो, तथा पर की निंदा की हो, कराई हो अनुमोदना की हो और उसका जो पाप लगा हो तो हे प्रभो! वह पाप मिथ्या हो।
देव शास्त्र गुरू का अविनय हुआ हो, निर्माल्य द्रव्य का पाप लगा हो बत्तीस प्रकार की सामायिक में जो दोष लगा हो तो हे दयानिधे! व्ह दुष्कृत्य हो।
पांच इन्द्रियों के विषय व छठवे अनिन्द्रिय मन का जाने अनजाने में जो पाप लगा हो से हे देवाधिदेव! वह मिथ्या हो।
मेरे साथ में कोई राग नहीं, कोई द्वेष नहीं, कोई बैर नहीं, कोई मान नहीं, कोई माया नहीं कोई लोभ नहीं।
मेरी समस्त जीवों के साथ उत्तम क्षमा, उत्तम क्षमा है वे भी मुझे क्षमा करें कोई माया नहीं कोई लोभ नहीं। मेरी समस्त जीवों के साथ उत्तम, क्षमा, उत्तम क्षमा है वे भी मुझे क्षमा करें कर्म क्षय हो समाधि पूर्वक मरण हो चारों गतियों के दुखों का निवारण हो।
उपरोक्त प्रतिक्रमण के पाठन्तरनौ, सत्ताईस या छत्तीसस बार णमोकार महामंत्र का उच्चारण करना चाहिए और फिर चारों दिशाओं में तीन तथा एक एक शिरोनति करना चाहिए। तदन्तर अपनी आलोचना का पाठ करें।
हम ने तो घूमीं चार गतियां.......... हमने तो घूमी चार गतियां नमानी जिनवाणी की बतियां।।टेक।। नरको में दुख ही दुख पाये, खण्ड खण्ड यह देह कराये। पायो न चैन दिरतियां, न मानी जिनवाणी की बतियां।।1।। पशु बन करके बोझ उठायो, भूख प्यास सही अकुलायो। अंसुवन से भी गगई अंखियां, न मानी जिनवाणी की बतियां।।2।। जब दुर्लभ मानुष तन पायो माया ममता में विसरायो। लीनी न अपनी सुरतियां, न मानी जिनवणी की बतियां।।3।। पुण्यउदय से सुरगतिपायी, मरण समय माला मुरझाई। मरके फिर भयेपेड़ पतियां, न मानी जिनवणी की बतियां।।4।। बिन सम्यक् घूमातन धारी, अपने को पहचान पुजारी। सतगुरू की मानो सुमतियां, न मानी जिनवाणी की बतियां।।5।।