अथ सरस्वती पूजा प्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
नाभी है ‘अंतकृद्दशांग’ वर नितंब -अनुत्तरदशांग’ है। वह ‘प्रश्नव्याकरण अंग’ मात का, जघनभाग कहते श्रुत हैं।। पादद्वय ‘विपाकसूत्रअंग’ ‘दृष्टवादांग’ कहं श्रुत में। ‘सम्यक्त्व’ तिलक हैं अलंकार, चैदह पूरब मानें सच में।।3।। ‘चैदहों प्रर्कीाक’ श्रुत वस्त्रों में, बने-बूटे सुंदर। ऐसी ये सरस्वती माता, जो द्वादशांगवाणी सुखकर।। सपूर्ण पदार्थों के ज्ञाता, तीर्थंकर की जो दिव्यध्वनी। सब द्रव्यों के पर्यायों की, ‘श्रुतदेवी’ अधिष्ठात्रि मानी।।4।। जो परमब्रह्मपथ अवलोकन, इच्छुक हैं भव्यात्मा उनको। स्याद्वाद रहस्य बता करे, भुक्ति मुक्ती देती सबको।। चिन्मयज्योती मोहांधकार, हरिणी हे जिनाणी माता। रविउदय पूर्वदिशी जेत्री, त्रिभुवन द्योतित करणी माता।।5।। जो अनादि से दुर्लभ अचिन्तय, आनन्त्य मोक्षसुख है जग में। हे सरस्वती मातः! वह भी, तव प्रसाद से अतिसुलभ बने।। आश्चर्यकारि स्वर्गादिक सब, ऐश्वर्य प्राप्त हों भक्तों कों मेरे सब वाछित पूर्ण करो, हे मातः! नमस्कार तुमको।।6।ं संपूर्ण स्त्री की सृष्टी में, चूड़ामणि हो हे सरस्वती। तुम से ही दयाधर्म की औ, संपूर्ण गुणों की उत्पत्ती।। मुक्ति के लिए प्रमुख कारण, मां सरस्वती! मैं नमूं तुम्हें। तव चरण कमल में शीश धरूं, भक्तीपूर्वक नित नमूं तुम्हें।।7।।