।। प्रतिमाधारियों का प्रतिक्रमण ।।

आराधना पाठ (हरिगीतिका)

हे देव निज अरहंत चाहूं, सिद्ध का सुमिरन करौं।
मैं सुर गुरू मुनि तीन पद ये, साधु पद हिरदय धरौं।।
मैं धर्म करूणामय जु चाहूं, जहां हिंसा रंच ना।
मैं शास्त्र ज्ञान विराग चाहूं, जासु में परपंच ना।।
चैबीस श्री जिनदेव चाहूं, और देव न मन बसैं।
जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूं, वंदिते पातक नसैं।।
गिरनार शिखर सम्मेद चाहूं, चम्पापुरी पावापुरी,
कैलाश श्री जिनधाम चाहूं, भजत भाजै भ्रम जुरी।।
नव तत्व का सरधान चाहूं, और तत्व न मन धरौं।
षट् द्रव्य परजाय चाहूं, ठीक तासौं भय हरों।।
पूजा परम जिनराज चाहूं, और देव न चाहूं कदा।
तिहूंकाल की मैं जाप चाहूं, पाप नहिं लगे कदा।।
सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र, सदा चाहूं भाव सों।
दशलक्षणी मैं धर्म चाहूं, महा हर्ष उछाव सों।।
सोलह जु कारण दुख निवारण, सदा चाहूं प्रीति सों।
मैं नित अठाई पर्व चाहूं, महामंगल रीति सों।।
अनुयोग चारों सदा चाहूं, आदि अन्त निवाह सों।
पाये धरम के चार चाहूं, अधिक चित्त उछाह सों।।
मैं दान चारों सदा चाहूं, भुवनवशि लाहो लहूं।
आराधना मैं चार चाहूं, अन्त में ये ही गहूं।।
भावना बारह जु भाऊं, भाव निरमल होत हैं।
मैं व्रत जु बारह सदा चाहूं, त्याग भाव उद्योत है।।
प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूं, ध्यान आसन सोहना।
वसुकर्म तैं मैं दुटा चाहूं, शिव लहूं जहं मोहना।।
मैं साधुजन को संग चाहूं, प्रीति तिनही सों करौं।
मैं पर्व के उवपस चाहूं, आरंभ में सब परिहरौं।।
इस दुखद पंचमकाल माहीं, सुकुल श्रावक मैं पायों।
अरू महाव्रत धरि सको नाहीं, निबल तन मैंने पायो।।
आराधना उत्तम सदा चाहूं, सुनो जिनराय जी।
तुम कृपानाथ अनाथ ‘द्यानत’, दया करना न्याय जी।।
वसुकर्म नाश विकास, ज्ञान प्रकाश मुझको दीजिए।
करि सुगति गमन समाधिमरन, सुभक्ति चरनन दीजिये।।
आत्म कीर्तन (मनोहर वर्णी कृत)
हूं स्वतंत्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता दृष्टा आतमराम।टेक।
मैं वह हूं जो हैं भगवान, जो मैं हूं वह हैं भगवान।।
अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहं राग वितान।।1।
मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्तिसुख ज्ञान निधान।
किन्तु आश वश खोया ज्ञान, बना भिखरी निपट अजान।2।
सुख दुख दाता कोई न आन, मोह राग रूष दुख की खान।
निज को निज, पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान।।3।
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