पूर्वकृत दोषों का मन, वचन, काय से कृत कारित, अनुमोदना से विमोचन करना पश्चाताप करना, प्रतिक्रमण कहलाता है इससे अनात्मभाव विल्य होकर आत्म भाव की जागृति होती है प्रमाद जन्य दोषों से निवृति होकर आत्मस्वरूप में स्थिरता की क्रिया को भी प्रतिक्रमण कहते हैं।
इसमें शरीर, वस्त्र, द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव को शुद्ध कर मन स्थिर करके पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर खडत्रे होकर सर्व बाहरी परिग्रह की ममता के त्याग स्व प्रतिज्ञा लेवें।
प्रतिज्ञान की विधि - हे भगवान दो घड़ी (जघन्य) चार घड़ी (मध्यम) और छः घड़ी (उत्कृष्ट) का समय आत्म चिंतन निज दोषावलोकन तथा जिनेन्द्र गुणानुवाद में ही व्यतीत करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा कर तीन आर्वत और एक शिरोनति कर तीन बार नमोस्तु कहना चाहिए और फिर सत्ताईस श्वासोच्छवास यानी नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ना चाहिए।
आसन - प्रतिक्रमण करते समय तीन आसनों का उपयोग किया जाताहै। पद्मासन, खड़गासन, अर्ध पद्मासन। जिस आसन से प्रतिक्रमण शुरू किया जाता है उस आसन को प्रतिक्रमण की समाप्ति तक नहीं बदलना चाहिए।
प्रतिक्रमण शांत चित्त से शुद्ध उच्चारण पूर्वक करना चाहिए। प्रतिक्रमण का काल पूरण हो जाने पर मन, वचन, काय से प्रमाद जन्य बत्तीस दोषों में से कोई दोष लगने की संभावना से अरहंत या सिद्ध भगवान को क्षमा मांगते हुए प्रायश्चित लेना चाहिए।
क्षमा विधि - ली हुई प्रतिज्ञा के प्रतिकूल जाने, अनजाने - मन वचन, काय, औ कृत, कारित, अनुमोदना से यदि प्रमादजन्य कोई दोष मेरे लग गया हो तो हे भगवान मैं उसकी क्षमा चाहता हूं नौ बार णमोकार मंत्र पढत्रकर कायोत्सर्ग कर प्रतिक्रमण समाप्त करना चाहिए।
कायोत्सर्ग की विधि - देवसियक प्रतिक्रमण करते समय 108 श्वासोच्छवास 36 बार णमोकार मंत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए। रात्रिक प्रतिक्रमण करते समय 54 श्वासोच्छवास 18 बार णमोकार मंत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए। पाक्षिक प्रतिक्रमण करते समय 300 श्वाोच्छवास 100 बार णमोकार मंत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करते समय 400 श्वासोच्छवास 134 बार णमोकार मंत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए।
सावंतसरिक प्रतिक्रमण करते समय 500 श्वासोच्छवास 167 बार णमोकार मंत्र पढ़कर कायोत्सर्ग करना चाहिए।
प्रतिक्रमण का फल - प्रतिक्रमण द्वारा पूर्व संचित कर्मों की स्थिति और अनुभाग मंद होता है और अशुभ प्रकृतियों का शुभ प्रकृतियों में संक्रमण होता है।
यह प्रतिक्रमण सकल व्रति मुनिराज एवं देशव्रति श्रावक तो नियम से करते ही हैं किंतु यह प्रतिक्रमण जीव के संसार के प्रति उदासीन होने के कारण है। अतः प्रत्येक अव्रति सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि को भी यह प्रतिक्रमण करना चाहिए जिससे सभी को लाभ होता है।
अर्थ - प्रमाद से जीवों के जो अनेक दोष उत्पन्न हुआ करते हैं, वे प्रतिक्रमण करने से दूर हो जाते हैं। इसलिए मैं (ग्रंथकत्र्ता) गृहस्थ श्रावकों को विशेष परिज्ञान कराने के लिए नाना प्रकार के सांसारिक पापों को नष्ट करने वाले ‘ प्रतिक्रमण ’ को कहता हूं।
अर्थ - सब जीवों का साम्य भाव धारकरके शुभ भावनापूर्ण संयम पालते हुए, आर्त रौद्र का त्याग प्रतिक्रमण कहलाता है।
अर्थ - हे जिनन्द्र! मैं पापी, दुष्ट, मंद बुद्धि, माया चोरी और लोभी हूं। मैंने राग द्वेष युक्त मन से जो बहुत सा पाप संचय किया है उसे हे त्रैलोक्यनाथ! मैं आपके पादमूल में रहकर आत्मनिंदापूर्वक छोड़ता हूं ( प्रतिक्रमण करता हूं) क्योंकि अब मेरी सन्मार्ग पर चलने की उत्कृष्ट भावना हुई है।
अर्थ - मैं सर्व जीवों पर क्षमा करता हूं। सर्व जीव मुझ पर भी क्षमा करें। मेरी समस्त प्राणिमात्र से मित्रता है, मुझे किसी से भी बैर नहीं है।
अर्थ - मैं राग, द्वेष दीनता, उत्सुकता, भय, शोक, रति, अरित आदि सर्व वैभाविक भावों का त्याग करता हूं।
अर्थ - हाय! हाय! मैंने दुष्कर्म किए, मैंने दुष्ट कर्मों का बार-बार चिंतवन किया, मैंने दुष्ट मर्मभेदक वचन कहे, इस प्रकार मन, वचन और काय की दुष्टता से मैंने अत्यंत कुत्सित कर्म किये। उन कार्यों का अब मुझे अत्यंत पश्चाताप है।
अर्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से मैंने कभी किसी की असुहानी निंदा, गर्हा की हो तो मैं उसका मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण करता हूं।
अर्थ - यदि मैंने एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्रिकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों को स्वयं कष्ट दिया हो, अन्य से दिलाया हो, कष्ट पहुंचाने वालों के कार्यों में अनुमोदना की हो तथा उक्त जीवों का स्वयं संताप दिया हो, दूसरे से संताप दिलाया हो व अन्य को संतापित करने में अनुमोदना की हो व प्राणियों के अंगोपांग का छेदन किया हो, कराया हो और करने में भला माना हो (सहयोग दिया हो) तो सर्व प्रकार के मेरे पाप मिथ्या (विनष्ट) हों।