वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपकेशगच्छ एक ऐसा गच्छ है जो अपने परम्परा को सीधे पार्श्वनाथ से जोड़ता है। उसकी पट्टावली के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ के प्रथम पट्टधर गणधर शुभदत्त हुए। ये पार्श्वनाथ के निर्वाण के चौबीस वर्ष पश्चात् तक आचार्य पद पर रहे। आचार्य शुभदत्त के पट्टधर आर्य हरिदत्त हुए। इनका समय पार्श्व निर्वाण सम्वत् २४ से ९४ तक माना जाता है। इनके द्वारा लोहित्याचार्य को जैन धर्म में दीक्षित करने सम्बन्धी .अनुश्रुति प्रचलित है। आर्य हरिदत्त के पट्टधर आर्य समुद्र हुए। आर्य समुद्र का काल पाव निर्वाण सम्वत् ९४ से १६६ तक माना जाता है। इस प्रकार ये इकहत्तर वर्ष तक आचार्य पद पर रहे । इनके पश्चात् आर्य केशी श्रमण पाश्र्वापत्य परम्परा के आचार्य हुए। पट्टावली के अनुसार इनका समय पार्श्व निर्वाण सम्वत् १६६ से २५० तक माना जाता है। आगम साहित्य में उपलब्ध सूचना के अनुसार आर्य केशी भगवान् महावीर के समकालीन थे। पट्टावली में उपलब्ध इन सूचनाओं के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना अपेक्षित है। जहां तक आर्य केशी का संबंध है उनकी ऐतिहासिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि उत्तराध्ययन और राजप्रश्नीय यह दो आगम ग्रन्थ उनके अस्तित्व के संबंध में हमें स्पष्ट सूचनायें देते हैं। जहां तक आर्य शुभदत्त, आर्य हरिदत्त और आर्य समुद्र की ऐतिहासिकता का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में थोड़े विचार की आवश्यकता अवश्य है कल्पसूत्र और समवायाङ्ग के अनुसार पार्श्व के प्रथम शिष्य आर्य दिन हैं। जबकि इन्हीं ग्रन्थों में पार्श्व के प्रथम गणधर को शुभ कहा गया है। यदि हम प्रथम गणधर का पूरा नाम शुभदत्त मानें तो आर्य दिन के साथ उसकी सङ्गति यह कह कर बैठाई जा सकती है कि संक्षेपीकरण में आर्य शुभदत्त का आर्यदत्त ( अज्ज दिन) रह गया हो। हेमविजय गणि ने पार्श्वचरित्र में प्रथम गणधर का नाम आर्यदत्त ही सूचित किया है। अतः पार्श्व की आचार्य परम्परा में प्रथम पट्टधर के रूप में आर्य शुभदत्त को स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु आर्य शुभदत्त का जो नेतृत्वकाल २४ वर्ष माना जाता है वह विवादास्पद लगता है। इतना निश्चित है कि पार्श्व ने उन्हें अपनी तीस वर्ष की आयु में दीक्षित करके गणधर बनाया था। यदि हम गणधर बनाते समय उनकी आयु को पच्चीस वर्ष भी मानें तो पार्श्व के निर्वाण के समय उनकी आयु ९५ वर्ष से कम नहीं रही होगी। पुनः २५ वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को गणधर जैसे महत्वपूर्ण पद पर स्थापित कर देना सम्भव नहीं लगता । सामान्य विश्वास के अनुसार भी उस समय की अधिकतम आयु १०० वर्ष मानें तो इनका आचार्य काल ५ वर्ष से अधिक नहीं होता उनकी आयु लगभग १२० वर्ष मानने पर ही उनके आचार्य काल को २४ वर्ष माना जा सकता है। जहां तक आर्य हरिदत्त और आर्य समुद्र का प्रश्न है उनकी ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में साक्ष्यों के अभाव में निश्चित रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है । अतः इनकी ऐतिहासिकता सन्दिग्ध ही लगती है, पुनः इन दोनों आचार्यों का आचायत्व काल क्रमशः ७०, ७२ वर्ष माना गया है। यह भी विचारणीय अवश्य है । इसी प्रकार आर्य केशी के ८४ वर्ष के आचार्यत्व काल पर भी प्रश्न चिह्न लगाया जा सकता है।
आचार्य केशी का समय पार्श्व के निर्वाण के २५० वर्ष पश्चात् बतलाया गया है, यह भी विचारणीय है। पार्व और महावीर के बीच २५० वर्ष का अन्तर आगमों में उल्लिखित है किन्तु यह २५० वर्ष का अन्तर पार्श्व के निर्वाण और महावीर के जन्म के बीच माना जाये या पाव के जन्म और महावीर के निर्वाण के बीच माना जाये अथवा पार्श्व के निर्वाण और महावीर के संघ संस्थापन के बीच माना जाय, यह विचारणीय है। पनः यह अन्तर पार्व और महावीर दोनों के जन्म या निर्वाण के बीच भी माना जा सकता है। पार्श्व के निर्वाण और . महावीर के जन्म के बीच २५० वर्ष का काल मानने पर केशी महावीर के समकालीन होना सिद्ध नहीं होते यदि हम केशी को महावीर का समकालीन मानते हैं, जो कि आगम सम्मत भी है, तो हमें पार्श्व और महावीर के बीच जो २५० वर्ष का अन्तर बताया जाता है, वह दोनों के निर्वाण के बीच मानना होगा; क्योंकि कल्पसूत्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि महावीर के निर्वाण के ९८० वर्ष बाद और पाश्र्व के निर्वाण के १२१० वर्ष पश्चात् यह ग्रन्थ लिखा गया । मेरी अपनी मान्यता तो यह है कि यदि पार्श्व और महावीर के बीच कुल ४ ही आचार्य हुए उनमें भी आचार्य आर्य केशी महावीर के समसामयिक हैं और आर्य शुभदत्त पार्श्व के समसामयिक हैं। अतः इन दोनों के बीच केवल दो ही आचार्य शेष रहते हैं। अतः पार्श्व के निर्वाण और महावीर के संघ स्थापना के बीच १५० वर्ष से अधिक का अन्तर नहीं रहा होगा यद्यपि इस कथन का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है फिर भी यह कल्पना अतार्किक नहीं लगती।
चाहे हम उपकेशगच्छ को पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित माने किन्तु उसकी पट्टावली विवादास्पद अवश्य लगती है उसका एक कारण तो यह है कि उसमें चार ही आचार्यों के नाम को दोहराया गया है। यद्यपि पूर्व मध्यकाल में नामों को दोहराने की परम्परा रही है किन्तु यह परम्परा महावीर के समय या ईस्वी पूर्व में भी थी इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
संवत् १६५५ में रचित उपकेशगच्छीय पट्टावली, केशी श्रमण के पश्चात् पांचवें पट्ट पर स्वयंप्रभसूरि का उल्लेख करती है तथा यह बताती है कि स्वयंप्रभसूरि के शिष्य बुद्धकीति से बौद्धधर्म प्रारम्भ हुआ। किन्तु हमारी दृष्टि में यह एक काल्पनिक अवधारणा ही है। यह तो संभव है कि पार्श्व की परम्परा से बुद्ध का कुछ परिचय रहा हो, किन्तु बुद्ध को स्वयंप्रभसूरि का शिष्य बताना एक कल्पना ही है । यह भी माना जाता है कि स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर में धर्मोपदेश कर नब्बे हजार परिवारों को जैनधर्म में दीक्षित किया था। इन्हीं से श्रीमाल जाति का प्रारम्भ हुआ। आज इस सम्बन्ध में कोई भी साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है । श्रीमालनगर की प्राचीनता भी पुरातात्त्विक प्रमाणों से ई० पूर्व छठी शताब्दी में सिद्ध नहीं होती, अतः यह केवल परम्परागत विश्वास ही माना जा सकता है। उपकेशगच्छपट्टावली के अनुसार स्वयंप्रभसूरि के पश्चात् छठे पट्ट पर रत्नप्रभसूरि हुए। इनके द्वारा उपकेशपुर एवं कोरण्टपुर में भगवान् महावीर की प्रतिमा स्थापित करने के उल्लेख मिलते हैं। पट्टावली के विवरणानुसार ये दोनों मन्दिर वीर निर्वाण के ७० वर्ष पश्चात् निर्मित हुए थे किन्तु आज इस संदर्भ में भी हमें कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो पा रहा है । पट्टावली में रत्नप्रभसूरि के द्वारा भी राजस्थान में लगभग एक लाख चालीस हजार लोगों को जैनधर्म में दीक्षित करने का उल्लेख प्राप्त होता है । यद्यपि इस सम्बन्ध में पुष्ट प्रामाणिकता का अभाव है परन्तु इतना अवश्य माना जा सकता है कि इन्होंने राजस्थान में विहार करके वहां लोगों को जैनधर्म में दीक्षित किया होगा। इनका स्वर्गवास वीर निर्वाण संवत् ८४ में माना जाता है। राजस्थान में ई० पू० पाँचवीं शताब्दी में जैनधर्म की उपस्थिति .पुरातात्त्विक प्रमाणों से सिद्ध होती है । वीर निर्वाण के ८४ वर्ष पश्चात् का एक अभिलेख बाडली (राजस्थान) से प्राप्त होता है जो इस तथ्य को प्रामाणित कर देता है। यद्यपि यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि रत्नप्रभसूरि ने पार्वापत्य परम्परा के होकर भी पार्श्व के स्थान पर महावीर के मंदिरों का निर्माण क्यों कराया ? इस सूचना से ऐसा लगता है कि केशी के महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो जाने के पश्चात् उनके शिष्य स्वयंप्रभ और प्रशिष्य रत्नप्रभ भी अपने को महावीर की परम्परा से ही सम्बन्धित मानते रहे होंगे । ई० पू० ५वीं शताब्दी में पार्श्व की कोई स्वतंत्र परम्परा चल रही थी, इसका हमें कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। हमें केवल परम्परागत मान्यता पर ही विश्वास करना होता है।
यह विश्वास किया जाता है कि रत्नप्रभसूरि के समय में ही उपकेशगच्छ से कोरण्टगच्छ निकला। किन्तु उपकेशगच्छ और कोरण्टगच्छ ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में अस्तित्ववान् थे, इसका भी कोई साहित्यिक या पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । उपकेशगच्छ के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्य वि० सं० १०११ का तथा कोरण्टगच्छ का वि० सं० ११०२ का उपलब्ध होता है । जैन परम्परा के गण, कुल एवं शाखा आदि के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली, नंदीसूत्र पट्टावली तथा मथुरा के अभिलेखों में प्राप्त होते हैं । इन अभिलेखों में कहीं भी इन दोनों गच्छों का नाम नहीं आता है। उपकेशगच्छीय पट्टावली की मान्यतानुसार रत्नप्रभ पार्श्व की परम्परा के सातवें आचार्य थे। उनके पट्ट पर आठवें यक्षदेव आचार्य हुए और इन्हें मणिभद्र यक्ष का प्रतिबोधक भी बताया गया है। किन्तु यह एक विश्वास ही कहा जा सकता है। यक्षदेवाचार्य के पश्चात् नवें पट्ट पर कक्कसूरि, दसवें पट्ट पर देवगुप्त, ११वें पर सिद्धसूरि और १२वें पर रत्नप्रभ और १३ वें पर पुनः यक्षदेवसुरि हुए, यह उल्लेख मिलता है। किन्तु इस सम्बन्ध में न तो कोई साहित्यिक प्रमाण है और न ही कोई पुरातात्त्विक साक्ष्य है। उपकेशगच्छ पट्टावली वि० सं० १६५५ में निर्मित है, अतः प्राचीन साक्ष्यों के सम्बन्ध में इसे पूर्णतः प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। उक्त पट्टावली के अनुसार चौदहवें पट्ट पर पुनः कक्कसूरि हुए। यह माना जाता है कि इनके द्वारा ओसवाल वंश में तांतहड, बापणा, कर्णाट, मोटाक्ष, कुलहट, विरिहट, सूचन्ति, चारवेडिया, चींचट, कुम्भट आदि गोत्र स्थापित हुए। इनका समय वीर निर्वाण के तीन सौ तीन वर्ष पश्चात् बताया गया है। इनके पश्चात् पंद्रहवें पट्ट पर देवगुप्त, १६वें पर सिद्धसूरि और १७वें पर रत्नप्रभसूरि के होने के उल्लेख मिलते हैं । इनके सम्बन्ध में पट्टावली में भी अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं है । १८वें पट्ट पर पुनः यक्षदेवसूरि के होने का उल्लेख है । इनका समय वीर निर्वाण के ५८५ वर्ष पश्चात् बताया गया है ।
इनके द्वारा बारह वर्षीय दुष्काल के पश्चात् महावीर की परम्परा में हुए आर्यवज्र के शिष्य वज्रसेन के निधन के पश्चात् उनकी परम्परा में उनके शिष्यों की चार शाखायें स्थापित करने का उल्लेख मिलता है । यद्यपि इन चार शाखाओं का उल्लेख कल्पसूत्र पट्टावली में है किन्तु यह यक्षदेवसूरि द्वारा स्थापित हुई थी ऐसा उसमें उल्लेख नहीं है । यक्षदेवसूरि के पश्चात् १९वें पट्टपर कक्कसूरि, २०वें पर देवगुप्त, २१वें पर सिद्धसूरि, २२वें पर रत्नप्रभसूरि, २३वें पर यक्षदेव, २४वें पर पुनः कक्कसूरि, २५वें पर देवगुप्तसूरि, २६वें पर सिद्धसूरि, २७वें रत्नप्रभसूरि, २८वें पर यक्षदेवसूरि, २९वें पर पुनः कक्कसूरि, ३०वें पर देवगुप्त, ३१वें पर सिद्धसूरि, ३२वें पर रत्नप्रभसूरि, ३३वें पर यक्षदेवसूरि, ३४वें पर पुनः कक्कसूरि, ३५वें पर देवगुप्त तथा ३६वें पर सिद्धसूरि हुए। इस प्रकार ८३ पट्ट से लेकर ३६३ पट्ट तक कक्कसूरि, देवगुप्तसूरि, सिद्धसूरि, रत्नप्रभसूरि और यक्षदेवसूरि इन पांच नामों की ही पुनरावृत्ति होती रही है । इन आचार्यों के सम्बन्ध में पट्टावली भी नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी नहीं देती है । इसके पश्चात् हम देखते हैं कि पट्टावली में केवल तीन नामों कक्कसूरि, देवगुप्त और सिद्धसूरि की ही पुनरावृत्ति होती है । फलतः ३७वें पट्ट पर कक्कसूरि, ३८वें पर देवगुप्त, ३९वें पर सिद्धसूरि, ४०वें पट्ट पर पुनः कक्कसूरि, ४१वें पर देवगुप्तसूरि, ४२वें पर सिद्धसूरि के होने का उल्लेख है। ४१वें पट्टधर देवगुप्त का समय वि० सं० ९९५ ; बताया गया है । उपकेशगच्छीय पट्टावली में सर्वप्रथम यहीं से ऐतिहासिक संकेत उपलब्ध होने लगते हैं। पट्टावली इनके शिथिलाचारी होने का भी उल्लेख करती है तथा यह बताती है कि देवगुप्तसूरि के शिथिलाचारी होने पर संघ ने इनके पट्ट पर सिद्धसूरि को स्थापित किया। सिद्धसूरि के पश्चात् ४३वें पट्टधर कक्कसूरि हुये। इन्हें "पंचप्रमाण'' नामक ग्रन्थ का कर्ता बताया गया है। ४४वें पट्टधर देवगुप्त हुए। इनका काल विक्रम सम्वत् १०७२ बताया गया है। ४५३ पट्टधर नवपदप्रकरणस्वोपज्ञटीका के कर्ता सिद्धसूरि और ४६वें पट्टधर पुनः कक्कसूरि के होने के उल्लेख मिलते हैं। इन कक्कसूरि के सम्बन्ध में १०७८ ई० का एक अभिलेख प्राप्त होता है । ४७वे पट्ट पर पुनः देवगुप्त, ४८वें और ४९वें पर पुनः कक्कसूरि के होने का उल्लेख है। इनके पश्चात् ५०वें पट्ट पर देवगुप्तसूरि हुए इनका समय संवत् ११०८ बताया गया है। कहा जाता है कि इन्हें भिन्नमाल नगर में ६ लाख मुद्रा खर्च करके आचार्य पद पर महोत्सवपूर्वक स्थापित किया गया था। यहां विचारणीय तथ्य यह है कि ४४वें पट्टधर देवगुप्तसूरि का समय वि० सं० १०७२ वताया गया है और ४५वें पट्टधर कक्कसूरि का १०७८ का अभिलेख भी प्राप्त होता है। १०७८ वि० सं० से लेकर ११०८ तक के ३० वर्ष के अल्प समय में चार आचार्यों का होना संदेहास्पद लगता है । संभवतः पट्टावलीकार ने तीनों नाम पुनः दोहरा दिये हैं । ५१वें पट्टधर सिद्धसूरि, ५२वें पट्टधर कक्कसूरि का समय वि० सं० १२५४ बताया गया है । ५३वें पट्टपर देवगुप्तसूरि, ५४वें पर सिद्धसूरि, ५५वें पर पुनः कक्कसूरि हुए। इन ५५३ पट्टधर का समय पट्टावली के अनुसार वि० सं० १२५२ है। इनके संबन्ध में १२५९ का अभिलेख भी मिलता है, इससे यह सिद्ध होता है कि यह एक ऐतिहासिक आचार्य रहे होंगे। ५६वें देवगुप्त, ५७वें सिद्धसूरि, ५८वें कक्कसूरि, ५९वें देवगुप्त, ६०वें सिद्धसूरि, ६१वें कक्कसूरि, ६२वें देवगुप्त, ६३वें सिद्धसेन, ६४वें कक्कसूरि, ६५वें देवगुप्तसूरि, ६६वें सिद्धसूरि हुए। इस प्रकार वि० सं० १२५२ से १३३० के मध्य लगभग ७८ वर्ष की अवधि में दस आचार्यों के होने के उल्लेख हैं । यह विवरण भी संदेहास्पद ही लगता है । लगता है कि इसमें दो बार इन तीनों नामों को पुनः दुहरा दिया गया है। अधिकतम ७८ वर्ष में ३ आचार्यों को होना चाहिए। ६६वें पट्टधर सिद्धसूरि के वि० सं० १३४५ का एक अभिलेख भी मिलता है। सिद्धसूरि का एक अभिलेख १३८५ का भी प्राप्त होता है।
पट्टावली और अभिलेखीय आधारों पर ६५-६६वें आचार्य का काल ५५-५६ वर्ष आता है । यद्यपि ६७वें पट्टधर कक्कसूरि का एक अभिलेख १३८० का उपलब्ध है। इससे ऐसा लगता है कि सिद्धसूरि ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में ही कक्कसूरि को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया था और लगभग १४ वर्ष की अवधि तक दोनों ही उनके साथ आचार्य पद पर रहे होंगे।
६७वें पट्टधर कक्कसूरि का आचार्यपद महोत्सव शाह जागर के द्वारा वि० सं० १३७८ में हुआ था इनके सम्बन्ध में वि० सं० १३८० से १४०५ तक के अनेक अभिलेख मिलते हैं। पट्टावली के अनुसार ६८वें पट्टधर देवगुप्तसूरि हुए। इनका आचार्य पद महोत्सव ५ हजार स्वर्णमुद्रायें खर्च करके सारंगधर नामक श्रावक ने दिल्ली नगर में वि० सं० १४०९ में किया था। इनके सम्बन्ध में अभिलेखीय साक्ष्य वि० सं० १४३० का मिलता है।
६९३ पट्टधर सिद्धसूरि हुए। पट्टावली के अनुसार वि० सं० १४७५ में इनका आचार्यपद महोत्सव किया गया । यद्यपि इनके संबंध में अभिलेखीय साक्ष्य वि०सं० १४४५ का मिलता है । यह एक विवादास्पद स्थिति है । क्योंकि देवगुप्तसूरि का आचार्यपद महोत्सव पट्टावली के अनुसार १४०९ में है और उनका अभिलेखीय साक्ष्य भी १४३० का है। अतः यह स्वाभाविक प्रतीत होता है कि वि० सं० १४५५ के लगभग सिद्धसूरि हुए होंगे। पट्टावली १४७५ वि० सं० में होने वाले जिस सिद्धसरि का उल्लेख करती है, वे संभवतः ७२वें पट्टधर होंगे। हमें ऐसा लगता है कि पट्टावली में देवगुप्त सूरि के पश्चात् सिद्धसूरि कक्कसूरि और देवगुप्तसूरि की एक पुनरावृत्ति को छोड़ दिया गया है, क्योंकि ७१वें पट्टधर देवगुप्तसूरि के सम्बन्ध में हमें १४६८ से १४९७ तक के अनेक अभिलेख उपलब्ध होते हैं। वि० सं० १४३० से वि सं० १४९४ तक की अवधि में हमें एक ही साथ देवगुप्त एवं सिद्धसरि के अनेक अभिलेखीय साक्ष्य मिलते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इस अवधि के बीच तीनों नामों की एक पुनरावृत्ति और हुई होगी। पट्टावली के अनुसार ७२वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए । पट्टावली इनका काल वि० सं० १५६५ मानती है । हमें इनके सम्बन्ध में १५६६ से ७६ तक के अनेक अभिलेख उपलब्ध होते हैं।
७३वें पट्टधर कक्कसूरि हुए । पट्टावली के अनुसार इन्हें वि० सं० १५१९ में जोधपुर नगर में आचार्यपद प्रदान किया गया। इनके सम्बन्ध में कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।
७४वें पट्टधर देवगुप्तसूरि का पाटमहोत्सव वि० सं० १६३१ में मंत्री सहसवीर के पुत्र देदागर ने किया। इनके सम्बन्ध में १६३४ का एक अभिलेख भी उपलब्ध होता है ।
७५वें पट्टधर सिद्धसूरि का पाटमहोत्सव विक्रमपुर नगर में वि० सं० १६५५ में महामंत्री ठाकुरसिंह ने किया। इनके सम्बन्ध में वि० सं० १६५९ का अभिलेखीय साक्ष्य भी उपलब्ध है।
उपकेशगच्छ की जिस पट्टावली को हमने आधार बनाया है, वह इन्हीं के काल में बनी। यद्यपि उसमें इनके बाद भी निम्न नाम जोड़े गये।
७६वें पट्टधर पुनः कक्कसूरि हुए। इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १६८९ में मंत्री ठाकुरसिंह की पुत्रवधू साहिबदे द्वारा हुआ।
पट्टावली के सूचनानुसार ७७वें पट्टधर देवगुप्तसूरि हुए, इन्हें वि० सं० १७२७ में आचार्यपद प्रदान किया गया।
७८वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए । इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १७६७ में भगतसिंह ने किया।
७९वें पट्टधर पुनः कक्कसूरि हुए । इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १७८३ में मंत्री दौलतराम ने किया।
८०वें पट्टधर देवगुप्तरि हुए । इनको आचार्यपद पर १८०८ में प्रतिष्ठित किया गया।
८१वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए। इनका पट्टाभिषेक खुशालचन्द ने वि० सं० १८४७ में किया।
८२वें पट्टधर कक्कसूरि हुए । इनका पाटमहोत्सव वि० सं० १८९१ में बीकानेर में हुआ।
८३ पट्टधर देवगुप्तसूरि हुए । इनका पट्टाभिषेक वि० सं० १९०५ में फलौदी नगर के वैद्य मुहता के परिवारों द्वारा किया गया।
८४वें पट्टधर सिद्धसूरि हुए। इनका पट्टाभिषेक वैद्य मुहता गोत्र के ठाकुर श्री हरिसिंह जी के द्वारा वि० सं० १९३५ में किया गया। इनके पश्चात् इस परम्परा में वर्तमान काल तक कुछ और आचार्य हुए होंगे जिनकी सूचना हमें नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उपकेशगच्छ, जो स्वयं को पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बद्ध मानता है, पार्श्व से लेकर २० वीं शती तक अपनी आचार्य परम्परा को प्रस्तुत करता है पर इस पट्टावली के ध्यान पूर्वक अध्ययन से पता चलता है कि आर्यकेशी के पश्चात् ११वीं शती के मध्य तक हमें इस परम्परा के सम्बन्ध में अनुश्रुति से नामों की पुनरावृत्ति के अतिरिक्त ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य नहीं मिलते हैं। अतः हमें अन्धकार में ही रहना पड़ता है । यद्यपि ११ वी से २० वीं शती तक इस गच्छ की जो पट्टावली उपलब्ध है उसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। उपकेशगच्छ के सन्दर्भ में प्राचीनतम स्पट अभिलेख वि० सं० १०११ से प्राप्त होने लगता है । अर्थात् ११ वीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर १७ वीं शताब्दी तक की पाषाण एवं धातु प्रतिमा तथा मंदिरों से उपकेशगच्छ के अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। अतः ११ वीं से २० वीं शती तक इसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है यद्यपि इससे पूर्व के १५०० वर्ष का काल अन्धकारपूर्ण ही है। यद्यपि उपकेशगच्छ स्वयं को पार्श्व की परम्परा से जोड़ता है फिर भी हमें इस गच्छ के आचारादि में कोई ऐसी विशिष्ट परम्परा नहीं मिलती है जो उसे अन्य श्वेताम्बर गच्छों से स्पष्ट रूप से अलग कर सके । सम्भव यह है कि आर्यकेशी आदि के द्वारा महावीर के संघ में विलीन होने पर इन्होंने अपनी विशिष्ट पहचान तो खो दी किन्तु अपने को पार्श्व की परम्परा से जोड़े रखने की अनुश्र ति ङ्केथावत जीवित रखी । अतः हम यह सह समाते हैं कि पाश्र्व की परंपरा २० वीं शती तक जीवित रही है चाहे उसकी अपनी विशिष्ट पहचान केशी आदि पाश्र्वापत्य आचार्यों के महावीर के संघ में विलीन होने के पश्चात् समाप्त हो गयी हो।