।। पाश्र्वापत्य और पाश्वस्थ ।।

पार्श्वनाथ की परम्परा के सम्बन्ध में प्राचीन और प्रामाणिक जानकारी हमें अर्धमागधी आगम साहित्य के अतिरिक्त अन्य किन्हीं स्रोतों से प्राप्त नहीं होती है । पालि त्रिपिटक साहित्य में सच्चक, वप्प आदि कुछ व्यक्तियों का परिचय उपलब्ध होता है किन्तु वहाँ उन्हें पार्श्व के उपासक के रूप में चित्रित नहीं किया गया है, अपितु निग्रन्थों के अनुयायी के रूप में चित्रित किया गया है । पापित्यीय श्रमण भी निर्ग्रन्थ कहलाते थे, मात्र इसी आधार पर हम उन्हें पार्श्वनाथ की परम्परा का मान सकते हैं। पार्श्व के अनुयायियों के लिए आगम साहित्य में हमें 'पासावच्चिज्ज' (पाश्र्वापत्यीय) और पासत्थ (पार्श्वस्थ) इन दो शब्दों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि दोनों ही शब्दों का अर्थ 'पार्श्व के अनुयायी हो सकता है, किन्तु हम यह देखते हैं कि जहाँ पार्श्व के अनुयायियों को सम्मानजनक रूप में प्रस्तुत करने का प्रश्न आया, वहाँ 'पासावच्चिज्ज' शब्द का प्रयोग हुआ और जहाँ उन्हें हीन रूप में प्रस्तुत करने का प्रसङ्ग आया है वहां उनके लिये 'पासत्थ' शब्द का प्रयोग हुआ है 'पासत्थ' शब्द का संस्कृत रूप पार्श्वस्थ होता है जिसका सामान्य अर्थ 'पार्ता के संघ में स्थित' ऐसा हम कर सकते हैं किन्तु जैन परंपरा में आगमिक काल से ही पार्श्वस्थ (पासत्थ) शब्द शिथिलाचारी साधुओं के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। सूत्रकृतांग में 'पासत्थ' शब्द शिथिलाचारी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । आज जैन श्रमण के लिये सबसे अपमानजनक शब्द यदि कोई है तो वह उसे 'पासत्था' कहना है। व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से प्राकृत पासत्थ का संस्कृत रूप 'पाशस्थ' अर्थात् पाश में बंधा हुआ मानकर हम उसका अर्थ शिथिलाचारी या दुराचारी भी कर सकते हैं । किन्तु उसका संस्कृत रूप 'पार्श्वस्थ' मानने पर उसका स्पष्ट अर्थ दुराचारी य शिथिलाचारी श्रमण ऐसा नहीं होता है। पार्श्वस्थ शब्द का तात्पर्य मात्र पाश्र्व या बगल में स्थित होता है । यद्यपि 'पार्श्व में स्थित' होने का अर्थ कुछ हटकर भी हो सकता है। इसी आधार पर सामान्यतया पार्श्वस्थ का अर्थ सुविधावादी या शिथिलाचारी किया जाने लगा होगा।

उपलब्ध आगमिक आधारों से यह एक सुनिश्चित सत्य प्रतीत होता है कि पार्श्व की परंपरा के श्रमण महावीर के युग में अपने आचार नियमों में पर्याप्त रूप से सुविधाभोगी थे। अतः कठोर आचार मार्ग का पालन करने वाले महावीर के श्रमणों को वे शिथिलाचारी लगते होंगे और इसीलिये पार्श्वस्थ शब्द अपने मूल अर्थ को छोड़कर शिथिलाचारी श्रमण के लिए प्रयुक्त होने लगा।

चारित्रसार में कहा गया है कि जो मुनि वस्तिकाओं में रहते हैं, उपकरणों को ग्रहण करते हैं और मुनियों के समीप रहते हैं उन्हें पार्श्वस्थ कहते हैं । इस व्याख्या से यह तो स्पष्ट होता है कि जो श्रमणों के निकट रहते हैं वे पार्श्वस्थ हैं। साथ ही यह भी कि पार्श्वस्थों का आचार अन्य श्रमणों की अपेक्षा निम्न होता था । भगवतीआराधना और मूलाचार में पार्श्वस्थ को शिथिलाचारी मुनि के रूप में ही ग्रहण किया गया है। भगवतीआराधना में कहा गया है कि कुछ मुनि जब इन्द्रियरूपी चोरों से और कषायरूपी हिंसकों से तथा आत्मा के गुणों का घात करने वालों से पकड़े जाते हैं तो वे साधु का पद त्यागकर पार्श्वस्थों के पास चले जाते हैं । भगवतीआराधना और उसकी विजयोदया टीका में कहा गया है कि 'अतिचार रहित संयम का स्वरूप जानकर भी जो उसमें प्रवृत्ति नहीं करता है' किन्तु संयम मार्ग के समीप ही रहता है यद्यपि वह एकांत से असंयमी नहीं है परन्तु निरतिचार संयम का पालन भी नहीं करता है इसलिए उसे पार्श्वस्थ कहते हैं ? पुनः जो उत्पादन और एषणा दोष सहित आहार का ग्रहण करते हैं, एक ही वस्तिका में रहते हैं, एक ही संस्तर में सोते. हैं, एक ही क्षेत्र में निवास करते हैं, गृहस्थों के घर अपनी बैठक लगाते हैं, सूई-कैंची आदि वस्तुओं को ग्रहण करते हैं तथा सीना, धोना, रंगना आदि कार्यों में तत्पर रहते हैं ऐसे मुनियों को पार्श्वस्थ कहते हैं। पुनः जो अपने पास क्षार-चूर्ण, सोहाग-चूर्ण, नमक, घी वगैरह पदार्थ कारण न होने पर भी रखते हैं उन्हें पार्श्वस्थ कहा जाता है। भगवतीआराधना टीका की यह व्याख्या इस बात को ही स्पष्ट करती है मुनि आचार नियमों में ही जो शिथिल होते हैं वे पार्श्वस्थ कहे जाते हैं । यह स्पष्ट है कि पार्श्व की परंपरा के मुनि यह सब कार्य करते थे और महावीर के अनुयायी इन कार्यों को श्रमणआचार के अनुरूप नहीं मानते थे। इसी कारण आगे चल कर शिथिलाचारी मुनियों के अर्थ में ही पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग होने लगा।

किन्तु हमें यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि अर्धमागधी आगम साहित्य में जहाँ स्पष्ट रूप से पार्श्व की परंपरा के श्रमणों का निर्देश है वहाँ उन्हें 'पासत्थ (पार्श्वस्थ) नहीं कह कर पासावच्चिज्ज (पापित्यीय) ही कहा गया है। जबकि जहाँ शिथिलाचारी श्रमणों का उल्लेख है वहां सदैव पासत्थ शब्द का प्रयोग है। यद्यपि पुलाक, बकुश, कुशील आदि पांच प्रकार के निर्गन्थों की चर्चा में पार्श्वस्थ का उल्लेख नहीं है, किन्तु सूत्रकृतांग, भगवती एवं ज्ञाताधर्मकथा में पार्श्वस्थ, कुशील और स्वच्छन्द को पर्यायवाची बताया गया हम पार्श्वस्थ और पापित्य के बीच जो सम्बन्ध जोड़ रहे हैं वह मात्र काल्पनिक नहीं है। जब तक इस बात का कोई ठोस प्रमाण प्राप्त न हो कि पार्श्वस्थ और पार्वापत्य एक ही थे, तब तक दोनों को एक मानने का अत्यधिक आग्रह तो नहीं रखा जा सकता है। फिर भी पापित्यों के आचार सम्बन्धी शिथिल नियम हमें दोनों को एक मानने के लिए विवश करते हैं। पापित्यों और पार्श्वस्थों को एक दूसरे से सम्बन्धित मानने का हमारे पास एक ही आधार है वह ओर पार्श्व की शिष्यायें कहा गया है वहीं दूसरी ओर उनके शिथिलाचारी (पासत्थ) होने का भी उल्लेख है ।

पाश्र्वापत्य श्रमण-श्रमणियां और गृहस्थ उपासक-उपासिकाएं

श्वेताम्बर आगम साहित्य में हमें पार्श्व और उनके अनुयायियों के संबंध में अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं; जो अधिकांश ऐतिहासिक हैं ।

ज्ञातासूत्र में आमलकप्पा, श्रावस्ती, हस्तिनापुर, काम्पिल्य, वाराणसी, चम्पा, नागपुर, साकेत, अरक्खुरी, मथुरा आदि नगरों की अनेक स्त्रियों को पार्श्व द्वारा दीक्षित किये जाने का उल्लेख है। यद्यपि ये कथा-प्रसंग कल्पनात्मक होने से ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें पार्श्व के द्वारा दीक्षित इन सभी स्त्रियों का स्वर्ग की विभिन्न देवियों के रूप में उत्पन्न होकर वहाँ से महावीर के वन्दनार्थ आने के उल्लेख हैं तथा इसी सन्दर्भ में उनके पूर्व-जीवन की चर्चा की गयी है। इसके विपरीत आचारांग, सूत्रकृतांग, राजप्रश्नीय, उत्तराध्ययन आदि में पापित्यों के संबंध में जो तथ्यपरक सूचनाएं प्राप्त होती हैं उनकी ऐतिहासिकता प्रामाणिक लगती है । आचारांग में महावीर के माता-पिता को पार्श्व की परंपरा का अनुयायी कहा गया है। सूत्रकृतांग में उदकपेढाल नामक पापित्य श्रमण का उल्लेख है। उदकपेढाल संबंधी विवरण हमें ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक ही लगता है। उदकपेढाल का गौतम से त्रस शब्द के अर्थ और हिंसा के प्रत्याख्यान के स्वरूप के.संबंध में गम्भीर चर्चा करते हैं। इससे एक ओर पापित्यों की सैद्धान्तिक अवधारणाओं का पता चलता है तो दूसरी ओर यह भी ज्ञात होता है कि पापित्यों और महावीर के श्रमणों के बीच अनेक दार्शनिक प्रश्नों को लेकर गम्भीर चर्चायें होती थीं।

व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में गांगेय अनगार और महावीर के बीच जीवों की मनुष्य, तिर्यञ्च, नारक और देवगतियों पर तथा लोक की शाश्वता पर चर्चा होती है । II भगवतीसूत्र में ही कालस्यनैशिकपुत्र की महावीर के स्थविर श्रमणों से चर्चा का भी उल्लेख है। उनकी चर्चा का मुख्य विषय सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग का स्वरूप है । भगवतीसूत्र में वाणिज्यग्राम में कुछ पापित्य श्रमणों की भगवान् महावीर से चर्चा का भी उल्लेख है । ये पापित्य श्रमण महावीर से लोक के स्वरूप के संबंध में चर्चा करते हैं, और महावीर पार्श्व की मान्यताओं के आधार पर ही उन्हें लोक का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । महावीर के उत्तरों से सन्तुष्ट होकर वे महावीर का पञ्चमहाव्रतात्मक सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में ही जब महावीर अपना तेईसवाँ वर्षावास, श्रावस्ती नगर में संपूर्ण कर राजगृही आये थे, उसी समय राजगृह के निकट तुंगिया नगरी में पापित्य स्थविर पाँच सौ अनगारों के साथ निवास कर रहे थे । तुगिया के श्रमणोपासक इन स्थविरों को वन्दन करने के लिए जाते हैं और उनसे संयम और तप के फल के संबंध में चर्चा करते हैं। पार्वापत्य श्रमणों ने इनका जो प्रत्युत्तर दिया था, गौतम महावीर से उसकी प्रामाणिकता के संबंध में जानना चाहते हैं। इस संबंध में महावीर कहते हैं कि पापित्य स्थविरों ने जो उत्तर दिया है वह यथार्थ और पूर्ण सत्य है । इस चर्चा प्रसंग से हमें दो बातों की जानकारी मिलती है। प्रथम तो यह कि महावीर के गृहस्थ उपासक पापित्य परंपरा के श्रमणों के यहाँ जाते थे और तत्त्वजिज्ञासा को लेकर उनसे प्रश्नोत्तर भी करते थे। दूसरे यह कि महावीर अनेक संदर्भो में पार्श्वनाथ की तात्त्विक और दार्शनिक मान्यताओं को यथार्थ मानकर स्वीकार करते थे।

राजप्रश्नीय में श्वेताम्बिका के राजा प्रदेशी को पावपित्यीय श्रमण केशिकुमार के द्वारा उपदेश दिये जाने का भी उल्लेख है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी पापित्यीय श्रमण केशी और महावीर के प्रधान शिष्य गौतम के बीच हुए संवाद का उल्लेख प्राप्त होता है । राजप्रश्नीय और उत्तराध्ययन के उल्लेख से ऐसा लगता है कि केशी पाश्र्वापत्य परंपरा के एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं । कथाओं में केशी को पार्श्व की परंपरा का चतुर्थ पट्टधर कहा गया है । पाश्र्वनाथ की परंपरा में प्रथम पट्टधर शुभदत्त थे। उनके पश्चात् आचार्य हरिदत्त हुए। तीसरे पट्टधर आर्य समुद्र और चौथे पट्टधर आर्य केशी . हुए । यद्यपि इस में आर्य समुद्र और हरिदत्त ऐसे नाम हैं जिनकी ऐतिहासिकता विवादास्पद हो सकती है किन्तु केशी की ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में सन्देह करने का हमें कोई कारण नहीं लगता है। केशी की ज्ञान सामर्थ्य और बुद्धि गाम्भीर्य का पता राजप्रश्नीय में राजा प्रदेशी से तथा उत्तराध्ययन में गौतम से हुई विचार-चर्चा से लग जाता है । ऐतिहासिक दृष्टि से त्रिपिटक साहित्य का पयासी सुत्ता और राजप्रश्नीय के पएसी संबंधी विवरण महत्वपूर्ण रूप से तुलनीय हैं और वे उस घटना की ऐतिहासिकता को भी प्रमाणित करते हैं । यह पयासी या पएसी प्रसेनजित् ही होना चाहिए, जो ऐतिहासिक व्यक्ति हैं।

यह अलग बात है कि बौद्धों ने इसे अपने ढंग से मोड़ लिया है जबकि राजप्रश्नीय में इसे यथावत रखा गया है। ऐसा लगता है कि उस काल में यह कथाप्रसंग बहुत चर्चित रहा होगा जिसे दोनों परंपराओं ने ग्रहण कर लिया था।

बौद्ध परंपरा अनात्मवादी थी, इस कारण आत्मा की नित्यता को सिद्ध करना उनके लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं था। यद्यपि उन्होंने अपने पुनर्जन्म की सिद्धान्त की पुष्टि के लिये अपने ढंग से इसे मोड़ने का प्रयत्न किया है। जबकि जैनों ने इसे आत्मवाद में विश्वास रखने के कारण यथावत् रखा है इससे इतना निश्चित होता है कि पाश्र्वापत्यों की एक सुव्यवस्थित परंपरा महावीर और बुद्ध के काल तक चली आ रही थी।

इन उल्लेखों के अतिरिक्त आवश्यकचूर्णी में भी पार्श्वपत्या श्रमणों के उल्लेख हमें मिलते हैं । आवश्यकचूणि की सूचना के अनुसार गोशालक का कूपनख नामक एक कुम्भकार की शाला में पापित्य श्रमण मुनिचन्द्र से मिलने का उल्लेख है। गोशालक उनकी आलोचना भी करता है। इसी प्रकार आवश्यकचूर्णि में ही पापित्य श्रमण नन्दिसेन का उल्लेख मिलता है। ऐसे भी पापित्य श्रमणों के उल्लेख हैं जो श्रमणाचार से शिथिल होकर निमित्त शास्त्र आदि के द्वारा अपनी आजीविका चलाते थे। ऐसे निमित्तवेत्ता पाश्र्वापत्यों में उत्पल का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति एवं आवश्यकचूणि में हमें मिलता है। आवश्यकचूर्णि के उल्लेख के अनुसार शोण कलिन्द, कर्णिकार, अछिद्र, अग्निवैशम्पायन और अर्जुन ये छह निमित्तवेत्ता पापित्य परंपरा के ही थे। अर्जुन का उल्लेख हमें भगवतीसूत्र में भी मिलता है, भगवतीसूत्र में अर्जुनगोतमीयपुत्र को तीर्थङ्कर पार्श्व का अनुयायी बताया है, जो आगे चलकर गोशालक का अनुयायी हो जाता है। गोशालक द्वारा अर्जुन का शरीर ग्रहण करने का उल्लेख मिलता है। इससे ऐसा फलित होता है कि अर्जुन पहले पार्श्व की परम्परा का अनुयायी था बाद में आजीवक परम्परा का अनुयायी बना। आवश्यकनियुक्ति में सोमा, जयन्ती, विजया और प्रगल्भा नामक ऐसी चार पापित्यीय परिव्राजिकाओं के भी उल्लेख मिलते हैं। इन्होंने महावीर और गोशालक को वहाँ के राजकीय अधिकारियों के द्वारा गुप्तचर समझकर पकड़े जाने पर छुड़वाया था।

इस प्रकार हमें अर्धमागधी आगम साहित्य में अनेक पापित्य श्रमण-श्रमणियों और श्रमणोपासकों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। जिससे यह भी ज्ञात होता है कि पापित्य श्रमण और महावीर के श्रमण एक दूसरे से मिलते थे, तत्त्व-चर्चायें करते थे। यद्यपि अनेक प्रश्नों पर वे परस्पर सहमति रखते थे किन्तु कुछ प्रश्नों पर उनका मतवैभिन्य भी था। फिर भी कठिनाइयों में वे एक दूसरे को सहयोग देते थे।