सामान्य जैनों में आज भी पार्श्वनाथ के प्रति जो आस्था देखी जाती है वह अन्य किसी तीर्थंकर के प्रति नहीं देखी जाती है । चरम तीर्थंकर स्वयं महावीर के प्रति भी उतनी आस्था नहीं है, जितनी पार्श्व के प्रति है। यद्यपि सिद्धान्ततः यह माना जाता है कि सभी तीर्थकर समान हैं, फिर भी जिस तीर्थंकर का शासन होता है उसकी उस काल में विशेष प्रतिष्ठा रहती है, किन्तु आज जैन परम्परा में विशेष रूप से जैन उपासकों के हृदय में पार्श्वनाथ के प्रति जितनी अधिक श्रद्धा और आस्था है, उतनी महावीर के प्रति भी नहीं देखी जाती है। यदि हम जैन तीर्थों और तीर्थंकर-प्रतिमाओं का ही एक सर्वेक्षण करें तो हमें स्पष्ट रूप से यह ज्ञात हो जायेगा कि देश में आज भी सर्वाधिक तीर्थ और सर्वाधिक प्रतिमायें भी पार्श्वनाथ की हैं। शंखेश्वर पार्श्वनाथ, गौड़ी पार्श्वनाथ, चिन्तामणि पार्श्वनाथ, अमीझरा पार्श्वनाथ, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, अवन्तिका पार्श्वनाथ, मक्षी पार्श्वनाथ आदि को जैन उपासक आज भी अत्यन्त श्रद्धा के साथ पूजता है।
स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि आखिर महावीर की अपेक्षा पार्श्वनाथ की जैन परम्परा में इतनी अधिक प्रतिष्ठा क्यों है ? इस प्रश्न का सैद्धान्तिक उत्तर तो यह दिया जाता है कि सभी तीर्थंकर, तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन करके तीर्थंकर पद को प्राप्त करते हैं, किन्तु सभी तीर्थंकरों का तीर्थंकर-नाम-कर्म समान नहीं होता, किसी का तीर्थंकर नाम-कर्म विशिष्ट होता है और इसी कारण वह तीर्थंकर संघ में विशिष्ट रूप से पूजा और प्रतिष्ठा पाता है । परम्परागत मान्यता के अनुसार पार्श्वनाथ का तीर्थंकर नामकर्म अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा विशिष्ट था और इसीलिए उनकी पूजा और प्रतिष्ठा अधिक है।
इस प्रश्न का दूसरा सामान्य उत्तर यह भी हो सकता है कि चूंकि महावीर स्वयं पार्श्व को पुरुषादानीय, पुरुषश्रेष्ठ कहकर विशेष प्रतिष्ठा देते थे । अतः उनका उपासक वर्ग भी उनकी अपेक्षा पार्श्वनाथ को अधिक प्रतिष्ठा देता है । आचार्य हस्तीमल जी ने अपने ग्रन्थ जैनधर्म का मौलिक इतिहास भाग १, जो वस्तुतः इतिहास ग्रन्थ की अपेक्षा स्थानकवासी परम्परा की दृष्टि से लिखा गया पुराण ही है, में पार्श्व की विशेष प्रतिष्ठा का कारण यह बताया है कि आज देव मण्डल में अनेक देव और देवियाँ पार्श्व के शासन में देव योनि को प्राप्त हुए हैं, अतः उनके शासन की प्रभावना अधिक होने से वे अधिक पूज्य हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पार्श्व के यक्ष और यक्षी-धरणेन्द्र और पद्मावती पार्श्व के उपासकों पर शीघ्र कृपा करते हैं और उनकी मनोवांछित कामनाओं को पूरा करते हैं अत: जैन संघ में पार्श्व की प्रतिष्ठा अधिक है यद्यपि सिद्धान्ततः ये उत्तर अपनी जगह ठीक भी हों, किन्तु मेरी दृष्टि में जैनसंघ में पार्श्वनाथ की विशेष प्रतिष्ठा के पीछे मूलभूत कारण कुछ दूसरा ही है और वह मुख्यतः व्यावहारिक है।
जैन परम्परा में पार्श्व को विघ्नों का उपशमन करने वाला माना गया है। पार्श्वनाथ को वही स्थान प्राप्त है जो कि आज हिन्दू परम्परा के देवों में विनायक या गणेश को है । हिन्दू परम्परा में गणेश को विघ्ननाशक देवता के रूप में स्वीकार किया जाता है और हम देखते हैं कि हिन्दू परम्परा के प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में सर्वप्रथम विनायक का आह्वान और स्थापना की जाती है ताकि वह अनुष्ठान निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो । चूँकि जैन परंपरा में भी पार्श्वनाथ को विघ्न-शामक तीर्थंकर के रूप में स्वीकार किया गया है और इसलिए उनकी विशेष प्रतिष्ठा है। यदि हम जैन स्तोत्र साहित्य और भक्ति साहित्य को देखें तो भी यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि जितने स्तोत्र पार्श्व के लिए निर्मित हुए उतने अन्य किसी भी तीर्थंकर के लिए नहीं। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि पार्श्व सम्बन्धी लगभग सभी स्तोत्रों या स्तुतियों में कहीं न कहीं उनसे विघ्न के उपशमन की अथवा लौकिक मंगल और कल्याण की अपेक्षा की गयी है । यद्यपि जैन धर्म सिद्धान्ततः अध्यात्म और तप-त्याग की बात अधिक करता हैं, किन्तु यह सत्य है कि सभी मनुष्यों में कहीं न कहीं भौतिक सुख-सुविधाओं और लौकिक मंगल की आकांक्षा पाई जाती है और जब यह धारणा दृढमूल हो जाती है कि भौतिक मंगल और भौतिक ऐषणाओं की प्राप्ति अमुक देव के द्वारा विशेष रूप से होती है, तो स्वाभाविक रूप से वही देव मुख्य रूप से उपासक की आस्था का केन्द्र बन जाता है। जैन परम्परा में पार्श्वनाथ के साथ भी यही हुआ है। जैन स्तोत्र साहित्य में सबसे प्राचीन स्तोत्र 'उवसग्गहर' माना जाता है । यह स्तोत्र पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में ही निर्मित हुआ है। इसमें उन्हें मंगल और कल्याण का आवास, विष-पीड़ाओं और विघ्न-बाधाओं का उपशमन करने वाला माना गया है और उनसे यह प्रार्थना की गयी है कि वे उपासक के सभी विघ्नों का उपशमन करें।
यद्यपि यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि जैन दर्शन के अनुसार पार्श्वनाथ तो वीतराग हैं, वे अपने भक्तों के विघ्नों के उपशमन तथा उसके मंगल और कल्याण के कर्ता किस प्रकार हो सकते हैं? जैनों ने इस दार्शनिक समस्या के समाधान का एक मार्ग प्रस्तुत किया है। उनकी मान्यता है कि यद्यपि तीर्थंकर वीतराग होने के कारण न तो अपने भक्तों का कल्याण करता है और न उन भक्तों को पीड़ा देने वाले को दण्डित ही करता है; किन्तु तीर्थकर के जो यक्ष-यक्षी या भक्त देवता होते हैं वे ही उन तीर्थंकरों के उपासक भक्तों के विघ्नों का उपशमन करते हैं और उनका हित साधन या कल्याण करते हैं। पार्श्वनाथ के यक्ष-यक्षिणियों में धरणेन्द्र और पद्मावती का उल्लेख आता है। धरणेन्द्र को पार्श्व-यक्ष के रूप में भी माना जाता है । यहाँ यह भी स्मरणीय है कि पार्न ही एक ऐसे तीर्थंकर हैं जिनके यक्ष को भी वही नाम दिया गया है। एक और मनोरंजक तथ्य यह भी है कि जैन परंपरा में पार्वा यक्ष की जो प्रतिमायें निर्मित होती हैं वे ठीक गणेश की प्रतिमाओं के समान ही हस्तिशीर्ष (गजशीर्ष) से युक्त होती हैं।" गणेश और पार्न यक्ष की प्रतिमाओं में वाहन के अन्तर को छोड़कर पूर्णतया समानता देखी जाती है । यह भी सत्य है कि जैनधर्म में अनेक यक्षयक्षिणियों, विद्यादेवियों और शासन देवियों की मूर्तियों के लक्षणों को हिन्दू परंपरा से ही ग्रहण किया गया है । जैन परम्परा में चक्रेश्वरी, अम्बिका, सिद्धायिक नैरोट्या आदि जिन देवियों की प्रतिष्ठा है, उनमें पार्वा की यक्षिणी पद्मावती को ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है । अनेकानेक जैन मन्दिरों में आपको पद्मावती की प्रतिमाएं उपलब्ध होती है । हिन्दू परम्परा में जो स्थान दुर्गा का और बौद्ध परंपरा में तारा का है वही जैन परंपरा में पद्मावती का है। आज भी अनेक जैन उपासक और उपासिकायें पद्मावती के प्रति अत्यधिक भक्ति और श्रद्धा युक्त देखे जाते हैं । यद्यपि जैन परंपरा में महावीर के यक्ष और यक्षिणी भी माने गये हैं किन्तु देखने में यह आता है कि महावीर के यक्ष और यक्षिणियों की अपेक्षा पार्ग के यक्ष और यक्षिणियों की ही जिन मन्दिरों में अधिक उपासना होती है। जैनों में यह आस्था दृढ़मूल हो चुकी है कि पार्श्व के यक्ष और यक्षी पार्श्व की अथवा स्वयं उनकी उपासना करने पर तत्काल विघ्नों का उपशमन करते हैं और भक्त का मंगल करते हैं। वस्तुतः यह एक ऐसा व्यावहारिक कारण है जिसके आधार पर हम यह समझ सकते हैं कि जैन परम्परा में पार्श्वनाथ के प्रति इतनी श्रद्धा और आस्था क्यों है ? पार्श्वनाथ ङ्केका जोन परंपरा में जो महत्त्वपूर्ण स्थान है उसको अनेक कारणों में प्रमुख कारण उन्हें विघ्न-विनाशक के रूप में स्वीकार कर लेना है।
उपर्युक्त घटना के घटना-स्थल को लेकर भी विविधता है। चउपन्नमहापुरिसचरियं में इस घटना को वाराणसी में घटित होना बताया गया है। जबकि उत्तरपुराण में उसे पार्श्व के नाना के आश्रम में घटित होना बताया है। पद्मकीर्ति ने पार्श्वनाथ चरित्र में इसे कुशस्थल में होना बताया है। इसी प्रकार चउपन्नमहापुरिसचरियं में जहाँ पार्श्वनाथ अपने अनुचरों के द्वारा अग्नि से लकड़ी को निकलवाकर चिरवाते हैं, वहां उत्तरपुराण और पार्श्वनाथ चरित्र में स्वयं कमठ उस लकड़ी को चीरता है । चउपन्नमहापुरिसचरियं, सिरिपासनाहचरियं, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र और पद्मचरित्र में केवल नाग का उल्लेख है, नागिन का नहीं । जबकि उत्तर पुराण में सर्प युगल की बात कही है और माना है कि नाग मरकर धरणेन्द्र और नागिन मरकर धरणेन्द्र की स्त्री पद्मावती बनी है। यद्यपि श्वेताम्बर आगम स्थानांग, भगवती और ज्ञातासूत्र में धरणेन्द्र की जिन छह अग्रमहिषियों का उल्लेख है उसमें पद्मावती का कहीं उल्लेख नहीं है. यद्यपि ज्ञाताधर्म कथा के अनुसार धरणेन्द्र की ये अग्रमहिषियाँ पार्व के शासन में बनी हैं किन्तु उसके साथ उपर्युक्त कथानक का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। इस कथानक में एक विसंगति यह भी है कि पार्श्व के यक्ष के रूप में पार्श्व यक्ष और यक्षिणी के रूप में पद्मावती का उल्लेख मिलता है। धरणेन्द्र को भवनपति देवों का इन्द्र बताया गया है जबकि पद्मावती को यक्षिणी बताया गया है। जैन मान्यता के अनुसार यक्ष व्यन्तर देवों की एक जाति है। अतः पद्मावती को धरणेन्द्र की अग्रमहिषी मानना आगमिक दृष्टि से युक्ति संगत नहीं है। फिर भी पार्श्वचरित्रों के लेखक धरणेन्द्र और पद्मावती के बीच सम्बन्ध जोड़ देते हैं।