तीर्थंकर महावीर जिन शासन के अंतिम चैबीसवें तीर्थंकर थे। उनके शासन काल में जैन धर्मदेश के विभिन्न भागों में व्यापक रूप से प्रतिष्ठित था, भगवान महावीर की तपस्या और जन सामान्य के लिए आत्मविकास तथा जीवन-संरक्षण हेतु धर्म के स्वरूप को उपस्थित करने के कारण समाज के विभिन्न वर्गों मेंजैन धर्म के प्रति आदर का भाव था।भगवान महावीर के भक्तों में प्रतिभा और इससे सम्पन्न हजारों तपस्वी साधु शिष्य के रूपमें थे, तो अनेक प्रतापी और प्रजावत्सल सम्राट भी महावीर के प्रति भक्ति रखते थे।
इस कारण तीर्थकर द्वारा प्रचारित जैन धर्म उनके निर्वाण के बाद भी समाज में प्रभावशाली रहा हें जैन परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के शासन में इन्द्रभूति गौतम आदि 14 हाजर तपस्वी, साधु, महासती चन्दनबाला आदि 36 हजार साधना में रत साध्वियां और लाखों की संख्या में श्रावक तथा श्राविकाएं विद्यमाल थीं। इतना बड़ा संघ निश्चित रूप से किसी सुसंगठित संघ व्यवस्था के अंदर ही संचालित होता रहा होगा।
जैन परम्परा के ग्रन्थों में भगवान महावीर के शिष्य     परम्परा में ग्यारह गणधरों का वर्णन प्राप्त होता है।समवायांग सूत्र और तिलोय पण्णत्ति आदि जैन ग्रंथों में इनके विशेष विवरण प्राप्त होते हैं। संक्षेप में इन का परिचय इस प्रकार है-
1 इन्द्रभूति - इनद्रभूति का जन्म ईसा पूर्व 607 ईस्वी मे मगध देश के ब्राह्मण परिवार मे हुआ था। इन्द्रभूति गौतम 500 शिष्यों के साथ भगवान महावीर के समवसरण मे उनके शिष्य बने थे। फिर लगभग 40 वर्षो तक वे भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य बनकर रहे। जैन परम्परा मे गौतम गणधर और महावीर के बीच अनेक सिद्धांतो पर जो चर्चा हुई है वही जैन सिद्धांतो को जानने का प्रमुख आधार है इसलिए यह कहा गया है कि अर्थ के रूप मे भगवान महावीर ने जो कुछ भावव्यक्त किया उसे शब्दों के रूप मे गौतम गणधर ने सुरक्षित रखा है गौतम गणधर को भगवान महावीर के निर्वाण - दिवस पर ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। उन्हो ने भगवान महावीर के संघ का संचालन किया और जैन धर्म का सम्पूर्ण देश मे प्रचार किया। ईस्वी पूर्व 515 में 92 वर्ष की आयु मे राजगृह मे इन्द्रभूति गौतम को निर्वाण प्राप्त हुआ।
2 अग्निभूति - इन्द्रभूति गौतम के मझले भाई अग्निभूति गौतम भी भगवान महावीर के गणधर थे। उन्होंने भगवान माहवीर के जवीन काल मे ही 74 वर्ष की आयु मे ही निर्वाण प्राप्त किया था। अपने जीवन -काल मे अग्निभूति ने कठोर साधना द्वारा जैन धर्म का प्रचार किया था।
3 वयुभूति - वयुभूति-इन्द्रभूति गौतम के छोटे भाई वायुभूति थे। उन्हो ने भी अपने 500 शिष्यों के साथ भगवान महावीर से दीक्षा ग्रहण की थी। भगवान महावीर के निर्वाण से 2 वर्षपूर्व ही 70 वर्ष की आयु मे वायुभूति ने निर्वाण प्राप्त किया था।
4 आर्यव्यक्त - भगवान महावीर के चैथे गणार का नाम आर्यव्यक्त था। वे आर्यव्यक्त भारद्वाज गौत्रीय ब्राह्मण थे और वह अपने 500 शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य बने। दिगम्बर परम्परा के अनुसार मगध देश को सुप्रतिष्ठित राजा महावीर का उपदेश सुनकर दिगम्बर मुनि हो गये थे और वही भगवान महावीर के चतुर्थ गणधर बने। ये चतुर्थ गणधर महावीर के जीवन काल मे ही मुथ्कमत को प्राप्त हो गये थे।
5 सुधर्मस्वामी - श्वेतामबर परम्परा के अनुसार महावीर के पांचवे गणधर सुधर्मा स्वामी मोल्लाग सन्निवेश के ब्राह्मण थे। यह अपने 500 शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य बने थे। इन्होंने 50 वर्ष की अवस्था मे दीक्षा ली थी। 42 वर्ष तक मुनि के रूप मे साधना करके इन्हो ने केवल ज्ञान प्राप्त किया था। 100 वर्ष की अवस्था मे इनको राजगृह नगर मे मुक्ति प्राप्त हुई इन्ही सुधर्मास्वामी को इन्द्रभूति गौतम ने अपना उत्तराधिकारी आचार्य बनाया था। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर के चतुर्थ गणधर सुप्रसिद्ध राजा के पुत्र का नाम सुधर्मा था। उसने अपने पिता को मुनि दीक्षा धारण करते हुए देखकर भोग सम्पदा का त्याग कर स्वय भी महावीर का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। यह राजकुमार सुधर्म महावीर का पंचम गणधर बना। इन्द्रभूति गौतम ने द्वादशांग ग्रंथों की रचना कर इसी सुधर्मा स्वामी को उनका व्याख्यान दिया था। दिगम्बर परम्परा मे सुधर्मा स्वामी का दूसरा नाम लोहाचार्य भी मिलता है। सुधर्मा स्वामी को ईसवी पूर्व 515 मे उसी दिन केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसदिन इन्द्रभूति गौतम का निर्वाण हुआ था। सुधर्मा स्वामी गणधर अवस्था में 30 वर्ष तक रहे और उन्हो ने इस बीच हजारो व्यक्तियो को जैन धर्म मे दीक्षित किया तथा जैन धर्म के प्रचार - प्रसार मे अपूर्ण योगदान किया है। सुधर्मा स्वामी ने जैन संघ का भार अपने बाद आर्य जम्बूस्वामी को सौंपा था।
6 मंडितगणधर - इनका दूसरा नाम माडव्व भी मिलता है। ये वशिष्ठ गौत्रीय ब्राह्मण थे। इन्होंने 350 शिष्यों के साथ भगवान महावीर से 53 वर्ष की अवस्था मे दीक्षा ग्रहण की थी। गणधर मंडित ने 14 वर्ष तक मुनि साधना कर 67 वर्ष की अवस्था मे केवल ज्ञान प्राप्त किया था। 83 वर्ष की अवस्था मे मंडित गणधर का निर्वाण महावीर भगवान के जीवन काल मे ही हो गया था।
7 मौर्यपुत्र - मौर्यपुत्र गणधर का श्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इन्होंने 350 शिष्यों के सथ भगवान महावीर से 65 वर्ष की अवस्था मे जिन-दीक्षा ग्रहण की थी। 19 वर्ष तक मुनि साधना के उपरांत आपने केवल ज्ञान प्राप्त किया और 95 वर्ष की अवस्था मे भगवान महावीर के जीवन काल मे ही इन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया था।
8 अकंपित - भगवान माहवीर के आठवें गणधर अकंपित मिथिला नगर के गौतम ब्राह्मण थे। इन्होंने अपने 300 शिष्यों के साथ 48 वर्ष की अवस्था मे भगवान महावीर से जिन दीक्षा ग्रहण की थी। इनका निर्वाण 70 वर्ष की आयु मे भगवान महावीर के जीवन काल मे हो गया था।
9 अचलभ्राता - ये भगवान महावीर के नवे गणधर थे। इन्होंने अपने 300 शिष्यों के साथ 46 वर्ष की अवस्था मे भगवान महावीर से मुनि दीक्षा ली थी। इनका निर्वाण भगवान महावीर के जीवन काल मे ही 72 वर्ष की आयु मे हो गया था।
10 मेतार्य - महावीर के दसवे गणधर का नाम मेतार्य है, जो कौडिन्नय ब्राह्मण थे। इन्होंने 36 वर्ष की अवस्था मे अपने 300 शिष्यों के साथ भगवान माहवीर से मुनि दीक्षा ग्रहण की थी और भगवान महावीर के जीवन काल मे लगभग 62 वर्ष की अवस्था मे आपने राजगृह से निर्वाण प्राप्त किया था।
11 प्रभास - तीर्थंकर महावीर के ग्यारहवे गणधर का नाम प्रभास था। ये राजगृह के निवासी ब्राह्मण थे। इन्होंने भगवान माहवीर से श्रमण दीक्षा लेकर लगभग 8 वर्षो तक साधना की और 40 वर्ष की आयु मे महावीर के जीवन काल मे ही इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया था।
तीर्थंकर महावीर के ये सभी गणधर भारतीय दर्शन और चिंतन परम्परा के उद्भट विद्वान थे। आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, पाप, पुण्य, आदि के सम्बंध मे इनसब की अपनी एकांतिक धारणाए थी। अतः सभी ने दीक्षा लेने के पूर्व भगवान महावीर से अपनी शंकाओ का निवारण किया और संतुष्ट होने पर फिर उन्होंने महावीर से जिन-दीक्षा ग्रहण कर अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार जिन शासन की सेवा की हैं