अध्याय — १०
प्र.१— तत्वार्थसूत्र की दशवीं अध्याय में किसका वर्णन है ?
उत्तर — तत्वार्थसूत्र की दशवीं अध्याय में मोक्षतत्व का वर्णन है।
प्र.२— केवलज्ञान की उत्पत्ति का क्या कारण है ?
उत्तर — ‘‘मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलम्’’ मोहनीय कर्म का क्षय होने से अन्तर्मूहुर्त के लिये क्षीणकषाय नामक बारहवां गुणस्थान पाकर एक साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है
प्र.३— चार घातिया कर्म कौन से हैं ?
उत्तर — ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये ४ घातिया कर्म कहलाते हैं ।
प्र.४— मोक्ष का लक्षण क्या है तथा उसकी प्राप्ति के कारण क्या है ?
उत्तर — ‘‘बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:’’ बन्ध के कारणों का अभाव तथा निर्जरा के द्वारा ज्ञानावरणादि सभी कर्म प्रकृतियों का सर्वदा अभाव हो जाना मोक्ष कहलाता है। और यह संवर तथा निर्जरा के द्वारा प्राप्त होता है।
प्र.५— मोक्ष में कर्मों के सिवाय और किसका अभाव होता है ?
उत्तर — ‘‘औपशमिकादिभव्यत्वानां च’’ मुक्त जीवों में औपशमिक आदि भावों का तथा पारिणामिक भावों में से भव्यत्व का भी अभाव हो जाता है।
प्र.६— भव्य किसे कहते हैं ?
उत्तर — जसके सम्यग्दर्शनादि प्राप्त होने की योग्यता हो अर्थात् मोक्ष जाने की योग्यता हो उसे भव्य कहते हैं।
प्र.७— मोक्ष में कौन से भाव रहते हैं ?
उत्तर — ‘‘अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य:’’ केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन भावों को छोड़कर मोक्ष में अन्य भावों का अभाव हो जाता है।
प्र.८— समस्त कर्मों का क्षय हो जाने के बाद जीव कहाँ जाता है ?
उत्तर — ‘‘तदनन्तरमूध्र्वं गच्छत्यालोकान्तात्’’ समस्त कर्मों का क्षय होने के बाद मुक्त जीव लोक के अन्त भाग पर्यंत ऊपर को जाता है।
प्र.९— मुक्त जीव के ऊध्र्वगमन करने का क्या कारण है ?
उत्तर — ‘‘पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च’’ पूर्व प्रयोग (पूर्वसंस्कार) से सङ्गरहित होने से, कर्म बन्धन के नष्ट होने से और तथागतिपरिणाम अर्थात् ऊध्र्वगमन का स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊध्र्वगमन करना है।
प्र.१०— उक्त पूर्वप्रयोग आदि चारों कारणों में कौन से दृष्टांत दिये गए हैं ?
उत्तर — ‘‘आविध्दकुलालचक्रवद्व्यपगतलेवालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च’’।घुमाये गये कुम्हार के चक्र के समान, लेप से मुक्त हुई तुमड़ी के समान, एरण्ड के बीज के समान और अग्नि की शिखा के समान।
प्र.११— मुक्तजीव लोक के अन्त भाग से ऊपर क्यों नहीं जाते हैं ?
उत्तर — ‘‘धर्मास्तिकायाभावात्’’ धर्म द्रव्य का अभाव होने से मुक्त जीव लोक के अग्रभाग के आगे नहीं जा सकते हैं।
प्र.१२— लोक के अग्रभाग पर क्या है जहाँ मुक्त जीव ठहर जाते हैं ?
उत्तर — लोक के अंत में (अग्रभाग में) ४५ लाख योजन विस्तार वाली सिद्धशिला है मुक्त जीव उसी के ऊपर तनुवातवलय में ठहर जाते हैं।
प्र.१३— लोक के बाहर क्या है ?
उत्तर — लोक के बाहर अलोकाकाश है।
प्र.१४— अलोकाकाश में जीव का गमन क्यों नहीं है ?
उत्तर — जीव और पुद्गलों का गमन धर्मद्रव्य की सहायता से होता है और अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का अभाव होने से वहाँ जीव नहीं जा सकते हैं।
प्र.१५— मुक्त जीवों में भेद किन कारणों से होता है ?
उत्तर —‘‘क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनांतरसंख्याल्य्पबहुत्वत: साध्या:’’। क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व इन बारह अनुयोगों से सिद्धों में भी भेद हो जाते हैं।
प्र.१६— क्षेत्र की अपेक्षा किस प्रकार से सिद्धों में भेद होता है ?
उत्तर — कोई भरतक्षेत्र से, कोई ऐरावत क्षेत्र से और कोई विदेहक्षेत्र से सिद्ध हुए हैं इस प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा सिद्धों में भेद होता है।
प्र.१७— काल, गति और लिंग की अपेक्षा मुक्त जीवों में किस प्रकार अंतर है ?
उत्तर — काल की अपेक्षा कोई उत्सर्पिणी काल और कोई अवसर्पिणी काल में मुक्त होते हैं। गति की अपेक्षा कोई प्रत्युत्पन्न नय से सिद्धगति में ही सिद्ध होते हैं। और कोई मनुष्यगति से सिद्ध होते हैं। लिंग की दृष्टि से द्रव्य पुल्लिंग से और भाव लिंग की अपेक्षा स्त्री, पुरुष, नपुंसक तीनों लिंगों से मुक्त हो सकते हैं। पर वास्तव में अलिंग से ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि भाववेद का उदय ९ वें गुणस्थान तक रहता है इसलिये अवेद दशा में ही होता है।
प्र.१८— तीर्थ की अपेक्षा सिद्धों में कितने भेद हैं ?
उत्तर — कोई जीव तीर्थंकर होकर सिद्ध होते हैं, कोई सामान्य केवली होते हैं। कोई तीर्थंकर के काल में सिद्ध होते हैं और कोई तीर्थंकर के मोक्ष चले जाने के बाद उनके तीर्थ में सिद्ध होते हैं।
प्र.१९— चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित और ज्ञान की अपेक्षा किस प्रकार भिन्नता होती है ?
उत्तर — (१)चारित्र— चारित्र, की अपेक्षा कोई एक चारित्र से अथवा कोई भूतपूर्व नय की अपेक्षा दो, तीन चारित्र से सिद्ध हुए हैं। (२) प्रत्येकबुद्धबोधित— कोई स्वयं संसार से विरत होकर मोक्ष को प्राप्त हुए हैं और कोई किसी के उपदेश से। (३) ज्ञान— कोई एक ही ज्ञान से और कोई भूतपूर्व नय की अपेक्षा दो तीन चार ज्ञान से सिद्ध हुए हैं।
प्र.२०— अवगाहना की दृष्टि से सिद्ध जीवों में क्या अंतर है ?
उत्तर — कोई उत्कृष्ट अवगाहना सवा पांच सौ धनुष से, कोई मध्यम अवगाहना से और कोई जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ से सिद्ध हुए हैं।
प्र.२१— अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व में किस प्रकार की भिन्नता से सिद्धजीव होते हैं ?
उत्तर — एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध होने का अंतर जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से आठ समय का है तथा विरहकाल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छ: महीने का होता है। संख्या— जघन्य से एक समय में एक ही जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्टता से १०८ जीव सिद्ध हो सकते हैं। अल्पबहुत्व— समुद्र आदि जल क्षेत्र से थोड़े सिद्ध होते हैं और विदेह आदि क्षेत्रों से अधिक सिद्ध होते हैं।
प्र.२२— तत्वार्थसूत्र के दश अध्यायों का पाठ करने से क्या फल मिलता है ?
उत्तर — दश अध्यायों में विभक्त इस तत्वार्थसूत्र का पाठ करने से एक उपवास का फल प्राप्त होता है ऐसा श्रेष्ठ मुनियों का कथन है।
प्र.२३— तत्वार्थसूत्र का अपरनाम क्या है ?
उत्तर — तत्वार्थसूत्र का अपरनाम मोक्षशास्त्र है ?
प्र.२४— इस ग्रंथ को मोक्षशास्त्र क्यों कहा गया ?
उत्तर — इस ग्रंथ में मोक्ष का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय बताया है इसलिये इसे मोक्षशास्त्र कहा गया।
प्र.२५— तत्वार्थसूत्र के दशों अध्याय में किसका विवेचन किया गया है ?
उत्तर — तत्वार्थसूत्र के १० अध्यायों में जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन ७ तत्वों का विवेचन किया गया है।