प्रथम अध्याय
प्र.१. मोक्षमार्ग क्या है ? सूत्र लिखिये ।
उत्तर — सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:।
प्र.२. सूत्र का अर्थ स्पष्ट कीजिये ?
उत्तर — सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है।
प्र.३.मोक्ष क्या है ?
उत्तर — आत्मा का हित अथवा अष्ट कर्मों से रहित होना मोक्ष है।
प्र.४. मोक्ष का स्वरूप क्या है ?
उत्तर — संसार से सर्वथा विलक्षण आत्मा, निर्विकार, निराकार आत्मा का जो स्वरूप होता है वही मोक्ष है।
प्र.५. संसारी प्राणी मोक्ष क्यों चाहते हैं ?
उत्तर — चूंकि मोक्ष के बाद संसार में पुनः आकर जन्म मरण के दुःखों को सहना नहीं पड़ता है तथा अव्याबाध सुख की प्राप्ति मोक्ष कहलाती है , इसीलिए हर संसारी प्राणी मोक्ष को चाहता है ।
प्र.६. मोक्ष प्राप्ति का उपाय क्या है ?
उत्तर उत्तर — मोक्ष प्राप्ति के लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की सीढियों पर चढ़ना होता है ।
प्र.७. आचार्य उमास्वामीजी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की एकता शब्द का उपयोग क्यों किया ?
उत्तर — आचार्य उमास्वामी ने बताया कि मात्र सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यग्चारित्र मोक्ष का माध्यम नहीं बल्कि तीनों होने पर ही मोक्ष प्राप्ति होगी।
प्र.८. इन सूत्रों तत्वार्थसूत्रों के रचयिता का नाम बताईये ?
उत्तर — तत्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम है - उमास्वामी आचार्य ।
प्र.९. सम्यक् शब्द का क्या अर्थ है ?
उत्तर — सम्यक् शब्द संपूर्णता, निर्मलता व समीचीनता का द्योतक है।
प्र.१०. सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं? लक्षण बताईये । (सूत्र लिखें)
उत्तर — तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।।२।।
प्र.११. उपर्युक्त सूत्र का अर्थ लिखिये ।
उत्तर — जीवादि सात तत्वों एवं अर्थ - पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है ।
प्र.१२. दर्शन शब्द कौन सी धातु से बना है और उसका अर्थ क्या है ?
उत्तर — दर्शन शब्द ‘दृश्’ धातु से बना है और उसका अर्थ आलोक अर्थात् देखना है।
प्र.१३. सम्यग्दर्शन के कितने भेद हैं ?अर्थ सहित सूत्र लिखिये ।
उत्तर — "तन्निसर्गादधिगमाद्वा " अर्थात् वह सम्यग्दर्शन स्वभाव से अथवा पर के उपदेश से उत्पन्न होता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन के उत्पत्ति की अपेक्षा से दो भेद हैं— (१) निसर्गज (२) अधिगमज ।
प्र.१४. निसर्गज सम्यग्दर्शन क्या है ?
उत्तर — जो सम्यग्दर्शन पर के उपदेश के बिना अपने आप (पूर्वभव के संस्कार से) उत्पन्न होता है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
प्र.१५. अधिगमज सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो गुरू आदि पर के उपदेश से उत्पन्न होता है, वह अधिगमज सम्यक् दर्शन कहलाता है ।
प्र.१६. सात तत्व कौन से हैं ? सूत्र लिखें ।
उत्तर — जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ।।४।। अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व हैं ।
प्र.१७. नौ पदार्थ कौन से हैं ?
उत्तर — जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष , पाप तथा पुण्य ।
प्र.१८. सम्यग्दर्शन तथा जीवादि तत्व एवम् पदार्थों को जानने का क्या उपाय है ? सूत्र लिखें ।
उत्तर — नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:।।५।। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से सात तत्वों और सम्यग्दर्शन को जाना जाता है ।
प्र.१९. नाम आदि चार पदार्थ क्या कहलाते हैं ?
उत्तर — नाम आदि चार पदार्थ निक्षेप कहलाते हैं।
प्र.२०. निक्षेप क्या है ?
उत्तर — प्रत्येक शब्द का लोक में अथवा शास्त्रों में अनेक अर्थों में प्रयोग होता है। यह प्रयोग कहां किस अर्थ में किया गया है इस बात का स्पष्टीकरण करना निक्षेप कहलाता है ।
प्र.२१. जीवादि तत्वों का ज्ञान किसके द्वारा होता है ?
उत्तर — प्रमाणनयैरधिगम:। जीवादि तत्वों का ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है।
प्र.२२. प्रमाण किसे कहते हैं ? प्रमाण के कितने भेद हैं ?
उत्तर — जो पदार्थ के सर्वदेश को ग्रहण करे उसे प्रमाण कहते हैं । प्रमाण के २ भेद हैं — (१) प्रत्यक्ष प्रमाण (२) परोक्ष प्रमाण।
प्र.२३. नय और प्रमाण के अलावा जीवादि पदार्थों का ज्ञान किनके द्वारा होता है ?
उत्तर — ‘निर्देशस्वामित्त्व साधनाधिकरणस्थितिविधानत:।’ अर्थात् निर्देश, स्वामित्व , साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान के द्वारा भी जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है।
प्र.२४. निर्देश - स्वामित्व आदि क्या हैं ? समझाइये।
उत्तर —(१) निर्देश— वस्तु के स्वरूप का कथन करना निर्देश है । (२) स्वामित्व— वस्तु के अधिकार को स्वामित्व कहते हैं । (३) साधन— वस्तु की उत्पत्ति का कारण साधन कहलाता है । (४) अधिकरण— वस्तु के आधार को अधिकरण कहते हैं । (५) स्थिति— वस्तु के काल की अवधि को स्थिति कहते हैं । (६) विधान— वस्तु के भेदों को विधान कहते हैं ।
प्र.२५. जीवादि तत्वों के जानने के और अनुयोग द्वार कौन से हैं ? बताइये ।
उत्तर —‘सत्संख्या क्षेत्र स्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्त्वैश्च।’ सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव , अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारों से भी जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है ।
प्र.२६.सत् - संख्या आदि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — सत् वस्तु के अस्तित्व को सत् कहते हैं । संख्या— वस्तु के परिमाण की गणना संख्या है । क्षेत्र— वस्तु के वर्तमान निवास को क्षेत्र कहते हैं । स्पर्श—वस्तु के तीनों काल संबंधी निवास को स्पर्श कहते हैं । काल— वस्तु के ठहरने की मर्यादा काल कहलाती है । अंतर— वस्तु के विरहकाल को अंतर कहते हैं । भाव— औपशमिक आदि परिणामों को भाव कहते हैं । अल्पबहुत्व—वस्तु की हीनाधिकता का वर्णन करने को अल्पबहुत्व कहते हैं ।
प्र.२७. सम्यक् ज्ञान के भेद बताइये ?
उत्तर — ‘मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।’ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्यय ज्ञान, और केवलज्ञान ये पांच सम्यक्ज्ञान हैं ।
प्र.२८. कितने ज्ञान प्रमाण हैं ?
उत्तर — ‘तत्प्रमाणे ।’ मति, श्रुत आदि पाचों ज्ञान ही प्रमाण हैं।
प्र.२९. प्रमाण किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो किसी वस्तु को भली भांति, सम्यक् प्रकार से जानता है उसे प्रमाण कहते हैं अथवा जिसके द्वारा विषय को अच्छी तरह से जाना जाता है वह प्रमाण कहलाता है।
प्र.३०. प्रमाण के कितने भेद हैं ?
उत्तर — प्रमाण के २ भेद हैं—(१) प्रत्यक्ष प्रमाण (२) परोक्ष प्रमाण ।
प्र.३१. परोक्ष प्रमाण रूप ज्ञान कौन से हैं ?
उत्तर — ‘आद्ये परोक्षम्’ अर्थात् आदि के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान परोक्ष हैं ।यहां आदि से तात्पर्य पहले से है ।
प्र.३२. मति—श्रुतज्ञान परोक्ष क्यों हैं ?
उत्तर — क्योंकि ये ज्ञान इंद्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं ।
प्र.३३. प्रत्यक्ष प्रमाणरूप ज्ञान कौन से हैं ?
उत्तर — ‘प्रत्यक्षमन्यत् ।’ अर्थात् शेष सब ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । अर्थात् अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण रूप हैं।
प्र.३४. प्रत्यक्ष ज्ञान से क्या आशय है ?
उत्तर — जो ज्ञान बाह्य इंद्रियों की अपेक्षा आत्मा के द्वारा होते हैं वे ज्ञान प्रत्यक्षज्ञान हैं ।
प्र.३५.मति—स्मृति आदि शब्दों का आशय क्या है ?
उत्तर — ‘मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध ’ आदि मतिज्ञान के ही पर्यायवाची नाम हैं ।
प्र.३६. मतिज्ञान क्या है ? इसे अन्य किन नामों से जाना जाता है ?
उत्तर — मननं मतिः—इंद्रिय और मन से होने वाली धारणा मति है । स्मरण संज्ञा— अतीत को स्मरण करना स्मृति है । संज्ञानं संज्ञा— यह वही है या उसके समान ऐसा ज्ञान संज्ञा है । चिन्तन चिंता— चिंतन करना, मनन करना चिंता है । अभिनिबोध— साध्य से साधन का ज्ञान करने को अभिनिबोध कहते हैं ।
प्र.३७. मतिज्ञान की उत्पत्ति का कारण क्या है ?
उत्तर — ‘तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।’ मति—ज्ञान इंद्रिय और मन के निमित्त से होता है ।
प्र.३८.मतिज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर —‘अवग्रहेहावायधारणा:।’ अवग्रह, ईहा, अवाय, और धारणा ये मतिज्ञान के चार भेद हैं ।
प्र.३९. अवग्रह—ईहा आदि क्या हैं ?
उत्तर — (१) अवग्रह—रूप देखने के पश्चात् अर्थ का ग्रहण करना । (२) ईहा— अवग्रह द्वारा जाने गये पदार्थों को विशेष रूप से जानना । (३) अवाय— विशेष चिन्ह देखकर वस्तु का निर्णय हो जाना । (४) धारणा— अवाय से निश्चय किये पदार्थ को कालान्तर में नहीं भूलना ।
प्र.४०. अवग्रह, ईहा आदि चारों ज्ञानों में कितना काल लगता है ?
उत्तर — अवग्रह — ईहा आदि चारों ज्ञान क्षणभर में भी हो सकते हैं और अनेक काल बाद भी हो सकते हैं।
प्र.४१. अवग्रह ज्ञान की विशेषता बताईये ?
उत्तर —‘‘व्यंजनस्या:’’ अवग्रह ज्ञान अप्रकट रुप शब्दादि पदार्थों का होता है।
प्र.४२. व्यंजनावग्रह किनके द्वारा नहीं हो सकता है?
उत्तर — ‘‘न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्’’ नेत्र और मन से व्यंजनावाग्रह नहीं होता है।
प्र.४३. श्रुतज्ञान किसे कहते है, इसका लक्षण और भेद बताईये ?
उत्तर — ‘श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेक द्वादश भेदम्’। श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है अर्थात् मतिज्ञान होने के बाद ही श्रुतज्ञान होता है जिसके दो, अनेक और बारह भेद हैं ।
प्र.४४. श्रुत ज्ञान के दो भेद कौन से हैं ?
उत्तर — श्रुतज्ञान के २ भेद निम्न प्रकार हैं — (१) अंगबाह्य (२) अंगप्रविष्ट ।
प्र.४५. श्रुतज्ञान के बारह भेद कौन से है ?
उत्तर — अंग प्रविष्ट के बारह भेदों की अपेक्षा श्रुतज्ञान के बारह भेद निम्न प्रकार से हैं— (१) आचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्याप्रज्ञाप्ति अंग, (६) ज्ञातृधर्मकथांग, (७) उपासकाध्ययनांग, (८) अंतकृद्दशांग, (९) अनुत्तरोपपादिक दशांग, (१०) प्रश्नव्याकरणांग, (११) विपाकसूत्रांग, (१२) दृष्टिप्रवादांग ।
प्र.४६. श्रुतज्ञान के अनेक भेद कौन से हैं ?
उत्तर — अंग बाह्य श्रुत के १४ भेदों की अपेक्षा श्रुतज्ञान के अनेक भेद निम्नानुसार है :- (१) सामायिक, (२) स्तव, (३) वंदना, (४) प्रतिक्रमण, (५) वैनयिक, (६) कृतिकर्म, (७) दशवैकालिक, (८) उत्तराध्ययन, (९) कल्पव्यवहार, (१०) कल्पाकल्प, (११) महाकल्प, (१२) पुण्डरीक, (१३) महापुण्डरीक, (१४) अशीतिका ।
प्र.४७. भवप्रत्यय अवधिज्ञान किसे होता है ?
उत्तर — ‘भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्’ भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारकियों को होता है ?
प्र.४८. कितने ज्ञान प्रमाण हैं ?
उत्तर — ‘मतिश्रुतावधिमन: पर्ययकेवलानि ज्ञानम्।’ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:—पर्यय ज्ञान, और केवलज्ञान ये पांच सम्यकज्ञान हैं।
प्र.४९. भव से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — आयु और नामकर्म का निमित्त पाकर जो जीव की पर्याय होती है उसे भव कहते हैं।
प्र.५०. भवप्रत्यय अवधिज्ञान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — वह अविधज्ञान जो भव के निमित्त से होता है भव प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है।
प्र.५१. क्या समस्त देव नारकियों को अवधिज्ञान होता है ?
उत्तर — नहीं, सम्यग्दृष्टि देव— नारकियों के अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि को कुअवधिज्ञान होता है।
प्र.५२. देव और नारकियों के अतिरिक्त अन्य किन्हें भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है ?
उत्तर — देव और नारकियों के अतिरिक्त तीर्थंकरों को भी भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है ।
प्र.५३. अवधिज्ञान कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर — अवधि ज्ञान के दो भेद हैं—(१) भवप्रत्यय, (२) गुणप्रत्यय या क्षयोपशमनिमित्तक।
प्र.५४. गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाले ज्ञान को गुणप्रत्यय अथवा क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान कहते हैं ।
प्र.५५. क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान या गुणप्रत्यय के कितने भेद हैं ?
उत्तर — ‘क्षयोपशमनिमित्त: षडविकल्प: शेषणाम्।’ क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान के ६ भेद हैं और वे शेष मनुष्यों और तिर्यंचों को होता है।
प्र.५६. क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान के ६ भेद कौन से हैं ?
उत्तर — क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान के ६ भेद निम्नानुसार हैं— (१) अनुगामी,(२) अननुगामी,(३) वर्धमान,(४) हीयमान,(५) अवस्थित,(६) अनवस्थित ।
प्र.५७. अनुगामी अवधिज्ञान और अननुगामी अवधिज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो अवधिज्ञान जीव के साथ सूर्य प्रकाश की तरह एक भव से दूसरे भव या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र जाये उसे अनुगामी और नहीं जावे उसे अननुगामी अवधिज्ञान कहते हैं।
प्र.५८. वर्धमान और हीयमान से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर — जो शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ता रहे वह वर्धमान और जो कृष्णपक्ष के चंद्रमा की तरह घटता है उसे हीयमान कहते हैं।
प्र.५९. अवस्थित और अनवस्थित अवधिज्ञान से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — जो अवधिज्ञान न घटता है और न बढ़ता है सदैव एक सा रहता है उसे अवस्थित और जो हवा से प्रेरित जल की तरंग की तरह घटता बढ़ता रहे एक सा ना रहे उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं।
प्र.६०.अनुगामी और अननुगामी अवधिज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर — अनुगामी और अननुगामी अवधिज्ञान के ३ भेद हैं—(१) क्षेत्रानुगामी, (२) भवानुगामी, (३) उभयानुगामी। इनके विपरीत होने वाले ज्ञान अननुगामी अवधिज्ञान के भेद हैं।
प्र.६१. मन:पर्यय ज्ञान कब होता है ?
उत्तर — जैसे ही भावी तीर्थंकर दीक्षा लेते हैं उन्हें मन: पर्ययज्ञान हो जाता है।
प्र.६२. मन:पर्यय ज्ञान के कितने भेद हैं ?
उत्तर — ऋजुविपुलमति मन:पर्यय: ।।२३।। अर्थात् ऋजुमति और विपुलमति के भेद से मन: पर्ययज्ञान दो प्रकार का होता है।
प्र.६३. ऋजु का अर्थ क्या है ?
उत्तर — ऋजु का अर्थ है सरलता।
प्र.६४. ऋजुमति मन: पर्ययज्ञान क्या है ?
उत्तर — वह ज्ञान जो मन, वचन की सरलता से चिंतित पर के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानता है ऋजुमति मन: पर्ययज्ञान है।
प्र.६५. विपुलमति मन: पर्ययज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर — वह ज्ञान जो सरल तथा कुटिल रूप से चिंतित पर के मन में स्थित रूपी पदार्थों को जानता है वह विपुलमति मन: पर्यय ज्ञान है।
प्र.६६. ऋजुमति और विपुलमति मन: पर्ययज्ञान में क्या अंतर है ?
उत्तर — विशुद्धय प्रतिपाताभ्यां तद्विशेष: अर्थात् परिणामों की विशुद्धता एवम् अप्रतिपात इन दोनों कारणों से ऋजुमति और विपुलमति मन: पर्ययज्ञान में अंतर होता है।
प्र.६७. विशुद्धि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — मन: पर्यय ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर आत्मा में जो निर्मलता आती है उसे विशुद्धि कहते हैं।
प्र.६८. अप्रतिपात से क्या समझते हैं ?
उत्तर — गिरने का नाम प्रतिपात और नहीं गिरने का नाम अप्रतिपात है।
प्र.६९. ऋजुमति और विपुलमति मन: पर्ययज्ञान में अंतर बताईये ।
उत्तर — ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान में यह अंतर है कि-
प्र.७०. अवधिज्ञान और मन: पर्ययज्ञान में क्या विशेषता या अंतर है ?
उत्तर — विशुद्धिक्षेत्रस्वामीविषयेभ्योऽवधि मन:पर्यययो: । अवधिज्ञान और मन:—पयर्यज्ञान में विशुद्धता,क्षेत्र , स्वामी और विषय की अपेक्षा विशेषता अथवा अंतर होता है।
प्र.७१. मति—श्रुत ज्ञान का विषय क्या है ?
उत्तर — मति श्रुतयोर्निबन्धोद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु। अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय संबंध समस्त पर्यायों से रहित जीव पुद्गल आदि समस्त द्रव्यों में है । मति—श्रुतज्ञान जीवादि छहों द्रव्यों को जानते हैं परंतु उनकी पर्यायों को नहीं।
प्र.७२. अवधिज्ञान का विषय बताईये ?
उत्तर — रूपिष्ववधे:।अवधिज्ञान समस्त रूपी पदार्थों को जानता है।
प्र.७३. मन: पर्ययज्ञान का विषय संबंध क्या है ?
उत्तर — तदनन्तभागे मन: पर्ययस्य। अर्थात् मन: पर्ययज्ञान का विषय अवधिज्ञान के अनंतवे भाग को जानता है। अवधिज्ञान से मन:—पर्ययज्ञान का विषय अत्यंत सूक्ष्म है।
प्र.७४. केवलज्ञान का विषय क्या है ?
उत्तर — सर्वद्रव्य पर्यायेषु केवलस्य । अर्थात् केवलज्ञान समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है।
प्र.७५. द्रव्य किसे कहते हैं ?
उत्तर — सत् द्रव्य लक्षणम् अर्थात् जो उत्पाद, व्यय , ध्रौव्य युक्त है वह सत् है गुण पर्याय् सहित है वह द्रव्य है।
प्र.७६. पर्याय किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो चारों ओर से द्रव्य के प्रत्येक गुण को प्राप्त होती है , पर्याय है।
प्र.७७. एक आत्मा में एक साथ कितने ज्ञान हो सकते हैं ?
उत्तर — एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्र्य: एक जीव में एक साथ एक को आदि लेकर चार ज्ञान हो सकते हैं ।
प्र.७८. आत्मा में एक साथ होने वाले ज्ञान कौन से हैं।
उत्तर — किसी आत्मा में एक ज्ञान हो तो केवल ज्ञान दो ज्ञान हो तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तीन ज्ञान हो तो मति—श्रुत अवधि ज्ञान या मति — श्रुत, मन:— पर्ययज्ञान चार ज्ञान हो तो मति, श्रुत, अवधि और मन: पर्ययज्ञान
प्र.७९. वे कौन से ज्ञान हैं जो मिथ्या अथवा विपरीत भी होते हैं ?
उत्तर — ‘‘मति श्रुतावधयोविपर्ययश्च’’ । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान , अवधिज्ञान विपरीत अथवा मिथ्या ज्ञान भी होते हैं।
प्र.८०. मति—श्रुत—अवधिज्ञान विपरीत कैसे अथवा क्यों होते हैं ?
उत्तर — अज्ञान से होने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान होता है , अधूरा होता है जैसे रज रहित कड़वी तुंबी में रखने से दूध कड़वा हो जाता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शन के संसर्ग से इन ज्ञानों में विपरीतता आ जाती है।
प्र.८१. मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या क्यों है ?
उत्तर — सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरून्मत्तवत्। सत्—असत् पदार्थो में विशेष ज्ञान न होने से, अपनी इच्छानुसार जैसा तैसा जानने के कारण पागल पुरुष के ज्ञान की तरह मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्या ही है।
प्र.८२. सतसतो: से क्या आशय है ?
उत्तर — सत् — प्रशस्त तत्वज्ञान तथा असत् — अप्रशस्त तत्वज्ञान ।
प्र.८३. मति, श्रुत, अवधिज्ञान में विपरीतता किस कारण से आती है ?
उत्तर — सत्—असत् संबंधी निर्णय न करके अपनी इच्छा से अभिप्राय लेने के कारण मति, श्रुत, अवधिज्ञान में विपरीतता आ जाती है ।
प्र.८४. कुमतिज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर — पर उपदेश के बिना यंत्र, कूट, विष, बंध आदि के विषयों में जो बुद्धि प्रवृत्त होती है वह कुमतिज्ञान है।
प्र.८५. कुश्रुतज्ञान किसे कहते हैं ?
उत्तर — हिंसादि पाप कर्मों के विधायक तप तथा असमीचीन तत्व के प्रतिपादक ग्रंथों (कपिलादि द्वारा रचे गये) को कुश्रुत तथा उसके ज्ञान को कुश्रुतज्ञान कहते हैं ।
प्र.८६. सम्यक्ज्ञान और मिथ्याज्ञान में क्या अंतर है ?
उत्तर — ज्ञेय के अनुसार होने वाला ज्ञान सम्यक्ज्ञान तथा ज्ञेय के विपरीत होने वाला ज्ञान मिथ्याज्ञान है।
प्र.८७. नय के भेद कौन से है ?
उत्तर —‘‘नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढ़ैवम्भूता नया:।’’ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये सात नय है।
प्र.८८. नैगम नय से क्या आशय है ?
उत्तर — कार्य संपन्न हुए बिना संकल्पमात्र को ग्रहण करना नैगमनय हैं।
प्र.८९. नैगमनय का उदाहरण दीजिये ।
उत्तर — जैसे सब्जी सुधारती किसी महिला से कोई पूछे कि तुम क्या कर रही हो ? वह कहती है — सब्जी बना रही हूँ । यद्यपि उस समय वह सब्जी बना नहीं रही है मात्र सब्जी बनाने का संकल्प होने से नैगमनय इसे सत्य स्वीकारता है।
प्र.९०. संग्रह नय किसे कहते हैं ?
उत्तर — भेद सहित समस्त पर्यायों को अपनी जाति के अवरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करना संग्रहनय है।
प्र.९१. व्यवहारनय किसे कहते हैं ?
उत्तर — संग्रहनय द्वारा ग्रहण किये पदार्थों का विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है।
प्र.९२. ऋजुसूत्र नय से क्या आशय है ?
उत्तर — ऋजु का अर्थ सरल है और जो सरल को स्वीकार करता है वह ऋजुसूत्रनय है।
प्र.९३. शब्द नय किसे कहते हैं ?
उत्तर — लंग, संख्या, साधना आदि के व्यभिचार की निवृत्ति करने वाला नय शब्दनय है।
प्र.९४. समभिरूढ़ नय किसे कहते हैं ?
उत्तर — जो अनेक अर्थों को छोड़कर प्रधानता से एक में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़नय है।
प्र.९५. एवंभूतनय से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर — जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय कराने वाले नय को एवंभूतनय कहते है । जैसे राज्य करता हुआ ही राजा है अन्यथा नहीं।
प्र.९६. नैगम,संग्रह, व्यवहार आदि नयों को क्रमश: क्यों रखा गया है ?
उत्तर — ये सातों ही नय आगे जाकर सूक्ष्म विषय वाले होने के कारण इनका यही क्रम रखा गया है। पहला—पहला नय आगे आने वाले नयों का हेतु है इसलिये भी यही क्रम रखा गया ।
प्र.९७. क्या ये नय निरपेक्ष रूप सम्यक्तव के हेतु हो सकते हैं ?
उत्तर — सातों नय यदि निरक्षेप रहे तो मिथ्या हो जायेंगे, सापेक्ष रहने पर ही ये सम्यक्त्व के हेतु हैं।
प्र.९८. कार्य सिद्धि कितने नयों से होती है ?
उत्तर — सातों ही नय कार्य सिद्धि के हेतु हैं।
प्र.९९. हमारे जीवन में नय की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर — नय का ज्ञान वात्सल्य भावना का प्रतीक है, सफल जीवन की कुंजी है, नय जीवन के मार्गदर्शक हैं, नय मतभेद तथा हठवादिता को हटाता है। संक्षेप में नय संतोषमय जीवन जीने की एक कला है।
प्र.१००. संसारी प्राणी दर्शन, ज्ञान,चरित्र को किस अर्थ में ग्रहण करते है ?
उत्तर — सच्ची श्रद्धा सच्चा ज्ञान तथा सच्चा चारित्र अथवा सम्यक्दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक्चारित्र से सभी संसारी प्राणी परिचित है।