साधना के पथ पर
सम्राट् श्री ऋषभदेव ने दीर्घकाल तक राज्य का संचालन किया, प्रजा का पुत्रवत् पालन किया, प्रजा में फैली हुई अव्यवस्था का उन्मूलन किया, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार किया, नीति मर्यादाओं को कायम किया। वे प्रजा के शोषक नहीं, पोषक थे, शासक ही नहीं सेवक भी थे । श्रीमद्भागवत के अनुसार उनके शासन काल में प्रजा की एक ही चाह थी कि प्रतिपल प्रतिक्षण हमारा प्रेम प्रभु में ही लगा रहे । वे किसी भी वस्तु की चाह नहीं करते थे । अन्त में अपना उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र भरत को बनाकर और शेष निन्यानवें पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्य देकर स्वयं साधना के पथ पर बढ़ने के लिए प्रस्तुत हुए।
दान
अभिनिष्क्रमण के पूर्व श्री ऋषभदेव ने प्रभात के पुण्य-पलों में एक वर्ष तक एक करोड आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन दान दी । इस प्रकार एक वर्ष में तीन अरब अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया । दान देकर, जन-जन के अन्तर्मानस में दान की भव्य-भावना उबुद्ध की।
महाभिनिष्क्रमण
भारतीय इतिहास में चैत्र कृष्णा अष्टमी का दिन सदा स्मरणीय रहेगा, जिस दिन सम्राट् श्री ऋषभ राज्य-वैभव को ठुकराकर, भोग-विलास को तिलाञ्जलि देकर, परमात्मत्त्व को जागृत करने के लिए “सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खामि" सभी पाप प्रवृत्तियों का परित्याग करता है, इस भव्य-भावना के साथ विनीता नगरी से निकलकर सिद्धार्थ उद्यान में, अशोक वृक्ष के नीचे, षष्ठ भक्त के तप से युक्त होकर सर्वप्रथम परिबाट बने । भगवान् के प्रेम से प्रेरित होकर उग्रवंश, भोगवंश, राजन्य वंश, और क्षत्रिय वंश के चार सहस्र साथियों ने भी उनके साथ ही संयम ग्रहण किया। यद्यपि उन चार सहस्र साथियों को भगवान् ने प्रवज्या प्रदान नहीं की, किन्तु उन्होंने भगवान् का अनुसरण कर स्वयं ही लुचन आदि क्रियाएँ की ।
विवेक के अभाव में
भगवान् श्री ऋषभदेव श्रमरण बनने के पश्चात् अखण्ड मौनवती बनकर एकान्त-शान्त स्थान में ध्यानस्थ होकर रहने लगे। जिनसेन के अनुसार उन्होंने छह महीने का अनशन वत अंगीकार किया। श्वेताम्बर साहित्य में ऐसा स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। वहाँ भिक्षा के सम्बन्ध में जो विवरण मिलता है, वह इस प्रकार है-घोर अभिग्रहों को ग्रहण कर अनासक्त बन भिक्षाहेतु ग्रामानुग्राम विचरण करते थे, पर भिक्षा और उसकी विधि से जनता अनभिज्ञ थी, अतः भिक्षा उपलब्ध नहीं होती थी। वे चार सहस्र श्रमण चिरकाल तक यह प्रतीक्षा करते रहे कि भगवान् मौन छोड़कर पूर्ववत् हमारी सुधबुध लेंगे, सुख सुविधा का प्रयत्न करेंगे, पर भगवान् आत्मस्थ रहे, कुछ नहीं बोले । वे द्रव्यलिंगधारी श्रमरण भूख-प्यास से संत्रस्त हो सम्राट भरत के भय से पुनः गृहस्थ न बनकर वल्कलधारी तापस आदि हो गये । वस्तुतः विवेक के अभाव में साधक साधना से पथभ्रष्ट हो जाता है।
साधक जीवन
भगवान् श्री ऋषभदेव अम्लान चित्त से, अव्यथित मन से भिक्षा के लिए नगरों व ग्रामों में परिभ्रमण करते । भावुक मानव भगवान् को निहारकर भक्ति-भावना से विभोर होकर अपनी रूपवती कन्याओं को, बढ़िया वस्त्रों को, अमूल्य आभूषणों को और गज, तुरङ्ग, रथ, सिंहासन आदि वस्तुओं को प्रस्तुत करते । ग्रहण करने के लिए अभ्यर्थना करते, पर कोई भी विधिवत् भिक्षा न देता । भगवान् उन वस्तुओं को बिना ग्रहण किये जब उलटे पैरों लौट जाते तो वे नहीं समझ पाते कि भगवान् को किस वस्तु की आवश्यकता है? श्रीमद्भागवतकार ने भगवान् श्री ऋषभदेव को श्रमण बनने के पश्चात् अज्ञ व्यक्तियों ने जो दारुण कष्ट प्रदान किये उसका शब्द चित्र उपस्थित किया है, पर वैसा वर्णन जैन साहित्य में नहीं है। जैन-साहित्य के परिशीलन से यह भी ज्ञात होता है कि उस युग का मानव इतना क्र र प्रकृति का नहीं था, जितना भागवतकार ने चित्रित किया है । भागवत का प्रस्तुत वर्णन श्रमण भगवान् महावीर के अनार्य देशों में विहरण के समान है ।
विशिष्ट लाभ
एक वर्ष पूर्ण हुमा । कुरुजनपदीय गजपुर के अधिपति बाहुबली के पौत्र एशं सोमप्रभ राजा के पुत्र श्रेयांस ने स्वप्न देखा कि सुमेरु पर्वत श्याम वर्ण का हो गया है। उसे मैंने अमृत कलश से अभिषिक्त कर पुनः चमकाया । नगरश्रेष्ठी सुबुद्धि ने उसी रात्रि में स्वप्न देखा कि सूर्य की हजार किरणें अपने स्थान से चलित हो रही थीं कि श्रेयांस ने उन रश्मियों को पुनः सूर्य में संस्थापित कर दिया । राजा सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि एक महान् पुरुष शत्रुओं से युद्ध कर रहा है, श्रेयांस ने उसे सहायता प्रदान की, जिससे शत्रु का बल नष्ट हो गया। ४७ प्रातः होने पर सभी स्वप्न के सम्बन्ध में चिन्तन-मनन करने लगे । चिन्तन का नवनीत निकला कि अवश्य ही श्रेयांस को विशिष्ट लाभ होने वाला है ।
अक्षय तृतीया
भगवान् श्री ऋषभदेव उसी दिन विचरण करते हुए गजपुर पधारे। चिरकाल के पश्चात् भगवान् को निहार कर पौरजन प्रमुदित हुए। श्रेयांस भी अत्यधिक आह्लादित हुआ । भगवान् परिभ्रमण करते हुए श्रेयांस के यहाँ पधारे । भगवान् के दर्शन और भगवदरूप के चिन्तन से श्रेयांस को पूर्वभव की स्मृति उद्बुद्ध हुई । स्वप्न का सही तथ्य परिज्ञात हुआ। उसने प्रेमपरिपूरित करों से ताजा पाये हुए इस रस के कलशों को ग्रहण कर भगवान् के कर कमलों में रस प्रदान किया। इस प्रकार भगवान् श्री ऋषभदेव को एक सम्वत्सर के पश्चात् भिक्षा प्राप्त हुई और सर्व प्रथम इक्षुरस का पान करने के कारण वे काश्यप के नाम से भी विश्र त हुए ।
प्राचार्य जिनसेन के शब्दों में काश्य तेज को कहते हैं। भगवान् श्री ऋषभदेव उस तेज के रक्षक थे अतः काश्यप कहलाये ।
प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में सर्व प्रथम वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयांस ने इक्षु रस का दान दिया अतः वह तृतीया इक्षु-तृतीया या अक्षय तृतीया पर्व के रूप में प्रसिद्ध हुई। दान से वह तिथि भी अक्षय हो गई।