पूर्व में यह बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव के पिता 'नाभि' अन्तिम कुलकर थे। जब उनके नेतृत्व में ही धिक्कारनीति का उल्लंघन होने लगा, प्राचीन मर्यादाएँ विच्छिन्न होने लगी, तब उस अव्यवस्था से यौगलिक घबराकर श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे और उन्हें सारी स्थिति का परिज्ञान कराया। ऋषभदेव ने कहा--"जो मर्यादाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं उन्हें दण्ड मिलना चाहिए और यह व्यवस्था राजा ही कर सकता है, क्योंकि शक्ति के सारे स्रोत उसमें केन्द्रित होते हैं।" समय को परखने वाले नाभि ने यौगलिकों की विनम्र प्रार्थना पर ऋषभदेव का राज्याभिषेक कर "राजा" घोषित किया। ऋषभदेव राजा बने और शेष जनता प्रजा। इस प्रकार पूर्व चली आ रही "कुलकर" व्यवस्था का अन्त हया और एक नवीन अध्याय का प्रारम्भ हुआ।
राज्याभिषेक के समय युगलसमूह कमलपत्रों में पानी लाकर ऋषभदेव के पद-पद्मों का सिंचन करने लगे। उनके विनीत स्वभाव को लक्ष्य में रखकर नगरी का नाम "विनीता" रखा, उसका अपर नाम अयोध्या भी है। उस प्रान्त क नाम विनीत भूमि और “इक्खाग भूमि" पड़ा। कुछ समय के पश्चात् प्रस्तुत प्रान्त मध्यदेश के नाम से प्रख्यात हुआ।
राज्य-व्यवस्था का सूत्रपात
इसी प्रकार श्री ऋषभदेव ने मानव जाति को विनाश के गर्त से बचाने के लिए और राज्य की सुव्यवस्था हेतु आरक्षक दल की स्थापना की, जिसके अधिकारी 'उग्र' कहलाये। मंत्रिमंडल बनाया जिसके अधिकार ‘भोग' नाम से प्रसिद्ध हुए। सम्राट् के समीपस्थ जन, जो परामर्श प्रदाता थे वे, 'राजन्य' के नाम से विख्यात हुए और अन्य राजकर्मचारी 'क्षत्रिय' नाम से पहचाने गये ।। दुष्टों के दमन एवं प्रजा तथा राज्य के संरक्षणार्थ चार प्रकार की सेना व सेनापतियों की व्यवस्था की।५ साम, दाम, दण्ड और भेद नीति का प्रचलन किया।८६ चार प्रकार की दण्ड-व्यवस्था निर्मित की। (१) परिभाष, (२) मण्डलबन्ध, (३) चारक, (४) छविच्छेद ।
परिभाष
कुछ समय के लिये अपराधी व्यक्ति को आक्रोशपूर्ण शब्दों में नजरबन्द रहने प्रादि का दण्ड देना।
मण्डलबन्ध
सीमित क्षेत्र में रहने का दण्ड देना ।
चारक
बन्दीगृह में बन्द करने का दण्ड देना।
छविच्छेद
करादि अंगोपाङ्गों के छेदन का दण्ड देना ।
ये चार नीतियाँ कब चलीं, इसमें विद्वानों के विभिन्न मत हैं । कुछ विज्ञों का मन्तव्य है कि प्रथम दो नीतियाँ ऋषभ के समय चलीं और दो भरत के समय । प्राचार्य अभयदेव के मन्तव्यानुसार ये चारों नीतियाँ भरत के समय चलीं। प्राचार्य भद्रबाहु और प्राचार्य मलय गिरी के अभितानुसार वन्ध (बेड़ी का प्रयोग) और घात (डण्डे का प्रयोग) ऋषभनाथ के समय प्रारम्भ हो गये थे। और मृत्यु दण्ड का प्रारम्भ भरत के समय हुआ। जिनसेनाचार्य के अनुसार वधबन्धन आदि शारीरिक दण्ड भरत के समय चले।
खाद्य समस्या का समाधान
कन्द, मूल, पत्र, पुष्प और फल ये ऋषभदेव के पूर्ववर्ती मानवों का अाहार था। किन्तु जनसंख्या की अभिवृद्धि होने पर कन्द मूल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होने से मानव ने अन्नादि का उपयोग प्रारम्भ किया। किन्तु पकाने के साधन का उस समय ज्ञान न होने से कच्चे अन्न का उपयोग प्रारम्भ हया। आगे चलकर कच्चा अन्न दुष्पाच्य होने लगा तो लोग पुनः श्री ऋषभदेव के पास पहुँचे और उनसे अपनी समस्या का समाधान माँगा। श्री ऋषभदेव ने हाथ से मलकर खाने की सलाह दी। कालक्रम से जब वह भी दुष्पच हो गया तो पानी से भिगोकर और मुटठी व बगल में रखकर गर्म कर खाने की राय दी। उससे भी अजीर्ण की व्याधि समाप्त नहीं हुई । श्री ऋषभदेव अग्नि के सम्बन्ध में जानते थे पर वह काल एकान्त स्निग्ध था, अग्नि उत्पन्न नहीं हो सकती थी। अग्नि उत्पत्ति के लिए एकान्त स्निग्ध और एकान्त रुक्ष दोनों ही काल अनुपयुक्त होते हैं । " समय के कदम आगे बढ़े । जब काल स्निग्ध-रुक्ष हुअा तब लकड़ियों को घिसकर अग्नि पैदा की और पात्र निर्माण कर तथा पाक-विद्या सिखाकर खाद्यसमस्या का समाधान किया । संभवतः इसी कारण अथर्ववेद ने ऋषभसूक्त में भगवान् श्री ऋषभदेव की अन्य विशेषणों के साथ "जात वेदस्” [अग्नि] के रूप में भी स्तुति की है।
भगवान् श्री ऋषभदेव सर्वप्रथम वैज्ञानिक और समाजशास्त्री थे। उन्होंने समाज की रचना की। भागवत में आता है, कि एक साल वृष्टि न होने से लोग भूवे मरने लगे, सर्वत्र "त्राहि-त्राहि" मच गई, तब ऋषभदेव ने प्रात्मशक्ति से पानी बरसाया और उस भयंकर अकालजन्य संकट को दूर किया ।+ प्रस्तुत घटना इस बात को प्रकट करती है कि उस समय खाद्य वस्तुओं की कमी आ चुकी थी, जनता पर अभाव की काली घटाएँ घिरी हुई थीं, उसे उन्होंने दूर किया । वर्षा बरसाने के कारण वे वर्षा के देवता के रूप में भी प्रसिद्ध हैं । कला का अध्ययन कराया और सुन्दरी को गणित विद्या का परिज्ञान कराया। व्यवहारसाधन-हेतु मान [माप], उन्मान [तोला, मासा, आदि वजन] अवमान [गज, फुट, इच] व प्रतिमान [छटांक, सेर, मन, आदि] सिखाये । मरिण आदि पिरोने की कला भी बताई। इस प्रकार सम्राट् श्री ऋषभदेव ने प्रजा के हित के लिए, अभ्युदय के लिए पुरुषों को बहत्तर कलाएँ, स्त्रियों को चौंसठ कलाएँ और सौ शिल्पों का परिज्ञान कराया। असि, मषि, और कृषि [सुरक्षा, व्यापार, उत्पादन] की व्यवस्था की । अश्व, हस्ती, गायें, आदि पशुत्रों का उपयोग प्रारम्भ किया। जीवनोपयोगी प्रवृत्तियों का विकास कर जीवन को सरस, शिष्ट और व्यवहार योग्य बनाया।
वर्णव्यवस्था
यौगलिकों के समय में वर्ण-व्यवस्था नहीं थी। सम्राट् श्री ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना की। यह वर्णन आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र-प्रभृति श्वेताम्बर ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से नहीं है । परवर्ती विज्ञों ने उस पर अवश्य कुछ लिखा है, पर दिगम्बराचार्य जिनसेन की तरह विशद रूप से नहीं। यहाँ यह स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था की संस्थापना वृत्ति और आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए थी, न कि ऊँचता व नीचता की दृष्टि से ।
मनुष्य जाति एक है। केवल प्राजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो गई है-वतसंस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रधारण से क्षत्रिय, न्यायपूर्ण धनार्जन से वैश्य और सेवावृत्ति से शूद्र । कार्य से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं ।
आचार्य जिनसेन के मन्तव्यानुसार सम्राट् श्री ऋषभदेव ने स्वयं अपनी भुजाओं में शस्त्र धारण कर मानवों को यह शिक्षा प्रदान की कि अतताइयों से निर्बल मानवों की रक्षा करना शक्तिसम्पन्न व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य है। श्री ऋषभदेव के प्रस्तुत आह्वान से कितने ही व्यक्तियों ने यह कार्य स्वीकार किया । वे क्षत्रिय नाम से पहचाने गये ।
श्री ऋषभदेव ने दूर दूर तक के प्रदेशों की जंघा बल से पदयात्रा कर जन-जन के मन में यह विचारज्योति प्रज्वलित की कि मनुष्य को सतत गतिमान् रहना चाहिए, एक स्थान से द्वितीय स्थान पर वस्तुओं का आयात-निर्यात कर प्रजा के जीवन में सुख का संचार करना चाहिए। जो व्यक्ति प्रस्तुत कार्य के लिए सन्नद्ध हुए, वे वैश्य की संज्ञा से अभिहित किये गये।
श्री ऋषभदेव ने मानवों को यह प्रेरणा प्रदान की कि कर्म-युग में एक दूसरे के सहयोग के बिना कार्य नहीं हो सकता । अतः ऐसे सेवानिष्ठ व्यक्तियों की आवश्यकता है--जो बिना किसी भेदभाव के सेवा कर सकें। जो व्यक्ति सेवा के लिए तैयार हए उनको श्री ऋषभदेव ने शूद्र कहा ।
इस प्रकर शस्त्र धारण कर आजीविका करने वाले क्षत्रिय हुए, खेती और पशु पालन के द्वारा जीविका करने वाले वैश्य कहलाये और सेवा शुश्र षा करने वाले शूद्र कहलाये ।
ब्राह्मण वर्ण की स्थापना सम्राट भरत ने की । स्थापना का इतिवृत्त बताते हुए आवश्यक नियुक्ति, अावश्यक चूरिण, आवश्यक मलयगिरि वृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति, त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र, और कल्पसूत्र की टीकाओं में लिखा है कि सम्राट् भरत के के सभी अनुज सम्राट भरत की अधीनता स्वीकार न कर भगवान् श्री ऋषभदेव के पास संयम ग्रहण कर लेते हैं तब सम्राट् भरत उनके पास जाते हैं और पुनः राज्य ग्रहण करने के लिए अभ्यर्थना करते हैं किन्तु त्यक्त राज्य को वे वमन के समान जानकर पुनः ग्रहण नहीं करते । तब सम्राट भरत ने भ्राताओं को भोजन कराने हेतु पाँच सौ शकट भोजन मंगवाया और उन्हें भोजन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया । पर भगवान् श्री ऋषभदेव ने कहा–प्राधाकर्मी, राज्यपिण्ड आदि पाहार श्रमणों के लिए त्याज्य है । शकेन्द्र के निर्देशानुसार वह भोजन विशिष्ट श्रावकों को प्रदान किया और प्रतिदिन उन्हें भरत के भोजनालय में ही भोजनहेतु निमंत्रण दिया गया, और उन्हें यह आदेश दिया गया कि सांसारिक प्रवृत्तियों का परित्याग कर स्वाध्याय ध्यान आदि में तल्लीन रहें तथा मुझे यह उपदेश देते रहें कि "जितो भवान्, वर्धते भयं, तस्मात् मा हन माहन' प्राप जीते जा रहे हैं, भय बढ़ रहा है एतदर्थ आप किसी का हनन न करें । उन श्रद्धालू-श्रावकों ने भरत के आदेश एवं निर्देशानुसार प्रस्तुत कार्य स्वीकार किया। सम्राट भरत ने उनके स्वाध्यायहेतु प्रार्य वेदों का निर्माण किया ।
जब भोजनलुब्धक श्रावकों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ने लगी, तब सम्राट भरत ने सच्चे श्रावकों की परीक्षा को, और जो उस परीक्षण प्रस्तर पर खरे उतरे उन्हें सम्यग् दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यक् चारित्रा के प्रतीक रूप में तीन रेखाओं से चिह्नित कर दिया गया । माहरण का उपदेश देने से वे ब्राह्मण कहलाये, और वे रेखाएं आगे चलकर यज्ञोपवीत के रूप में प्रचलित हो गई।
महापुराण के अनुसार सम्राट् भरत पट्खण्ड पर दिविजय प्राप्त कर और अपार धन लेकर जब अयोध्या लौटे तो उनके मानस में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि इस विराट् धन का त्याग कहाँ करना चाहिए? इसका पात्र कौन व्यक्ति हो सकता है? प्रतिभामूति भरत ने शीघ्र ही निर्णय किया कि ऐसे विलक्षण व्यक्तियों को चुनना चाहिए, जो तीनों वर्गों को चिन्तन-मनन का पालोक प्रदान कर सकें ।
सम्राट भरत ने एक विराट् उत्सव का आयोजन किया। उसमें नागरिकों को नियंत्रित किया। विज्ञों की परीक्षा के लिए महल के मार्ग में हरी घास फल फूल लगा दिये । जो वतरहित थे वे उस पर होकर महल में पहुँच गये और जो व्रती थे वे वहीं पर स्थित हो गये । सम्राट ने महल में न आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि देव, हमने सूना है कि हरे अंकूर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं, जो नेत्रों से भी निहारे नहीं जा सकते । यदि हम आपके पास प्रस्तुत मार्ग से आते हैं तो जो शोभा के लिए नाना प्रकार के सचित्त फल-फूल और ग्रंकुर बिछाये गये है उन्हें हमें रौंदना पड़ता है तथा बहुत से हरितकाय जीवों की हत्या होती है । सम्राट ने अन्य मार्ग से उनको अन्दर बुलवाया और उनकी दया वृत्ति से प्रभावित होकर उन्हें ब्राह्मण की संज्ञा दी और दान, मान आदि सत्कार से सम्मानित किया ।
वर्णोत्पत्ति के सम्बन्ध में ईश्वरकतृत्व की मान्यता के कारण वैदिक साहित्य में खासी अच्छी चर्चा है। उस पर विस्तार से विश्लेषण करना, यहाँ अपेक्षित नहीं है । संक्षेप में - पुरुष सूक्त में एक संवाद है और वह संवाद कृष्ण, शुक्लयजू, ऋक् और अथर्व इन चारों वेदों की संहिताओं में प्राप्त होता है।
प्रश्न है - ऋषियों ने जिस पुरुष का विधान किया उसे कितने प्रकारों से कल्पित किया? उसका मुख क्या हुया? उसके बाहु कौन बताये गये? उसके (जांघ) उरु कौन हुए? और उसके कौन पैर कहे जाते हैं?
उत्तर है - ब्राह्मण उसका मुख था, राजन्यक्षत्रिय उसका बाहु, वैश्य उसका उरु, और शूद्र उसके पैर हुए।
यह एक लाक्षणिक वर्णन है । पर पीछे के प्राचार्य लाक्षणिकता को विस्मृत कर शब्दों से निपट गये और उन्होंने कहा-ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजारों से क्षत्रिय, उरुषों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए । एतदर्थ ब्राह्मण को मुखज, क्षत्रिय को बाहुज वैश्य को उरुज और परिचारक को पादज लिखा है ।
वैदिक साहित्य में अनेक स्थलों पर भगवान् श्री ऋषभदेव को "ब्रह्मा" कहा है। संभवतः प्रस्तुत सूक्त का सम्बन्ध भगवान् श्री ऋषभदेव से ही हो।
जैन संस्कृति की तरह वैदिक संस्कृति भी वर्णोत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न मत रखती है। साथ ही जैन संस्कृति की तरह वह भी प्रारम्भ में वर्ण-व्यवस्था जन्म से न मानकर कर्म से मानती थी।