भरत समग्र भारत में यद्यपि एक शासनतन्त्रा के द्वारा एक अखण्ड भारतीय संस्कृति की स्थापना करने के लिए प्रयत्नशील थे, मगर दूसरों की स्वतन्त्राता को सीमित किये बिना उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता था। भाइयों के दीक्षित होने से यद्यपि उनका पथ निष्कण्टक बन गया था, तथापि एक बड़ी बाधा अब भी उनके सामने थी। वह थी बाहुबली को अपना आज्ञानुवर्ती बनाना। इसके लिए उसने अब अपने लघु भ्राता बाहुबली को यह सन्देश पहुँचाया कि वह अधीनता स्वीकार करले। ज्योंही भरत का यह सन्देश सुना, त्योंही बाहुबली की भृकुटि तन गई। उपशान्त क्रोध उभर आया। दाँतों को पीसते हुए उसने कहा-"क्या भाई भरत की भूख अभी तक शान्त नहीं हुई है ? अपने लघु भ्राताओं के राज्य को छीन करके भी उसे सन्तोष नहीं हुया है। क्या वह मेरे राज्य को भी हड़पना चाहता है। यदि वह यह समझता है कि मैं शक्तिशाली हूँ और शक्ति से सभी को चट कर जाऊँगा तो यह शक्ति का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है। मानवता का भयङ्कर अपमान है और व्यवस्था का अतिक्रमण है। हमारे पूज्य पिता व्यवस्था के निर्माता हैं और हम उनके पुत्र होकर व्यवस्था को भङ्ग करते हैं ! यह हमारे लिए उचित नहीं है। बाहु-बल की दृष्टि से मैं भरत से किसी प्रकार कम नहीं हूँ। यदि वह अपने बड़प्पन को विस्मृत कर अनुचित व्यवहार करता है तो मैं चुप्पी नहीं साध सकता। मैं दिखा दूँगा भरत को कि आक्रमण करना कितना अनुचित है । जब तक वह मुझे नहीं जीतता तब तक विजेता नहीं है ।
भरत विराट सेना लेकर बाहुबली से युद्ध करने के लिए "बहली देश" की सीमा पर पहुँच गये । बाहुबली भी अपनी छोटी सेना सजाकर युद्ध के मैदान में आगया । बाहुबली के वीर सैनिकों ने भरत की विराट सेना के छक्के छुड़ा दिये । लम्बे समय तक युद्ध चलता रहा, पर न भरत ही जीते और न बाहुबली ही। अन्त में बाहुबली के कहने पर निर्णय किया कि व्यर्थ ही मानवों का रक्त-पात करना अनुचित है, क्यों न हम दोनों मिलकर युद्ध करलें । दिगम्बराचार्य जिनसेन ने दोनों भाइयों के जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध इन तीन युद्धों का निरूपण किया है । प्राचार्य जिनदास गणिमहत्तर ने दृष्टि युद्ध, वाग् युद्ध, बाहु युद्ध और मुष्टि युद्ध का प्ररूपण किया है ।
उपाध्याय श्री विनय विजय जी ने दृष्टि युद्ध, वाग् युद्ध, मुष्टियुद्ध, दण्ड युद्ध इन चार युद्धों का निर्देश किया है ।
आवश्यक भाष्यकार, तथा प्राचार्य हेमचन्द्र व समयसुन्दर प्रभृति ने दृष्टि युद्ध, वाक्युद्ध, बाहुयुद्ध, मुष्टि युद्ध और दण्डयुद्ध इन पाँच का वर्णन किया है । सभी में सम्राट् भरत पराजित हुए और बाहुबली विजयी हुए। भरत को अपने लघु भ्रातासे पराजित होना अत्यधिक अखरा । आवेश में आकर और मर्यादा को विस्मृत कर बाहुबली के शिरश्छेदन करने हेतु भरत ने चक्र का प्रयोग किया। यह देख बाहुबली का खून उबल गया। बाहबली ने उछलकर चक्र को पकड़ना चाहा, पर चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा कर पुनः भरत के पास लौट गया । बाहुबली का बाल भी बाँका न हुआ। यह देख सभी सन्न रह गये । बाहुबली की विरुदावली से भू-नभ गूंज उठा । भरत अपने दुष्कृत्य पर लज्जित हो गये ।
इस घटना से क्र द्ध हो बाहुबली ने भरत पर प्रहार करने के लिए अपनी प्रबल मुट्ठी उठाई । उसे देख लाखों कण्ठों से ये स्वर लहरियाँ फूट पड़ी-सम्राट भरत ने भूल की है, पर आप भूल न करें। लघु भाई के द्वारा बड़े भाई की हत्या अनुचित ही नहीं, अत्यन्त अनुचित है । महान् पिता के पुत्र भी महान होते हैं। क्षमा कीजिये, क्षमा करने वाला कभी छोटा नहीं होता।
बाहुबली का रोष कम हुआ । उठा हुआ हाथ भरत पर न पड़कर स्वयं के सिर पर गिरा । वे लुचन कर श्रमण बन गये । राज्य को ठकराकर पिता के चरण-चिह्नों पर चल पड़े ।
सफलता नहीं मिली
बाहुबली के पैर चलते-चलते रुक गये । वे पिता श्री के शरण में पहुँचने पर भी चरण में नहीं पहुँच सके । पूर्व दीक्षित लधु भ्राताओं को नमन करने की बात स्मृति में आते ही उनके चरण एकान्त शान्त कानन में ही स्तब्ध हो गये, असन्तोष पर विजय पाने वाले बाहुबली अस्मिता से पराजित हो गये । एक वर्ष तक हिमालय की तरह अडोल ध्यान-मुद्रा में अवस्थित रहने पर भी केवल ज्ञान का दिव्य आलोक प्राप्त नहीं हो सका । शरीर पर लताएँ चढ़ गई, पक्षियों ने घौंसले बना लिये, पैर वल्मीकों ( बाँबियों) से वेष्टित हो गए, तथापि सफलता नहीं मिली ।
बाहुबली को केवलज्ञान
एक वर्ष के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव ने बाहुबली में अन्तर्योति जगाने के लिए ब्राह्मी और सुन्दरी को प्रेषित किया।
भगिनीद्वय ने बाहुवली को नमन किया, और कहा-"हस्ती पर आरूढ व्यक्ति को कभी केवल ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती, अतः नीचे उतरो" -- ये शब्द बाहुबली के कर्ण कुहरों में गिरे, चिन्तन का प्रवाह बदला, - कहाँ है यहाँ हाथी? क्या अभिप्राय है इनका? हाँ, समझा, मान हाथी है और मैं उस पर आरूढ़ हूँ। मैं व्यर्थ ही अवस्था के भेद में उलझ गया। वे भाई वय में भले ही मुझ से छोटे हैं, पर चारित्रिक दृष्टि से बड़े हैं। मुझे नमन करना चाहिए।" नमन करने के लिए ज्यों ही पैर उठे कि बन्धन टूट गये । विनय ने अहंकार को पराजित किया। केवली बन गये । भगवान् के चरणों में पहुँच गये। भगवान् श्री ऋषभदेव को नमन कर केवलीपरिषद् में बैठ गये ।
प्राचार्य श्री जिनसेन ने प्रस्तुत घटना का उल्लेख अन्य प्रकार से करते हुए बताया है कि बाहुबली श्रमण बनकर एक वर्ष तक ध्यानस्थ रहे । भरत के अकृत्य का विचार उनके अन्तर्मानस में बना रहा। जब एक वर्ष के पश्चात् भरत पाकर उनकी अर्चना करते हैं तब उनका हृदय निःशल्य बनता है और केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ।
अनासक्त भरत
भरत ने अपने भ्राताओं के साथ जो व्यवहार किया था, उससे वे स्वयं लज्जित थे। भ्राताओं को गँवाकर राज्य प्राप्त कर लेने पर भी उनके अन्तर्मानस में शान्ति नहीं थी। विराट् राज्य का उपभोग करते हुए भी वे उसमें आसक्त नहीं थे। सम्राट होने पर भी वे साम्राज्यवादी नहीं थे।
एक बार भगवान् श्री ऋषभदेव अपने शिष्यवर्गसहित विनीता के बाग में पधारे। जनसमूह धर्मदेशना श्रवण करने को पाया । प्रवचन परिषद् में ही एक सज्जन ने भगवान् से प्रश्न किया "भगवन् ! क्या भरत मोक्षगामी है?" वीतराग भगवान् ने कहा'हाँ'। प्रश्नकर्ता ने कहा-'आश्चर्य है भगवान् होकर भी पुत्र का पक्ष लेते हैं।'
भरत ने सुना और सोचा-भगवान् पर यह आरोप लगा रहा है। इसे मुझे शिक्षा देनी चाहिए। दूसरे ही दिन उस व्यक्ति को फाँसी की सजा सुना दी गई। फाँसी की सजा सुन वह घबराया, भरत के चरणों में गिरा, गिड़गिड़ाया, अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा।
भरत ने कहा-तैल से परिपूरित कटोरे को लेकर विनीता के बाजारों में घूमो। स्मरण रखना, एक बूंद भी नीचे न गिरने पाये। नीचे गिरते ही फाँसी के तख्ते पर लटका दिये जानोगे। यदि एक बूंद भी नीचे न गिरेगी तो तुम्हें मुक्त कर दिया जायेगा।
अभियुक्त सम्राट के आदेशानुसार घूमकर लौट आया।
सम्राट् ने प्रश्न किया-क्या तुम नगर में घूमकर आये हो? अभियुक्त ने विनीत मुद्रा में कहा-हाँ महाराज! सम्राट ने पुनः प्रश्न किया-नगर में तुमने क्या-क्या देखा?
अभियुक्त ने निवेदन किया-कुछ भी नहीं देखा भगवन् !
सम्राट् ने पुनः पूछा-क्या नगर में जो नाटक हो रहे थे वे तुमने नहीं देखे? क्या नगर में जो संगीत मण्डलियाँ यत्रतत्र संगीत गा रही थीं उन्हें तुमने नहीं सुना।
अभियुक्त ने कहा--राजन् ! जब मौत नेत्रों के सामने नाच रही हो तब नाटक कैसे देखे जा सकते हैं? और जब मौत की गुनगुनाहट कर्णकुहरों में चल रही हो तब गीत कैसे सुने जा सकते हैं?
सम्राट ने मुस्कराते हुए कहा-क्या मृत्यु का इतना अधिक भय है?
अभियुक्त ने कहा-सम्राट् को इसका क्या पता? यह तो मृत्युदण्ड पाने वाला ही अनुभव कर सकता है ।
सम्राट् ने कहा-तो क्या सम्राट अमर है? उसे मृत्यु का साक्षात्कार नहीं करना पड़ेगा? तुम तो एक जीवन की मृत्यु से ही इतने अधिक भयाक्रान्त हो गए कि आँखों के सामने नाटक होने पर भी नाटक नहीं देख सके और कानों के पास संगीत की सुमधुर स्वर लहरियाँ झनझनाने पर भी संगीत नहीं सुन सके । परन्तु बन्धु, तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं तो मृत्यु की दीर्घपरम्परा से परिचित हैं अतः मुझे अब साम्राज्य का विराट् सुख भी नहीं लभा पा रहा है । मैं तन से गृहस्थाश्रम में हूँ, पर मन से उपरत है।
अभियुक्त को अब भगवान् के सत्य कथन पर शंका नहीं रही। उसे अपना अपराध समझ में आ गया। उसे मुक्त कर दिया गया । भरत से भारतवर्ष यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रतापपूर्ण प्रतिभासम्पन्न भरत एक अतिजात पुत्र थे। पिता के द्वारा प्राप्त राज्यश्री को उन्होंने अत्यधिक विस्तृत किया और छः खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् बने । केवल तन पर ही नहीं, अपितु प्रजा के मन पर शासन किया। उनकी पुण्य संस्मृति में ही प्रकृत देश का नाम भारतवर्ष हुआ। वसुदेव हिंडी, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, श्रीमद्भागवत, वायुपुराण, अग्निपुराण, महापुराण, नारदपुराण, विष्णु पुराण, गरुडपुराण, ब्रह्मपुराण, मार्कण्डेय पुराण, बाराह पुराण, स्कन्ध पुराण, लिङ्ग पुराण, शिवपुराण', विश्वकोष प्रभृति ग्रन्थों के उद्धरणों के प्रकाश में भी यह स्पष्ट है कि "ऋषभपुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से ही प्रस्तुत देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
कुछ लोग दुष्यन्त पुत्र भरत से भारतवर्ष का नाम संस्थापित करना चाहते हैं पर प्रबल प्रमाणों के अभाव में उनकी बात किस प्रकार मान्य की जा सकती है। उन्हें अपने मतारह को छोड़कर यह सत्य तथ्य स्वीकार करना ही चाहिए कि श्री ऋषभ पुत्र भरत के नाम से ही भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।
भरत को केवल ज्ञान
दीर्घकाल तक राज्यश्री का उपभोग करने के पश्चात् [भगवान् श्री ऋषभदेव के मोक्ष पधारने के वाद] एकबार सम्राट भरत वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर आदर्श ( काँच ) के भव्य-भवन में गये। अँगुली से अँगूठी गिर गई, जिससे अंगुली असुन्दर प्रतीत हुई। भरत के मन में एक विचार प्राया। अन्य प्राभूषण भी उतार दिए। चिन्तन के आलोक में सोचा-पर-द्रव्यों से ही यह शरीर सुन्दर प्रतीत होता है। कृत्रिम सौन्दर्य वस्तुतः सही सौन्दर्य नहीं है । आत्म सौन्दर्य ही सच्चा सौन्दर्य है। भावना का वेग बढ़ा, कर्म-मल को धोकर वे केवल ज्ञानी बन गये ।
श्रीमद् भागवतकार ने सम्राट् भरत का जीवन कुछ अन्य रूप से चित्रित किया है। राजर्षि भरत सारी पृथ्वी का राज भोगकर वन में चले गये और वहाँ तपस्या के द्वारा भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में भगवत्स्थिति को प्राप्त हुए ।
जैन दृष्टि से भगवान् के सौ ही पुत्रों ने तथा ब्राह्मी सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने श्रमरणत्व स्वीकार किया और उत्कृष्ट साधना कर कैवल्य प्राप्त किया। श्रीमद्भागवत के अभिमतानुसार सौ पुत्रों में से कवि, हरि, अन्तरित, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रु मिल, चमस, और करभाजन-ये नौ आत्म विद्याविशारद पूत्र वातरशन श्रमण बने ।