|| श्री महावीर स्वामी विधान - Shri Mahavir Swami Vidhan ||
Mahavir Swami Vidhan
मंगलाचरण

श्रियाभिवृद्ध: खलु वर्धमान:
श्रीमुक्तिलक्ष्म्या भुवनाधिनाथ:।
सर्वार्थसिद्ध्या कृतकृत्यसिद्ध:
त्वां नौमि भो वीर! निजात्मसिद्ध्यै।।१।।

श्रीमान् वीरोऽतिवीर: त्रिभुवनमहित: सौख्यराशिर्जिनेन्द्र:।
यो जात: वुंâडपुर्यां भविकमलरवि: सोऽस्ति सिद्धार्थपुत्र:।।
आषाढे शुक्लषष्ठ्यां सुरनरविनुतो गर्भमायात् जनन्यां।
पित्रो: पूजां विदध्यु: किल दिविजगणा: रत्नधारा ववर्षु:।।२।।

चैत्रे शुक्ले जिनेश: त्रययुतदशमे पावने जायतेस्म।
हृदयै: संगीतवाद्यै: सुरगिरिशिखरे सोऽभिशिक्त: सुराद्यै:।।
मार्गे कृष्णे दशम्यां व्रतगुणमणिभिर्भूषितो जातरूप:।
ध्याने लीन: कदाचित् समदभवकृतस्तूपसर्गस्य जेता।।३।।

राधे शुक्लादशम्यां ग्रसितकलितमा: उद्ययौ ज्ञानसूर्य:।
लोकालोकप्रकाशी ह्यनवधिकिरणै: ध्वस्तमोहांधकार:।।
कृष्णस्याद्ये दिने ते किल नभसि महावीर! दिव्यध्वनि: स्यात्।
त्वत्स्याद्वादामृतं भो: भवगदहरणं देव! अद्यावधीह।।४।।

ऊर्जे कृष्णे निशांते चतुरधिदशमे वासरे मुक्तिमाप्नोत्।
पावापुर्यां च वीर: सहजसुखमय: सप्तहस्तोच्छ्रितोऽसौ।।
कौमार्ये ध्वस्तमार: भुवि किल चरमस्तीर्थकृन्नाथवंशी।
स्वर्णाभो वर्धमानो हतदुरितरवि: िंसहचिन्हेन ज्ञात:।।५।।

मातंगो यक्षदेवो जिनवचनरता सात्र सिद्धायिनी च।
ताभ्यां ते पादपद्मं विजितभव! सदा पूजितं विश्ववंद्यं।।
त्रैलोक्येशं जिनं त्वामहमपि सततं सन्मते! वीर! वंदे।
याचेऽहं तत्फलं भो:! जिनगुणभृत्संपदं देहि मह्यं।।६।।

-अनुष्टुप् छंद-
वर्षद्वासप्ततेरायु: , त्रिशलानंदनो जिन:।
भक्त्यानिशं स्तवीमि त्वां, ज्ञानमत्यै श्रियै त्वरं।।७।।

|| अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्। ||