श्री महावीर स्वामी विधान - जयमाला
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिंतित फलदातार।
तुम गुणमणिमाला कहूँ, सुखसंपति साकार।।१।।

-(चाल-श्रीपति जिनवर करुणा......)-
जय जय श्री सन्मति रत्नाकर! महावीर! वीर! अतिवीर! प्रभो!
जय जय गुणसागर वर्धमान! जय त्रिशलानंदन! धीर प्रभो!।।
जय नाथवंश अवतंस नाथ! जय काश्यपगोत्र शिखामणि हो।
जय जय सिद्धार्थतनुज फिर भी, तुम त्रिभुवन के चूड़ामणि हो।।२।।

जिस वन में ध्यान धरा तुमने, उस वन की शोभा अति न्यारी।
सब ऋतु के पूâल खिलें सुन्दर, सब पूâल रहीं क्यारी क्यारी।।
जहँ शीतल मंद पवन चलती, जल भरे सरोवर लहरायें।
सब जात विरोधी जन्तूगण, आपस में मिलकर हरषायें।।३।।

चहुँ ओर सुभिक्ष सुखद शांती, दुर्भिक्ष रोग का नाम नहीं।
सब ऋतु के फल फल रहे मधुर, सब जन मन हर्ष अपार सही।।
वंâचन छवि देह दिपे सुंदर, दर्शन से तृप्ति नहीं होती।
सुरपति भी नेत्र हजार करे, निरखे पर तृप्ति नहीं होती।।४।।

श्री इन्द्रभूति आदिक ग्यारह, गणधर सातों ऋद्धीयुत थे।
चौदह हजार मुनि अवधिज्ञानि, आदिक सब सात भेदयुत थे।।
चंदना प्रमुख छत्तीस सहस, संयतिकायें सुरनर नुत थीं।
श्रावक इक लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चतुःसंघ संख्या थी।।५।।

प्रभु सात हाथ, उत्तुंग आप, मृगपति लांछन से जग जाने।
आयू बाहत्तर वर्ष कही, तुम लोकालोक सकल जाने।।
भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षा से सिंचित कर करके।
तुम मोक्षमार्ग अक्षुण्ण किया, यति श्रावक धर्म बता करके।।६।।

मैं भी अब आप शरण आया, करुणाकर जी करुणा कीजे।
निज आत्म सुधारस पान करा, सम्यक्त्व निधी पूर्णा कीजे।।
रत्नत्रयनिधि की पूर्ती कर, अपने ही पास बुला लीजे।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ निर्वाणश्री, साम्राज्य मुझे दिलवा दीजे।।७।।

--घत्ता--
जय जय श्रीसन्मति, मुक्ति रमापति, जय जिनगुणसंपति दाता।
तुम पूजूँ ध्याऊँ, भक्ति बढ़ाऊँ, पाऊँ निजगुण विख्याता।।८।।

ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकराय जयमाला महाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।


शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।


-शंभु छंद-
श्रीमहावीर स्वामी विधान, जो भव्य भक्ति से करते हैं।
जिनशासनपति त्रैलोक्यगुरू, की श्रद्धा चित में धरते हैं।।
वे दुषमकाल में भी रत्नत्रय, निधि पाकर सुरवैभव लभते हैं।
फिर परंपरा से ज्ञानमती, वैâवल्य करें शिव लभते हैं।।१।।

।। इत्याशीर्वाद: ।।


।। प्रशस्ति: ।।

-दोहा-
वृषभदेव से वीर तक, श्री चौबीस जिनेश।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे सकल भव क्लेश।।१।।

मूल संघ आचार्य श्री, वुंâदवुंâद गुरुदेव।
इनके अन्वय में हुआ, नंदिसंघ दु:ख छेव।।२।।

बलात्कार गण भारती, गच्छ प्रसिद्ध महान।
इसमें सूरीश्वर हुए शांतिसिंधु गुणखान।।३।।

वीरसागराचार्य थे, उनके पट्टाधीश।
र्आियका दीक्षा दिया, किया कृतार्थ मुनीश।।४।।

शांति वुंâथु अरनाथ की, जन्म भूमि जगतीर्थ।
कुरुजांगल शुभ देश में, हस्तिनागपुर तीर्थ।।५।।

पच्चीस सौ चालिस कहा, वीर अब्द शुभ मान।
माघ शुक्ल पंचमि तिथी, रचना पूरण जान।।६।।

जो भव्य नित पूजा करें, पढ़ें सुनें एकाग्र।
इंद्र चक्रि सुख भोग के, वे पहुँचे लोकाग्र।।७।।

यावत् जग में मेरु हैं, महावीर जिनधर्म।
तावत् गणिनी ज्ञानमती, कृति देवे शिववत्र्म।।८।।

।इति श्रीमहावीरस्वामिविधानं संपूर्णम्।

।। इति शं भूयात् ।।