फग्गुणबहुले पंचमिअवरण्हे अस्सिणीसु चंपाए। रूपाहियछसयजुदो सिद्धिगदो वासुपुज्जजिणो॥
वासुपूज्य की निर्वाणस्थली के रूप में मन्दारगिरि का भी उल्लेख है। कहा जाता है कि अंगदेश की राजधानी चम्पा का क्षेत्र काफी विस्तृत था। सम्भवतः मन्दारगिरि तत्कालीन चम्पा का बाह्य उद्यान रहा होगा। चम्पापुर भारत की प्राचीन ऐतिहासिकसांस्कृतिक नगरियों में से एक है। 'हरिषेण कथाकोष' में ऐसे अनेक राजाओं एवं उनके जीवन की घटनाओं का उल्लेख मिलता है, जिनका सम्बन्ध चम्पा नगरी से रहा है। इनमें राजा दन्तिवाहन (महावीरकाल में), हरिषेण चक्रवर्ती, धर्मघोष श्रेष्ठी, राजा करकंडु प्रमुख हैं। भगवान महावीर, गणधर सुधर्मा स्वामी यहाँ पधारे थे। चम्पा पर अधिकार कर अजातशत्रु ने इसे खूब समृद्ध किया।
यह क्षेत्र भागलपुर शहर से लगभग पाँच किलोमीटर दूर है। यहाँ एक प्राचीन दिगम्बर मन्दिर है। इसके पूर्व और दक्षिण में स्तूपनुमा और मीनारनुमा लगभग पचास फुट ऊँचे प्राचीन मन्दिर हैं। मुख्य मन्दिर में भगवान वासुपूज्य की साढ़े तीन फुट ऊँची मूंगा वर्ण की प्रतिमा प्रतिष्ठित है, और भी अनेक वेदियों में पाषाण एवं धातु की मूर्तियाँ विराजमान हैं। क्षेत्र पर और भी कई मन्दिर हैं।
गिरनार
गिरनार गुजरात में सुप्रसिद्ध निर्वाणक्षेत्र है। यहाँ बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ने दीक्षा लेकर यहाँ तपश्चरण किया। छप्पन दिन पश्चात् ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। पश्चात् यहीं से आषाढकृष्ण अष्टमी के दिन सिद्ध अवस्था प्राप्त की। उनके समय में इसी पर्वत से 536 अन्य मुनिराज भी मोक्ष गये। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र से समय-समय पर करोड़ों मुनिराजों ने मुक्ति पायी। 'प्राकृत निर्वाणकांड' में उल्लेख है-
णेमिसामी पज्जुण्णो संबुकुमारो तहेव अणिरुद्धो। बाहत्तर कोडीओ उज्जते सत्तसया वंदे ॥
अर्थात् भगवान नेमि के अतिरिक्त प्रद्युम्नकुमार, शम्बुकुमार, अनिरुद्धकुमार आदि बहत्तर करोड़ सात सौ मुनियों ने यहाँ से तपश्चरण करते हुए निर्वाणलाभ किया।
इस क्षेत्र पर पाँच टोंकें हैं। इन पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। प्रथम टोंक के पास से सहस्राम्रवन को एक रास्ता जाता है, जो नेमि प्रभु का दीक्षा-प्राप्ति और केवलज्ञानप्राप्ति का स्थान है।
इस पर्वत पर दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन तथा हिन्दू सभी दर्शनार्थ जाते हैं। यहाँ कुछेक ऐसे शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्त्व है। तलहटी के नीचे जैन धर्मशाला और जैन मन्दिर है। मन्दिर की मुख्य वेदी पर भगवान नेमिनाथ की कृष्ण वर्ण की भव्य मूर्ति पद्मासन में प्रतिष्ठित है। यहाँ कुल मिलाकर नौ वेदियाँ हैं।
सम्मेदशिखर (झारखंड)
तीर्थंकर ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ और महावीर को छोड़कर अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ तक शेष बीस तीर्थंकरों की पावन निर्वाणभूमि होने के कारण इसे तीर्थराज की संज्ञा दी गयी है। इसके अलावा अनेकानेक मुनिराजों ने इस पर्वत पर तपस्या कर मुक्ति पायी। प्राकृत 'निर्वाणकांड' में सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों की निर्वाण-प्राप्ति का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :
बीसं तु जिणवरिंदा अमरासुर-वंदिदा धुदकिलेसा। सम्मेदे गिरिसिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं॥ 2 ॥
'तिलोयपण्णत्ति' में बीस तीर्थंकरों का मुक्ति-प्राप्ति का विस्तार से वर्णन तो है ही, उसमें प्रत्येक तीर्थंकरों की मुक्ति-प्राप्ति की तिथि, नक्षत्र और उनके साथ मुक्त होने वाले वीतरागी मुनियों की संख्या भी दी है। दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार की मान्यता है कि तीर्थंकर भगवान जिस-जिस स्थान से मुक्त हुए, उस-उस स्थानविशेष पर सौधर्म इन्द्र ने आकर चिह्नस्वरूप स्वस्तिक बना दिया। पश्चात्, श्रावकों ने उन-उन स्थानों पर चरणचिह्न स्थापित कर दिये।
वर्तमान में तीर्थराज सम्मेदशिखर का एक स्थापित नाम है— पार्श्वनाथ हिल। यह झारखंड के हजारीबाग जिले में स्थित है। यहाँ पहुँचने के लिए गया-दिल्ली मार्ग पर पार्श्वनाथ स्टेशन पर उतरना होता है। स्टेशन से लगभग एक फलांग की दूरी पर 'ईसरी' गाँव में दो दिगम्बर धर्मशालाएँ– तेरापन्थी और बीसपन्थी— बनी हुई हैं। फाटक के भीतर ही शिखरबन्द एक भव्य मन्दिर है। यहीं पर राष्ट्रसन्त क्षु. गणेशप्रसाद वर्णी की समाधि है।
ईसरी से लगभग 22 कि.मी. की दूरी पर पर्वत की तलहटी में 'मधुवन' है। यहाँ तेरापन्थी और बीसपन्थी कोठी नाम से दो विशाल धर्मशालाएँ तथा एक श्वेताम्बर धर्मशाला है। सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए ऊपर जाने के दो मार्ग हैं- एक तो नीमिया घाट से पर्वत की दक्षिण दिशा से है, जहाँ से सबसे पहले पार्श्वनाथ टोंक (इसे कूट भी कहते हैं) पड़ती है। दूसरा मार्ग मधुवन की ओर से है। यात्रियों के लिए यही मार्ग सुविधाजनक है। कुल यात्रा अठारह मील की है। स्नान करके प्रातः तीन-चार बजे से यह यात्रा प्रारम्भ होती है तथा शाम तक यात्री लौट आते हैं।
पर्वत पर ऊपर पहुँचने पर सर्वप्रथम गौतम स्वामी की टोंक मिलती है। यहाँ से बायें मुड़कर पूर्व दिशा की ओर पन्द्रह टोंकों की वन्दना करनी होती है। चन्द्रप्रभ की टोंक अपेक्षाकृत दूर और ऊँचाई पर है। पूर्व दिशा की टोंकों की यात्रा के बाद बीच में जलमन्दिर होते हुए पुनः पश्चिम की टोंकों की वन्दना करते हुए पार्श्वनाथ टोंक पहुँचते हैं। यह अन्तिम टोंक है। यहाँ भगवान पार्श्वनाथ का भव्य मन्दिर है।
तीर्थराज की वन्दना से साधक को बहुत पुण्यार्जन होता है। कहावत है- 'भावसहित बन्दै जो कोई ताहि नरक-पशुगति नहिं होई।'
प्रसंगतः राजगृही का संक्षिप्त उल्लेख कर देना उचित लगता है। राजगृही प्राचीनकाल से जैन नगरी रही है। इस नगर के प्राचीन नाम पंचशैलपुर, गिरिब्रज और कुशाग्रपुर भी मिलते हैं। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की जन्मनगरी होने का गौरव इसे प्राप्त है। यह ऋषभदेव और वासुपूज्य के अतिरिक्त शेष इक्कीस तीर्थंकरों की समवसरणभूमि भी रही है। भगवान महावीर के समय में इस नगरी का बड़ा महत्त्व था। इस नगरी में पाँच शैल (पर्वत) हैं। क्रम से पाँचों नाम हैं- ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलाचल, बलाहक पर्वत और पाण्डुक। इन पाँचों पर्वतों का नाम जैन साहित्य एवं पुराणग्रन्थों में पर्याप्त मात्रा में मिलता है। राजगृह बौद्धों का भी प्रमुख केन्द्र रहा है।
पावापुरी (बिहार)
अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर की निर्वाणस्थली है पावापुरी। तिलोयपण्णत्ति' में लिखा है कि भगवान महावीर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रत्यूषकाल में स्वाति नक्षत्र के रहते हुए अकेले सिद्ध हुए :
कत्तियकिण्हे चोदसिपच्चसे सादिणामणक्खत्ते। पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो॥
प्राकृत 'निर्वाणभक्ति' की पहली गाथा है :
पावाए निव्वुदो महावीरो।
अर्थात् पावापुरी में महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ।
जिस स्थान पर महावीर का निर्वाण हुआ था, वहाँ अब एक विशाल सरोवर के बीच संगमरमर का एक भव्य मन्दिर निर्मित है। इसे जलमन्दिर कहते हैं। इस मन्दिर तक जाने के लिए एक प्रवेशद्वार है, जहाँ से लाल पाषाण का 600 फुट लम्बा पुल बना हुआ है। मन्दिर के सामने संगमरमर का एक विशाल चबूतरा है।
जलमन्दिर के सामने एक समवसरण मन्दिर है, जिसमें भगवान के चरण विराजमान हैं। वर्तमान में वहीं श्वेताम्बरों का भी समवसरण मन्दिर है। जलमन्दिर के कुछ ही दूरी पर पावापुरी सिद्धक्षेत्र दिगम्बर कार्यालय है। यहीं पर सात दिगम्बर जैन मन्दिरों का समूह है। इनमें बड़े मन्दिर में भगवान महावीर की मूलनायक साढ़े तीन फुट श्वेत वर्ण की प्रतिमा वि. सं. 1950 में प्रतिष्ठित की गयी।
पावापरी में भगवान महावीर के निर्वाण उत्सव पर कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से कार्तिक शुक्ल एकम् तक एक विशाल मेला लगता है।
मथुरा
हस्तिनापुर की तरह मथुरा भी प्राचीन काल से भारत का महान जैन तीर्थक्षेत्र रहा है। यह शूरसेन जनपद की राजधानी थी। हिन्दू अनुश्रुति के अनुसार, मथुरा की गणना सप्तमहापुरियों में की जाती है। नारायण श्रीकृष्ण की जन्मभूमि एवं लीलाभूमि होने के कारण प्रतिवर्ष यहाँ देश-विदेश के लाखों यात्री आते हैं। यहाँ नगर के समीप ही चौरासी मथुरा सिद्धक्षेत्र है। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद अन्तिम केवली जम्बूस्वामी कई बार मथुरा पधारे और धर्मोपदेश दिया। अन्त में यहाँ के जम्बूवन में उनका निर्वाण हुआ, जिससे यह स्थान सिद्धक्षेत्र के नाम से ख्यात हुआ। कुछ समय पश्चात् विद्युच्चर मुनिराज के प्रभव आदि पाँच सौ मुनियों के साथ यहाँ के वन में पधारे और घोर तपस्या की। इसप्रकार प्रचलित मान्यतानुसार यह स्थान जम्बूस्वामी के निर्वाण और मुनिराजों के उपसर्ग एवं तपश्चरण की कथा के कारण सर्वविश्रुत है।
पुराण-साहित्य में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में और उन्हीं के वंश में उत्पन्न सत्यवादी राजा वसु की कथा प्रचलित है। एक बार झूठ के समर्थन में उसे नरक की यातनाएँ भोगनी पड़ी। कंस की राजधानी के कारागृह में कृष्ण के जन्म की कथा भी सर्वविख्यात है। महाभारतकालीन हस्तिनापुर से मथुरा और यहाँ के यादव वंश का बहुत सम्पर्क रहा।
मथुरा के समीप ही कंकाली टीले के उत्खनन से शक-कुषाण काल (लगभग ई.पू. प्रथम शती से दूसरी शती तक) की हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्मों की मूर्तियाँ, मन्दिर और विपुल पुरातात्त्विक सामग्री प्राप्त हुई है। यहाँ जैन पुरातत्त्व की जो सामग्री मिली है, उसमें अनेक स्तूप, मूर्तियाँ, सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ, शिलालेख, आयागपट्ट, धर्मचक्र, तोरणस्तम्भ, वेदिकाएँ एवं अन्य बहुमूल्य कलाकृतियाँ हैं। अभिलेखों और प्राचीन साहित्य से स्पष्ट ज्ञात होता है कि ईसा के कई सौ वर्ष पूर्व से ग्यारहवीं-बारहवीं शती तक यह जैनों का केन्द्र रहा है।
मथरा में एक अन्य केन्द्र सप्तर्षि-टीला है। मथरा के पास ही शौरीपर प्राचीन जैनक्षेत्र है, जहाँ तीर्थंकर नेमिनाथ के गर्भ और जन्मकल्याणक हुए। इनके अतिरिक्त यहाँ पर कई अन्य वीतरागी मुनियों को केवलज्ञान और निर्वाण-प्राप्ति हुई। एक अन्य क्षेत्र बटेश्वर है। यहीं पर संवत् 1838 में निर्मित एक विशाल मन्दिर में महोबा से लाई गयी तीर्थंकर अजितनाथ की कृष्ण पाषाण की एक भव्य सातिशय पदमासन मूर्ति विराजमान है।
अयोध्या
अयोध्या पूर्वी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में अवस्थित प्राचीन नगरी है। आदिपुराण' में उल्लेख है कि यह संसार की आदि नगरी थी। इस नगरी की महिमा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि 'जिस नगरी की रचना करने वाले स्वर्ग के देव हों, अधिकारी सूत्रधार इन्द्र हों, उसकी सुन्दरता का भला क्या कहना!'
जैन मान्यता में इसे शाश्वत नगरी कहा गया है। प्रारम्भ से ही यह जैनधर्म की केन्द्र रही है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के गर्भ और जन्म कल्याणक तो यहाँ हुए ही हैं, दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ, चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथ, पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ तथा चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ-इन चारों तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक, इस प्रकार अठारह कल्याणक मनाने का सौभाग्य इस नगरी को प्राप्त हुआ है। यही कारण है कि इसे तीर्थराज भी कहा गया है।
ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में यहीं से कर्मयुग का आरम्भ किया और छह कर्मों (असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य) का ज्ञान समाज को दिया। उनकी पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी ने पिता से प्रेरणा पाकर क्रमशः लिपि और अंक विद्या का आविष्कार किया। समाज व्यवस्था के लिए वर्ण व्यवस्था रची। राजनीतिक व्यवस्था के लिए पुर, ग्राम, नगर, जनपद आदि की व्यवस्था की। और फिर अन्त में पुत्रों को राजपाट सौंपकर निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण कर धर्ममार्ग को प्रशस्त करने का कार्य किया। कर्मयुग के आरम्भ में किया गया यह कार्य एक बड़ा साहसिक एवं विवेकपूर्ण कदम था।
ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत ने सार्वभौम साम्राज्य की स्थापना कर यहीं से सम्पूर्ण शासन किया। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के कारण इस नगरी को विशेष गौरव मिला है।
अयोध्या को लेकर कितनी ही पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएँ व किंवदन्तियाँ जुड़ी हुई हैं।
अयोध्या में नगर के भीतर दो जैन मन्दिर और पाँच टोंकें हैं। भगवान आदिनाथ की टोंक उनकी जन्मभूमि पर है। 'हनुमानगढ़ी' नाम से प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिर यहीं पर है। वर्तमान में इसमें हनुमान की माता अंजना की मूर्ति विराजमान है।
प्रयाग
भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा धारण करने से पूर्व अपने पुत्रों को जिन विभिन्न नगरों के राज्य सौंपे, उनमें कोशलदेश का नगर परिमताल वषभसेन नामक पत्र को दिया था। पश्चात् वैराग्य हो जाने पर उन्होंने इस नगर के पास ही सिद्धार्थवन में एक वटवृक्ष के नीचे दीक्षा धारण की थी। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया था। इसी समय अनेक-अनेक राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ग्रहण की। उसी समय से सिद्धार्थवन का नया नाम प्रयाग पड़ गया। इस सम्बन्ध में 'हरिवंशपुराण' (9.96) में आचार्य जिनसेन लिखते हैं :
एवमुक्त्वा प्रजा यत्र प्रजापतिमपूजयन्। प्रदेशःस प्रयागाख्यो यतः पूजार्थयोगतः ॥
अर्थात् तुम लोगों की रक्षा के लिए राज करने में कुशल भरत को नियुक्त किया है। तुम उनकी सेवा करो। प्रजा ने जिस स्थान पर भगवान की पूजा की, वह स्थानविशेष पूजा के कारण प्रयाग कहा जाने लगा। और जिस वटवृक्ष के नीचे उन्हें अक्षयज्ञान (केवलज्ञान) हुआ, वह अक्षयवट नाम से विख्यात है :
वट प्रयागतल जैनयोग धर्मों सद्भासह। प्रकट्यो तीर्थप्रसिद्ध पूरनभवि मया अक्षय॥ ('सर्वतीर्थवन्दना')
वर्तमान में प्रयाग म्यूजियम, इलाहाबाद में जैन पुरातत्त्व की कलाकृतियों का बहुत बड़ा संग्रह है। ये कलाकृतियाँ कौशाम्बी, पभोसा, गया आदि अनेक स्थानों से यहाँ लाकर रखी गयी हैं। इनमें चन्द्रप्रभ, सर्वतोभद्रिका, आदिनाथ, शान्तिनाथ और अम्बिका की मूर्तियाँ कलाकृति की दृष्टि से अतिमहत्त्वपूर्ण हैं।
प्रयाग प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ भी है। अब यह इलाहाबाद शहर का एक हिस्सा बन गया है। त्रिवेणी (गंगा-यमुना-सरस्वती) के संगम पर हर बारह वर्ष के अन्तराल पर विश्वप्रसिद्ध कुम्भ का मेला लगता है।