भारत के प्रत्येक धर्म में तीर्थों की मान्यता है। ये तीर्थ पवित्रता, आत्म-शान्ति और कल्याण के धाम माने जाते हैं। श्रद्धा-भाव से इनकी यात्रा करने से पुण्य का संचय तो होता ही है, परम्परा से ये मोक्ष-प्राप्ति के साधन भी हैं।
जैन-शास्त्रों में तीर्थ का प्रयोग अनेक अर्थों में हुआ है। आचार्य जिनसेन कृत 'आदिपुराण' में उल्लेख है- जो अपार संसार से पार कराये, वह तीर्थ है : 'संसाराब्धेरपारस्य तरणे तीर्थमिष्यते' और ऐसा तीर्थ जिनेन्द्र भगवान का चरित्र है अर्थात् जिनेन्द्र की कथा का आख्यान तीर्थ है। ‘युक्त्यनुशासन' में आचार्य समन्तभद्र तीर्थ को मात्र तीर्थ न मानकर उसे 'सर्वोदय तीर्थ' कहते हैं। उनके अनुसार, सभी प्रकार की आपदाओं (आधि-व्याधियों) का अन्त करने वाला तथा सबके लिए कल्याणकारी होने से यह सर्वोदय तीर्थ कहलाता है- 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।' किन्हीं आचार्यों ने इसे 'क्षेत्रमंगल' भी कहा है।
तीर्थों की संरचना
सामान्यतः जिन स्थानों पर तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, महाभिनिष्क्रमण (दीक्षा), केवलज्ञान और निर्वाणकल्याणक में से कोई एक या अनेक कल्याणक हुए हों, या फिर किसी वीतरागी तपस्वी मुनिराज को केवलज्ञान या निर्वाण प्राप्त हुआ हो, वह स्थान उनउन महर्षियों के संसर्ग से पावन और पूज्य बन जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो भूमिखंड तीर्थंकर, महापुरुष या मुनिराज के पावन संसर्ग में आया, विचरण काल में वे जहाँ रहे या धर्मोपदेश दिया, वह स्थान पूज्य बन गया-तीर्थ बन गया। संक्षेप में कहा जा सकता है कि तीर्थंकरों और वीतरागी महर्षियों ने आत्म-संयम, ध्यान और तपश्चरण से अपने जन्म-जरा-मरण से मुक्ति की साधना की, साथ ही अनादिकाल से सांसारिक दुःखों को भोगते आ रहे, अज्ञानी या मिथ्या मार्ग पर चले आ रहे प्राणियों को सम्यक् मार्ग बतलाया, वे महापुरुष संसार के प्राणियों के अकारण बन्धु या उपकारक बन गये। उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने और स्थान विशेष पर घटित पुण्यकारी घटनाओं को निरन्तर स्मृति में बनाये रखने के लिए उस भूमि पर जो संरचना होती है, वह 'तीर्थ' कहलाने लगता है।
तीर्थों के प्रकार
दिगंबर जैन समाज में प्रमुखता से तीन प्रकार के तीर्थ प्रचलित हैं- सिद्धक्षेत्र (या निर्वाण-स्थल), कल्याणकक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र। सिद्धक्षेत्र उसे कहते हैं, जहाँ से किसी तीर्थंकर या किन्हीं वीतरागी तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुआ हो। ऐसा कहा जाता है कि चरम एवं परम पुरुषार्थ के प्रतीक होने से निर्वाणकाल में ऐसे स्थान पर सौधर्म इन्द्र तथा अन्य देवगण भक्ति-भाव से पूजा को आते हैं और उस भूमि विशेष को चिह्नित कर देते हैं, फिर उसी स्थान पर भक्तजन श्रद्धापूर्वक उनके चरण-चिह्न स्थापित कर देते हैं। ऐसे स्थान धीरे-धीरे श्रद्धा के केन्द्र बन जाते हैं।
सिद्धक्षेत्र : तीर्थंकरों के निर्वाणक्षेत्र कुल पाँच हैं : कैलास पर्वत (अष्टापद), चम्पापुर, ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार), सम्मेदशिखर और पावापुर। कैलास से आदितीर्थंकर ऋषभदेव, चम्पापुर से बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य, ऊर्जयन्तगिरि से बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ, पावापुर से अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने मुक्ति प्राप्त की तथा शेष बीस तीर्थंकरों और वीतरागी तपस्वियों ने सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त कर उस भूमि और वहाँ के सम्पूर्ण परिसर को पावन किया।
इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी निर्वाणभूमियाँ हैं, जहाँ से मात्र वीतरागी मुनि या मुनिराजों ने तपश्चरण कर निर्वाण लाभ किया। 'निर्वाण-भक्ति' में ऐसे अनेक उल्लेख हैं। उदाहरण के लिए कैलास पर्वत से भरत, बाहुबलि, भगीरथ आदि अनेकानेक महापुरुषों ने तपश्चरण कर मुक्ति पाई। गिरनार से भगवान नेमिनाथ के अतिरिक्त प्रद्युम्नकुमार, अनिरुद्धकुमार आदि मुनिराजों ने निर्वाण-लाभ किया। उक्त पाँच निर्वाण भूमियों के अलावा और भी ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहाँ से मुनिराजों ने मुक्ति प्राप्त की। पटना के कमलदह नामक स्थान से मुनि सुदर्शन कुमार ने, राजगृही से तीर्थंकर महावीर के गणधर, जम्बूकुमार, जीवन्धर आदि मुनिराज, गुणावा से गौतम स्वामी मोक्षधाम गये। महाराष्ट्र में गजपन्था को बलदेव आदि की. शत्रंजय को तीन पांडवों (यधिष्ठिर, भीम और अर्जन) की तथा माँगीतुंगी को रामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव आदि मुनिराजों की निर्वाणस्थली कहा गया है। उडीसा के उदयगिरि-खंडगिरि, मध्य प्रदेश के सोनागिरि, द्रोणगिरि, चलगिरि (बड़वानी) पावागिरि, सिद्धवरकूट तथा गुजरात के तारंगा, पालीताणा, पावागढ़ भी सिद्धक्षेत्र माने जाते हैं। इस प्रकार सिद्धक्षेत्रों की कुल संख्या छब्बीस मानी गयी है।
कल्याणकक्षेत्र : ये वे क्षेत्र हैं जहाँ किसी तीर्थंकर का गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान में से कोई एक या एकाधिक कल्याणक हुए हों। हस्तिनापुर, शौरीपुर, अहिच्छत्र, वाराणसी, काकन्दी आदि ऐसे ही तीर्थ स्थान हैं। भगवान ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनन्दन, सुमति और अनन्तनाथ के गर्भ एवं जन्मकल्याणक अयोध्या में हुए। ऋषभदेव को छोड़कर उक्त चारों तीर्थंकरों के दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक अयोध्या के निकट ही सहेतुक वन में मनाये गये। इसी प्रकार भगवान सम्भवनाथ के गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान श्रावस्ती में; पद्मप्रभ के गर्भ-जन्म-कल्याणक कौशाम्बी में, पार्श्व और सुपार्श्वनाथ के गर्भ, जन्म एवं दीक्षा तथा सुपार्श्वनाथ का केवलज्ञान कल्याणक वाराणसी में हुए। हस्तिनापुर, चन्द्रपुरी, काकन्दी, भद्दिलपुर, चम्पापुरी, सिंहपुरी, कम्पिला, रतनपुरी, मिथिलापुरी, अहिच्छत्र, शौरीपुर, राजगृही आदि भी कल्याणकक्षेत्र हैं। भगवान महावीर के गर्भ-जन्म-दीक्षा-कल्याणक वैशाली के कुंडग्राम में तथा केवलज्ञान कल्याणक जृम्भिकग्राम में हुए। इसी प्रकर तीर्थंकर विमलनाथ के गर्भ, जन्म, तप व ज्ञान रूप चार कल्याणक कम्पिला नगरी में हुए।
अतिशयक्षेत्र : ये ऐसे स्थान हैं, जहाँ किसी टीले, खेत या ज़मीन से घटनात्मक रूप से किसी मूर्तिविशेष या मूर्तियों के प्राप्त होने पर या फिर मूर्ति के निर्माण में चमत्कारिक घटना घटने से उनकी स्थापना के लिए कालान्तर में वेदी या मन्दिर का निर्माण कर दिया गया हो, और फिर कालान्तर में वह जनसाधारण के आकर्षण का केन्द्र बन गया हो या फिर जिस मूर्ति-विशेष के दर्शन से कुछ चामत्कारिक घटनाओं के घटने से ऐसे स्थलों को अतिशय क्षेत्र माना गया। जनसाधारण द्वारा ऐसे स्थानों को आत्मिक शान्ति के साथ-साथ ऐहिक कामना की पूर्ति की मान्यता मिल जाती है। उत्तर प्रदेश में देवगढ़, मथुरा, श्रावस्ती, अहिच्छत्र, प्रयाग, पफोसा, कम्पिल, राजस्थान में श्री महावीरजी, तिजारा, चाँदखेड़ी, पद्मपुरा आदि का विशेष महत्त्व है। महाराष्ट्र एवं दक्षिण के प्रायः सभी क्षेत्रों की गणना ऐसे ही तीर्थों में की जाती है। तपस्वी एवं ऋद्धिधारी मुनियों की तपोभूमियों में यदा-कदा ऐसे चमत्कार देखने को मिलते रहे हैं । सम्पूर्ण भारत में उक्त क्षेत्रों की स्थापना सातवीं-आठवीं ईसवी से प्राचीन नहीं है। वर्तमान में इनकी संख्या अपेक्षाकृत अधिक है, लगभग तीन सौ। समय के साथ यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। ये क्षेत्र देश के प्रायः हर भाग में फैले हुए हैं।
कलाक्षेत्र : देश के कुछेक भागों में ऐसे भी क्षेत्र हैं, जो सिद्धक्षेत्र या कल्याणकक्षेत्र अथवा अतिशयक्षेत्र न होते हुए भी जैन कला, पुरातत्त्व एवं इतिहास की दृष्टि से इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्हें हम तीर्थक्षेत्र जैसा ही वैशिष्टय देते हैं। ये कलाक्षेत्र जैनों की बड़ी धरोहर हैं। इनके द्वारा हम जैनधर्म के अनुयायी शासकों का इतिहास, उनके वैभव से तो परिचित होते ही हैं, जैनधर्म के विकास और तत्कालीन समाज में उसकी प्रतिष्ठा का भी हम भली-भाँति ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। विस्तारभय से यहाँ हम उनकी संक्षिप्त नामावली ही दे पा रहे हैं। देवगढ़, ग्वालियर का क़िला, खजुराहो, खंडगिरि-उदयगिरि, अजयगढ़, ग्यारसपुर, कारीतलाई, पतियानदाई, उदयपुर, बिजौलिया, चित्तौड़गढ़ का कीर्तिस्तम्भ, चाँदवड़ के गुफा मन्दिर, धाराशिव की गुफाएँ, ऐलोरा की गुफाएँ, गोम्मटेश्वर बाहुबलि, मूडबिद्री, हलेबिड, वेणूर, कार्कल, वादामी की गुफाएँ, सित्तनवासल की गुफाएँ, तिरुपत्तिकुंजरम, करन्दई, तिरुमलै आदि अनेक स्थानों की गणना कलाक्षेत्रों के रूप में की जा सकती है।
इनमें भी गोम्मटेश्वर बाहुबलि, हलेबिड, वादामी की गुफाएँ, सित्तनवासल की गुफाओं के भित्तिचित्र, खजुराहो, ग्वालियर का क़िला आदि ऐसे कला-स्थान हैं, जिनकी जानकारी के बिना भारतीय कला-परातत्त्व का अध्ययन अधरा ही कहा जाएगा। देशविदेश के पर्यटकों, कला-मर्मज्ञों, पुरातत्त्व-वेत्ताओं एवं इतिहासकारों के लिए ये महान आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है, जैसे इनके निर्माण में कोई दैवीय प्रभाव भी साक्षात् या परोक्ष में रहा है। इन स्थानों में जैन तीर्थंकर मूर्तियाँ, भित्तिचित्र, मन्दिर, शासनदेवी-देवताओं की मूर्तियाँ, गुफा मन्दिर, जैन प्रतीक और शिलालेख तथा ताडपत्रीय पांडुलिपियाँ विशेष दर्शनीय होने के साथ-साथ अध्ययन की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती हैं।
तीर्थ-यात्रा : कब और कैसे
यों तो कभी भी तीर्थ-यात्रा की जा सकती है, पुण्य का संचय तो होता ही है, फिर भी अनुकूल समय, अनुकूल वातावरण में तीर्थ-यात्रा का आनन्द कुछ और ही है।
तीर्थ पर जाकर भगवान से सांसारिकता को बढ़ाने वाली किसी भी वस्तु की कामना नहीं करना चाहिए। निष्काम भक्ति ही श्रेष्ठ भक्ति कहलाती है। 'विषापहार' में कितना अच्छा लिखा है, देखिए :
इति स्तुति देव विधाय दैन्याद् वरं न याचे त्वमुपेक्षिकोऽसि। छायातलं संश्रयतः स्वत: स्यात् कश्छायया याचितयात्मलाभः ॥ 38॥
अर्थात् : हे देव! स्तुति कर चुकने पर आपसे कोई वरदान नहीं माँगता। आखिर माँD भी तो क्या माँगूं! आप तो वीतराग हैं, फिर माँगू भी तो किसलिए? भला कोई छाया तले बैठने के लिए पेड़ से छाया माँगता है ? भगवान की शरण पाकर याचना करना ही व्यर्थ है।
जैसा कि ऊपर कहा गया है, तीर्थ-यात्रा का मुख्य ध्येय आत्मशान्ति या आत्मशुद्धि है, अतः इसके लिए पहली शर्त है- यात्रा के समय जितना भी सम्भव हो सके, सांसारिकता से स्वयं को निर्वृत्त रखे। ऐसा इसलिए कि घर-गृहस्थी में रहकर व्यक्ति को जीवन-यापन की अनेक चिन्ताएँ लगी रहती हैं, अनेक प्रकार की आकुलताएँ घेरे रहती हैं। आत्मशान्ति के लिए उसे अवकाश निकालना कठिन हो जाता है। ऐसे में वह किसी नये परिवेश में जाना चाहता है- किसी अविनाशी सम्पदा की चाह में । सन्देह नहीं कि तीर्थंकरों, वीतरागी मुनियों या महापुरुषों की तपोभूमि पर पहुँचते ही, वहाँ के परम पावन परिवेश का स्पर्श पाते ही, उसका मन उल्लसित हो उठता है। तीर्थ-भूमि की रज ही इतनी पवित्र होती है कि उसके स्पर्श से ही उसके परिणाम बदलने लगते हैं और उसके लिए आत्मशान्ति का मार्ग स्वतः सरल बन जाता है।
तीर्थ यात्रा का ध्येय ही जब आत्मशद्धि है, तो इसकी पहली शर्त है कि यथासम्भव पर से निर्वृत्ति और आत्मा की प्रवृत्ति। तीर्थ पर जाकर तीर्थंकरों और वीतरागी मुनियों, महापुरुषों के जीवन व उनकी साधना का बारम्बार स्मरण कर अपने जीवन को निश्छल भाव से उस दिशा में मोड़ना हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए। सांसारिकता में ग्रस्त कुछ लोग ऐसा मान बैठे हैं कि समय निकालकर तीर्थ की एकाधिक वन्दना या अनेक परिक्रमाएँ करने से, पूजा-पाठ या अधिक दान या चढावा देने आदि अनेक क्रियाओं से उद्दिष्ट लाभ पाया जा सकता है, पुण्य जुटाया जा सकता है। आत्मशुद्धि हुई कि नहीं, इससे विशेष सरोकार नहीं रहता, तो समझ लीजिए कि उसने तीर्थ-यात्रा का महत्त्व नहीं समझा और न ही कुछ पाया। कहा भी गया है :
तीरथ चाले दोई जन, चित चंचल मन चोर। एकहु पाप न उतरया, दस मन लाये और ॥
तीर्थ-भूमियों की वन्दना का माहात्म्य ही यह है कि तन-मन की शुचिता को अपनाया जाए, अपनी प्रवृत्ति को संसार की चिन्ताओं से दूर रखकर वीतरागी महापुरुषों के जीवन का श्रद्धा के साथ चिन्तन करते हुए आत्म-कल्याण की ओर अपने चित्त की अवस्था बनाए।
अष्टापद (कैलास)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अष्टापद से मुक्त हुए थे। अष्टापद को कैलास पर्वत एवं धवलगिरि भी कहा जाता है। हरिवंशपुराण' में आचार्य जिनसेन ने तीर्थंकर ऋषभदेव की निर्वाण-प्राप्ति का वर्णन करते हुए लिखा है-
तस्मिन्नद्रौ जिनेन्द्रः स्फटिकमणिशिलाजालरम्ये निषण्णो यो गानां सन्निरोधं सह दशभिरथो योगिनां यैः सहस्रैः। कृत्वा कृत्वान्तमन्ते चतुरपरमहाकर्मभेदस्य शर्म स्थानं स्थानं स सैद्धं समगमदमलस्रग्धराभ्यय॑मानः ॥ 12.81॥
अर्थात्, ‘स्फटिकमणि की शिलाओं से रमणीय उस कैलास पर्वत पर आरूढ़ होकर भगवान ने एक हजार राजाओं के साथ योग-निरोध किया और अन्त में चार अघातिया कर्मों का अन्त कर निर्मल मालाओं के धारक देवों से पूजित हो, अनन्तसुख के स्थानभूत मोक्षपद को प्राप्त किया।' न केवल ऋषभदेव, बल्कि मुनिराज भरत, बाहुबलि, वृषभसेन गणधर आदि भी इसी पर्वत से मुक्त हुए। द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के पितामह त्रिदशंजय ने भी मुनिदीक्षा धारण कर तपश्चरण करते हुए मुक्ति पायी। इनके अतिरिक्त राजा भगीरथ, नागकमार, हरिषेण चक्रवर्ती के पत्र हरिवाहन आदि अनेक महापुरुषों ने भी कैलासगिरि में दीक्षा ली और वहीं से निर्वाण प्राप्त किया।
'हरिषेण कथाकोष' में ऐसा भी उल्लेख है कि भरत चक्रवर्ती ने कैलास के रम्य शिखर पर पंक्तिबद्ध 72 जिनालयों में अनेक वर्ण की रत्न-प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायी थीं। बाद में उन मन्दिरों के चारों ओर राजा सगर के पुत्रों ने पिता की आज्ञानुसार गंगा नदी से परिखा बनवायी थी। 'पद्मपुराण' (सर्ग 9) में इस प्रसंग में लंकाधिपति दशानन की एक घटना का बहुत रोचक वर्णन है। लंकानरेश का विमान कैलास शिखर के ऊपर से जाते हुए एक स्थल पर एकाएक रुक गया। कारण पूछने पर उनके अमात्य ने बताया कि इस पर्वत पर एक महातपस्वी प्रतिमायोग धारण किये हुए विराजमान हैं। ऐसे समय यह विमान इस मार्ग से उनका अतिक्रमण नहीं कर सकता। फिर क्या था, विमान से उतरकर लंकानरेश उनके दर्शन को पहुँचा। पास आते ही उन्हें देखकर वह पहचान गया कि यह तो मेरा महाशत्रु बाली है। उसके साथ अपने घोर संघर्ष का स्मरण कर क्रोधावेश में बोला, 'हे दुर्बुद्धि ! तू बड़ा तप कर रहा है कि अभिमान में आकर मेरा विमान रोक लिया। मैं तेरे इस अहंकार को अभी नष्ट किये दे रहा हूँ।' कहकर, विद्याबल से अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर कैलास को उखाड़ने के लिए ज्यों ही उद्यत हुआ, कि तभी मुनिराज बाली ने अवधिज्ञान से दशानन के इस दुष्ट अभिप्राय को जान लिया। पर्वत के विचलित होने से भरत चक्रवर्ती द्वारा निर्मित मन्दिर नष्ट हो जाएँगे- ऐसा सोचकर उन्होंने ज्यों ही अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबाया तो दशानन दबकर बुरी तरह रिरियाने लगा और विनयपूर्वक मुनिराज की स्तुति कर क्षमायाचना करने लगा। कहा जाता है, लंकाधिपति दशानन का तभी से 'रावण' नाम पड़ गया। कालान्तर में महामुनि बाली ने घोर तपश्चरण करते हुए इसी पर्वत से मोक्षपद प्राप्त किया।
कैलास या अष्टापद कहने पर हिमालय में भागीरथी, अलकनन्दा और गंगा के तटवर्ती ऋषिकेश, बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि क्षेत्रों का परिसर भी आ जाता है। कैलास जाने के लिए पूर्वोत्तर टनकपुर स्टेशन से बस द्वारा पिथौरागढ़ (जिला अलमोड़ा) पहुँचकर, वहाँ से पैदल यात्रा द्वारा लीपू दर्रा पार करके जाया जा सकता है। जौहर मार्ग या फिर नीती घाटी मार्ग से भी व जा सकता है।
चम्पापुर (बिहार प्रदेश)
यह अत्यन्त प्राचीन क्षेत्र है। बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य की यह निर्वाणभूमि है। आचार्य यतिवृषभ की 'तिलोयपण्णत्ति' में उल्लेख है कि भगवान वासुपूज्य फाल्गुन कृष्ण पंचमी के दिन अपराह्न काल में अश्विनी नक्षत्र में यहाँ से सिद्धभूमि को प्राप्त हुए। उनके साथ 601 मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया :