भक्तामर स्तोत्र - इस स्तोत्र का प्रारंभ ‘भक्त-अमर‘ शब्द से होता है इसलिए इसका नाम भक्त $ अमर = ‘भक्तामर स्तोत्र‘ सर्वप्रसिद्ध एवं सर्वप्रचलित हो गया।
इसके प्रथम काव्य (श्लोक) के तीसरे पद में प्रयुक्त ‘युगादौ‘ शब्द तथा द्वितीय काव्य के चैथे पद में प्रयुक्त ‘प्रथमं जिनेन्द्रं‘ शब्द के कारण इसे प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के नाम पर ‘आदिनाथ स्तोत्र‘ या ‘ऋषभस्तोत्र‘ भी कहा गया है। वैसे इस स्तोत्र की विशेषता यह है कि इसमें किसी तीर्थंकर विशेष के नाम का उल्लेख नहीं किया गया अतः इसे सभी तीर्थंकरों की भक्ति के लिए उपयोग किया जा सकता है।
यह स्तोत्र मात्र 48 श्लोक (काव्य) प्रमाण है। सभी श्लोक ‘वसन्ततिलका‘ छंद में निबद्ध है। इसके पद्यों/श्लोकों को काव्य कहा जाता है।
प्रथम दो काव्यों (1-2) में रचयिता कवि द्वारा जिनेन्द्र-स्तुति करने का संकल्प किया गया है। चार काव्यों (3-6) में अपनी लघुता-अल्पज्ञता-अक्षमता का प्रदर्शन किया गया है, बीस काव्यों (7-26) में विभिन्न उपमाओं द्वारा जिनेन्द्र-स्तुति का एवं उसके फल का चित्रण किया गया है। ग्यारह काव्यों (27-37) में अरिहंत भगवान के समवसरण के अलौकिक वैभव-अष्ट प्रातिहार्यों का वर्णन है, दस काव्यों (38-47) में बताया है कि जिनेन्द्र की भक्ति से भय-संकट आदि का निवारण सहज-संभाव्य है तथा अन्तिम काव्य (48) में जिनेन्द्र-स्तुति का फल बताया है।
इस स्तोत्र में स्तोत्रकार कवि/आचार्य ने अपने इष्टदेव में ‘कर्तृत्व‘ का आरोप नहीं किया। अपने आराध्य/इष्टदेव का गुणगान करते हुए यही कहा है कि आपकी भक्ति करने से ऐसा स्वतः हो जाता है। आपका स्मरण करने से सिंह-हाथी-अग्नि-समुद्र-शत्रु-सेना-रोग-विपत्ति-आपत्ति-भय आदि से मुक्ति मिल जाती है। काव्य संख्या 38-47 में जिनेन्द्र के गुणों का स्मरण करने के माहात्म्य से स्वतः निवारित भयों - उपद्रवों का ही वर्णन है। इसी प्रकार कवि ने कहीं भी उनसे कोई याचना नहीं की है। यह स्तोत्र उनकी ‘निष्काम भक्ति‘ का ही उदाहरण है। इसी ‘निष्काम भक्ति‘ के फलस्वरूप उन्हें स्वतः ही इष्ट फल की प्राप्ति हुई।
इस भावप्रवण, भक्तिपूर्ण स्तोत्र के रचयिता हैं - मुनि मानतुंग आचार्य। भक्त-शिरोमणि मुनि मानतुंग की यह अत तक ज्ञात एकमात्र रचना है, इस एकमात्र रचना ने ही उन्हें जैन भक्ति के काव्य-सृजकों में सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया। कवि के परिचय के बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। इनके समय के संबंध में अलग-अलग मान्यताएँ हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर इनका समय सातवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है।
मुनि मानतुंग के बारे में यह कथा/किंवदन्ती प्रचलित है कि राजा की आज्ञा के अनुसार राजदरबार में उपस्थित न होने के कारण राजा ने इन्हें 48 तालों में बंद करवा दिया। मुनिश्री ने बंदीरूप में इन 48 काव्यों (श्लोकों) की रचना कर श्री जिनेन्द्रदेव की भावपूर्ण स्तुति की, जिसके फलस्वरूप वे 48 ताले स्वतः ही खुल गये/टूट गये।
एक अन्य किंवदन्ति यह है कि जैनधर्म का प्रभाव/चमत्कार दिखाने के आग्रह पर मुनिश्री ने इन 48 काव्यों द्वारा भक्ति/स्तुति कर 48 बेडि़यों से मुक्ति पाई।
ऐतिहासिक वस्तुस्थिति जो भी हो, आज की स्थिति तो यह है कि जैन समाज की दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों धाराओं में यह भक्ति स्तोत्र सर्वाधिक मान्य एवं प्रचलित है। समाज के अधिकांश लोगों को यह कंठस्थ है। समाज के बहुभाग में नियमित पाठ किये जानेवाला स्तोत्र है यह। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दी भाषा में अनेक आचार्यों, मुनियों, विद्वानों, कवियों, गृहस्थों द्वारा अपनी-अपनी भावप्रवणता के अनुरूप इसके भावानुवाद-काव्यानुवाद किये गये हैं, किये जा रहे हैं। इसके लगभग 150 से अधिक काव्यानुवाद/काव्य-रूपांतरण तो ज्ञात हैं, प्रकाशित हैं। आज भ्ज्ञी यह परम्परा, ये प्रयास जारी हैं।