भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्।
सम्यक् प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा-
वालम्बनं भव जले पतततां जनानाम् ।।१।।

पदच्छेद - भक्त-अमर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणाम्, उद्योतकं दलित-पाप-तमः वितानम्, सम्यक् जिनपादयुगं-युगादौ, आलम्बनम् भवजले पतताम् जनानाम्।

शब्दार्थ - भक्त = भक्त, अमर = देवों के, प्रणत = नत, झुके हुए, मौलि = मुकुट में, मणि = रत्न, प्रभाणाम् = प्रभा के, कान्ति के। उद्योतकम् = प्रकाशमान, दलित = नष्ट, पाप = दुष्ट कर्म, तमः = अंधकार, वितानम् = विस्तार को। सम्यक् = उत्तम रूप से, प्रणम्य = प्रणाम करके, जिनपाद = जिनदेव के चरणों को, युगं = दोनों, युगादौ = युग के प्रारंभ में। आलम्बनं = आश्रय, सहारा, भवजले = संसाररूपी जल में, पतताम् = गिरते हुए, जनानाम् = प्राणियों के ।।१।।

अन्वय - भक्त-अमर-प्रणत-मौलि-मणिप्रभाणाम्, उद्योतकं दलितपापतमोवितानं भवजले पततां जनानां युगादौ आलम्बनं जिनपादयुगं सम्यक् प्रणम्य-

श्लोकार्थ- प्रकाशमान मणि-मोतियों से जडि़त मुकुटों से शोभित देवों के झुके हुए मस्तकों द्वारा पूजित, पापरूपी अंधकार के समूह को नष्ट करनेवाले, संसार-समुद्र में गिरे हुए मनुष्यों को युग के आदि में (कर्मभूमि के आरंभ में) सहारा देनेवाले श्री जिनदेव के चरणयुगल को भली-भाँति प्रणाम करके-

जो सुरन के नत-मुकुटमणि की, प्रभा को परकासते।
पुनि प्रबल अतिशय, पापरूपी तिमिरपुंज विनासते।
अरु जो परे भवजल, दियो अवलंब तिनहिं युगादि में।
जिनदेव के तिन चरन-जुग को, नमन करके आदि में।।१।।

After duly and respectfully bowing at the pair of feet of the great Alimighty (the Conequeror), the feet, which illuminate the lusture of the gems-studded in the diadems of the devout gods having bent in obeisance to Lord Adinath; the feet which are the destroyers of the canopy of the Sins and the Isle of rescue to the persons falling in the ocean of the World in the quadrant period.

स्तुति संकल्प
यः संस्तुतः सकल-वाड्मय-तत्व-बोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः।
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय-चित्त-हरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।।२।।

पदच्छेद - यः संस्तुतः सकल-वाड्.मय-तत्वबोधात्, उद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोकनाथैः, स्तोत्रैः जगत्त्रितय-चित्तहरैः उदारैः, स्तोष्ये किल अहम् अपि तं प्रथमम् जिनेन्द्रम्।

शब्दार्थ - यः= जो, संस्तुतः = स्तुति किये गये, जिनकी स्तुति की गई, सकल वाड्.मय = सब प्रकार का साहित्य, शास्त्र, तत्वबोधात् = तत्व के ज्ञान से, उद्भूत = उत्पन्न, बुद्धिपटुभिः = बुद्धि-चातुर्य से, बुद्धि की प्रखरता से, सुरलोकनाथैः = स्वर्ग के नाथ इन्द्र के द्वारा। स्तोत्रैः = स्तोत्र द्वारा, जगत्त्रितय = तीनों लोक के, चित्तहरै: = चित्त को हरण करनेवाले, उदारै: = उत्कृष्ट। स्तोष्ये = स्तवन करूँगा, किल = निश्चय, अहम् = मैं, अपि = भी, तं = उन, प्रथमम् = प्रथम, आदि, जिनेन्द्रम = भगवान को ।।२।।

अन्वय - सकलवाड्.मयतत्वपबोधात् उद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः जगत्त्रितयचित्तहरैः उदारैः स्तोत्रैः य संस्तुतः तं प्रथमं जिनेन्द्रं किल अहम् अपि स्तोष्ये।

श्लोकार्थ- सम्पूर्ण द्वादशांगरूप जिनवाणी के तत्वज्ञान को जानने से जिनकी बुद्धि प्रखर हो गई है ऐसे देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त हरण करनेवाले विस्तृत स्तोत्रों द्वारा जिनकी स्तुति की है उन प्रथम तीर्थंकर (ऋषभदेव) का मैं भी स्तवन करता हूँ। अर्थात् यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तत्वज्ञों द्वारा स्तुत्य की स्तुति करने के लिए मैं अल्पज्ञ भी तत्पर हुआ हूँ।

अचरज बड़ो जो शक्ति बिन हूँ, करहुँ थुति सुखकारिणाी।
तिन प्रथम जिन की परम पावन, अरु भवोदधितारिणी।
जिनकी त्रिजग-जन-मन-हरन वर, विशद विरद सुहाइ है।
हरि ने सकलु-श्रुत-तत्व-बोध-प्रसूतबुधि सों गाइ है।।२।।

(It is strange that) I should conduct the Eulogy of the first Jinendra (the biggest conqueror) who has been hymend and worshipped in magnificient encomiums and thus matgnetising the hearts of the people of the three worlds, composed by the Lords of Gods talented in grasping the essence of the sacred scriptures.

लघुता प्रकाशन
बुद्ध्याविनाऽपि विबुधार्चित-पाद-पीठ,
स्तोतं समुद्यत-मनिर्विगत-त्रपोऽहं।
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब-
मन्यः कः इच्छति जनः सहसाग्रहीतुम् ।।३।।

पदच्छेद - बुद्धया विना-अपि विबुध-अर्चित-पादपीठ, स्तोतुं समुद्यतमतिः विगत-अत्रपः अहम्, बालं विहाय जलसंस्थितम् इन्दुबिम्बम्, अन्यः कः इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम्।

शब्दार्थ - बुद्ध्याविनापि = बुद्धिहीन होने पर भी, विबुधार्चित = देवों के द्वारा पूजित, पादपीठ = सिंहासन। स्तोतुं = स्तवन करने के लिए, समुद्यत मतिः = प्रस्तुत तत्पर, बुद्धि, विगत-अत्रपः = लज्जारहित, अहम् = मैं। बालं = बालक को, विहाय = छोड़कर, अतिरिक्त, जलसंस्थितम् = जल में स्थित, इन्दुबिम्बम् = चन्द्रमा की छाया को। अन्यः = दूसरा, कः = कौन, इच्छति = इच्छा रखता है, जनः = प्राणी, सहसा = बिना विचारे, ग्रहीतुम् = ग्रहण करने के लिए।।३।।

अन्वय - विबुधार्चितपादपीठ बुद्धया विना अपि विगतत्रपः, अहम् स्तोतुं समुद्यतमति बालं विहाय अन्यः कः जनः जलसंस्थितं इन्दुबिम्बं सहसा ग्रहीतुम् इच्छति।

श्लोकार्थ- देवों द्वारा पूजित है जिनका सिंहासन ऐसे हे जिनेन्द्रदेव! बुद्धिहीन होने पर भी मैं जो आपकी स्तुति करने के लिए तत्पर हुआ हूँ यह मेरी निर्जज्जता एवं धृष्टता ही है। भला, जल में दृश्यमान चन्द्रका के प्रतिबिम्ब को पकड़ने का साहस एक नादान अबोध बालक के अतिरिक्त अतिरिक्त और कौन कर सकता है। (अर्थात् कोई नहीं)।

हे अमरपूजित पद तिहारी, थुति करन के काज मैं।
बुधिबिना ही अति ढीठ बनिके, भयउ उद्यत आज मैं।
जल में परयो प्रतिबिम्ब शशि को, देख सहसा चाव सौं।
तजिके शिशुन को को सुजनजन, गहन चाहै भावसौं।।३।।

Due to immodesty and impudence, I though deficient in intellect, am intent on praising your foot stool (out of courtesy, it means feet) which has been already worshipped by the celestial gods. Who else but a child wants to catch hurriedly the image of the moon reflected in water?

अपार गुणसागर
वक्तुं गुणान् गुण-समुद-शशांककान्तान्,
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपिबुद्धया।
कल्पान्तकाल-पवनोद्धत-नक्रचक्रं,
को वा तरीतुमलमम्बुनिधि भुजाभ्याम् ।।४।।

पदच्छेद - वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र-शशांककान्तान्, कः ते क्षमः सुरगुरु प्रतिमः अपि बुद्धया, कल्पान्तकालं-पवन-उद्धत-नक्र-चक्रं, को वा तरीतुम् अलम् अंबुनिधिं भुजाभ्याम्।

शब्दार्थ - वक्तुं = कहने के लिए, गुणान् = गुणों को, गुणसमुद्र = गुण के सागर, शशांककान्तान् = चन्द्रमा के सदृश कान्तिवाले। कः = कौन, ते = आपके, क्षमः = समर्थ, सुरगुरु = देवों के गुरु बृहस्पति, प्रतिमः = तुल्य, सदृश, अपि = भी, बुद्धया = ज्ञान के द्वारा। कल्पान्तकाल = काल के अन्त में, प्रलयकाल में, पवनोद्धत = पवन $ उद्धत = उठा हुआ पवन, उद्विग्न पवन, नक्रचक्रम् = मगरमच्छों का समूह। कः = कौन, वा = अन्य, तरीतुम् = पार करने के लिए, अलम् = समर्थ, सक्षम, अम्बुनिधि = सागर को, भुजाभ्याम् = भुजाओं द्वारा।।४।।

अन्वय - गुणसमुद्र ते शशांककान्तान् गुणान् वक्तुं बुद्धया सुरगुरुप्रतिमः अपि कः क्षमः कल्पान्तकाल-पवनोद्धतनक्रचक्रं अम्बुनिधिं भुजाभ्याम् तरीतुम् को वा अलम्!

श्लोकार्थ- आप गुणों से परिपूर्ण हैं। आपके अनन्त गुण चन्द्रमा की कांति के तुल्य निर्मल हैं। देवताओं के गुरु बृहस्पति भी उन गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। तब फिर किसी सामथ्र्य है जो आपके सम्पूर्ण गुणों का वर्णन कर सके! अर्थात् किसी में भी ऐसी शक्ति नहीं है। जैसे प्रलयकाल के पवन से उद्वेलित ऐसे समुद्र को जिसमें मगरमच्छ-घडि़याल आदि भयंकर जलचर उथल-पुथल होकर उछल रहे हों, कौन व्यक्ति अपनीे दोनों भुजाओं से तैरकर पार करने में समर्थ है ? (अर्थात् कोई नहीं)

हे गुणनिधे, शशिसम समुज्जवल, कहन तुव गुन-गुन-कथा।
सुर-गुरुन के सम हू गुनीजन, हैं न समरथ सर्वथा।
जामें प्रलय के पवनसों, उछरत प्रबल जलजंतु हैं।
तिस जलधि को निज भुजन सों, तिर सकैं को बलवंतु हैं।।४।।

O ye! the ocean of virtues who can, be he in intelligence, like the preceptor of celestial gods, describe the bright merits glittering like the lusture of the moon? Who can swim with his arms the tumultuous ocean abounding in crocodiles and alligators and agitated by the tempest of the world’s final Annihilation.

शक्तिहीन की भक्तिभावना
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश!
कर्तु-स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः।
प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्,
नाभ्येति किं निजशिशिोः परिपालनार्थम्।।५।।

पदच्छेद - सोऽहं (सः अहम्) तथापि तव-भक्तिवशात् मुनीश, कर्तु स्तवं विगतशक्तिः अपि प्रवृत्तः, प्रीत्या-आत्मवीर्यम्-अविचार्य-मृगः मृगेन्द्रम्, न अभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम्।

शब्दार्थ - सः = वह, अहम् = मैं, तथापि = फिर भी, तव = तेरी, भक्तिवशात् = भक्तिवंश, भक्ति से प्रेरित हो, मुनीश = मुनियों के स्वामी। कर्तु = करने के लिए, स्तवं= स्तुति, विगतशक्तिः = शक्तिहीन, अपि = भी, प्रवृत्तः = तैयार हुआ हूँ। प्रीत्या = प्रेम के द्वारा, आत्मवीर्यम् = अपनी शक्ति को, अविचार्य = विचार न करके, मृगः = हरिण, मृगेन्द्रम = पशुराज सिंह को। नाभ्येति = सम्मुख नहीं जाता है, किं = क्या, निजशिशोः = अपनी संतान की, परिपालनार्थम् = रक्षा करने हेतु।।५।।

अन्वय - मुनीश तथापि तव भक्तिवशात् विगतशक्तिः अपि सः अहं स्तवं कर्तु प्रवृत्तः मृगः प्रीत्या आत्मवीर्यं अविचार्य निजशिशोः परिपालनार्थम् किं मृगेन्द्रं न अभ्येति!

श्लोकार्थ- हे मुनीश! वही मैं सामथ्र्यहीन, शक्तिहीन होते हुए भी भक्तिवश आपके गुणों का स्तवन (स्तुति) करने के लिए तत्पर हुआ हूँ, जैसे हरिणी अपनी शक्ति का विचार न कर प्रीतिवश अपने बच्चे की रक्षा करने के लिए क्या सिंह का सामना नहीं करती है ?

मुनिनाथ मैं उद्यत भयउ जो, विरद पावन गान कों।
सो एक तुव पदभक्ति के वश, भूलि निजबलज्ञान कों।
ज्यों प्रीतिवश, निज बल विचार बिना, स्ववत्स बचाइवे।
अतिदीन हू हरिनी डरै नहिं, सिंह-सम्मुख जाइवे।।५।।

O ye supreme Sage! though I am deficient in calibre and devoid of intellect, yet prompted by my devotion to you. I undertake to compose this Encomium. Does not a doe impelled by the affection of her fawn oppose the lion to deliver her young ones from his clutches not considering her prowess?

स्व-अल्पज्ञता-प्रकाशन
अल्पश्रुतं श्रुतवतां -परिहासधाम,
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिलः किल-मधौ मधुरं विरौति,
तच्चाम्र- चारुकलिकानिकरैकहेतु।।६।।

पदच्छेद - अल्श्रुतम् श्रुतवताम् परिहास-धाम, त्वद् भक्तिः एव मुखरी कुरुते बलात् माम्, यत् कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तत् च आम्र चारु कलिका निकरैक हेतुः।

शब्दार्थ - अल्पश्रुतं = अल्पज्ञानी, श्रुतवताम् = ज्ञानियों का, परिहासधाम = हास्य के पात्र। त्वद् = आपकी, भक्तिः= श्रद्धा, स्तुति, एव = केवल, ही मुखरीकुरुते = वाचाल करती है, बलात् = जोरपूर्वक, माम् = मुझे। यत् = जैसे, कोकिलः = मधुरकंठ, कोयल, किल = निश्चय ही, मधौ = मधुमास में, बसंत ऋतु में, मधुरं = मधुर, विरौति = रव करती है, शब्द करती है। तत् = वैसे, च = एवं, व, आम्र = आम्रफल, चारु = सुंदर, कलिकानिकरैक = मंजरी-समूह, हेतु = लिए, निमित्त।।६।।

अन्वय - अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधामः माम् त्वद्भक्तिः एव बलात् मुखरीकुरुते कोकिलः किल मधौ यत् मधुरं विरौति तत् चाम्रचारुकलिका निकरैकहेतुः।

श्लोकार्थ- कोयल बसंत ऋतु में जब आम्रबृक्षों की मंजरियाँ लहलहा उठती हैं तभी मीठी वाणी बोलती हैं अन्य ऋतुओं में नहीं। अर्थात् आमों के बौर (मंजरियाँ) ही उसके बोलने के प्रेरणा-केन्द्र हैं। इसी प्रकार मैं अल्पज्ञानी हूँ, शास्त्रों का विशेष जानकार नहीं हूँ अतः विद्वानों द्वारा हँसी/उपहास का पात्र बनूँगा, तब भी मुझको आपकी भक्ति ही बलपूर्वक आपकी स्तुति करने के लिए प्रेरित कर रही है अर्थात् मुझमें स्वयं में ऐसी शक्ति-ऐसा ज्ञान नहीं है परन्तु आपकी भक्ति ही मुझे स्तोत्र रचने के लिए प्रेरित करती है।

अल्पज्ञ अरु ज्ञानीजनन के, हास को सुनिवास मैं।
तुव भक्ति ही मोहि करत चंचल, इस पुनीत प्रयास में।
मधुमास में जो मधुर गायन, करत कोइल प्रेमसों।
सो नव रसालन की ललित, कलिकानि के वश नेमसों।।६।।

My devotion to you alone impells me to become garrulous in this panegyric-me, a man of petty knowledge and hence an object of ridicule in the society of persons learned in the lore of spiritual science; just as the cluster of the mango sprouts incites the cuckoo to coo the melodious tune in the spring season.

जिन-स्तवन की महिमा
त्वत्संस्तवेन भवसंतति-सत्रिबद्धं,
पपं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्।
आक्रान्त लेाकमलिनीलमशेषमाशु,
सूर्यांशुभिन्नमिव-शार्वरमंधकारकम् ।।७।।

पदच्छेद - त्वत् संस्तवेन भवसन्तति-सन्निबद्धम्, पापम् क्षणात् क्षयम् उपैति शरीरभाजाम्, आक्रान्त-लोकम् अलिनीलम् अशेषम् आशु, सूर्यांश (सूर्य-अंशु) भिन्नम् इव शार्वरम् अंधकारम्।

शब्दार्थ - त्वत् = आपकी, संस्तवेन = स्तुति से, भवसन्तति = संसार-परम्परा, सन्निबद्धम् = बँधे हुए। पापम् = पापकर्म, क्षणात् = क्षणभर मंे, क्षयम् = क्षय, नाश, उपैति = प्राप्त होते हैं, शरीरभाजाम् = शरीरधारियों के, प्राणियों के। आक्रान्त = व्याप्त, फैले हुए, लोकम् = लोक में, अलिनीलम् = भौंरा के समान श्याम, अशेषम = समस्त, आशु = शीघ्र। सूर्य = सूरज, अंशु = किरण, भिन्नं = खंडित, दूरीभूत, इव = इसी प्रकार, शार्वरम् = रात्रि, अन्धकारम् = अन्धकारपूर्ण।।७।।

अन्वय - त्वत्संस्तवेन शरीरभाजाम् भव-सन्तति सन्निबद्ध पापम् क्षणात् क्षयं उपैति आक्रान्त लोकं अलिनीलम् शार्वरं अन्धकारम् अशेषम् आशु सूर्यांश भिन्न इव।

श्लोकार्थ- हे प्रभो! जिस प्रकार लोक में फैला हुआ रात्रि का भ्रमर-समूह के समान सघन काला अंधकर सूर्य कि किरणों का स्पर्श पाते ही पूर्णरूपेण नष्ट हो जाता है उसी प्रकार आपके कीर्तन से जीवधारियों के जन्म-जन्मान्तरों के उपार्जित एवं बद्ध पापकर्म तत्काल ही समूल नष्ट हो जाते हैं। अर्थात् जैसे सूर्य अंधकार को तुरंत मिटा देता है उसी प्रकार आपकी स्तुति से जीवों के पाप क्षय हो जाते हैं।

जगवासियों के पाप, भव-भव के जुड़े छोटे-बड़े।
तुव विरद गायें होहिं छय, छिन में जिनेश, खड़े-खड़े।
ज्यों जगतव्यापी भ्रमरसम तम, नीलमतम निशिसमय को।
तत्काल ही दिनकर किरन सौं, प्राप्त होवहि विलय को।।७।।

Just as the rays of the sun quickly and completely destroy the darkness stretching into the Universe, as black as the bees, Similarly the Sins of the living beings having accrual in the never ending chain of transmigrations are instantaneously annihilated by praising you.

तव प्रभावात्
मत्वेति नाथ! तव-संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियाऽपि तव प्रभावात्।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु,
मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः।।८।।

पदच्छेद - मत्वा-इति नाथ तव संस्तवनम् मयेदम् (मया-इदम्), आरभ्यते तनु धिया अपि तव प्रभावात्, चेतः हरिष्यति सताम् नलिनी-दलेषु, मुक्ताफल-द्युतिम् उपैति ननु उदबिन्दुः।

शब्दार्थ - मत्वा = मानकर, इति = ऐसा, इस प्रकार, नाथ = जिनेन्द्र, तव = तेरा, संस्तवनं = स्तवन, स्तुति, मया = मेरे द्वारा, इदम् = यह। आरभ्यते = आरंभ किया जाता है, तनुधिया = अल्पबुद्धि द्वारा, अपि = भी, तव = आपके, प्रभावात् = प्रभाव से। चेतः = चित्त, हरिष्यति = हरण करेगा, सताम् = सज्जनों के, नलिनीदलेषु = कमलिनी के पत्रों पर। मुक्ताफलद्युतिम् = मुक्ताफल की कान्ति को, उपैति = प्राप्त होती है, ननु = निश्चय से, उद-बिन्दुः = जलबिन्दु, जल की बूँद।।८।।

अन्वय - नाथ इति मत्वा तनुधिया अपि मया इदम् तव संस्तवनं आरभ्यते ननु तव प्रभावात् सतां चेतः हरिष्यति नलिनीदलेषु उदबिन्दुः ननु मुक्ताफलद्युतिम् उपैति।

श्लोकार्थ- जिस प्रकार कमलिनी के पत्ते पर पड़ा हुआ ओस-बिंदु उस पत्ते के स्वभाव व प्रभाव से मोती के समान आीाा बिखेरकर दर्शकों के चित्ते को आह्लादित करता है उसी प्रकार मुझ अल्पबुद्धि/मंदबुद्धि के द्वारा किया हुआ यह स्तवन भी आपके प्रताप, प्रभाव एवं प्रसाद से सज्जनों के चित्ते को प्रफुल्लित करेगा। अर्थात् उत्कृष्ट काव्यों की श्रेणी में गिना जायेगा।

जिनराज अस जिय जानिकै, यह आपकी विरदावली।
थोरी समझ मेरी, तऊ प्रारंभ करत उतावली।
हरिहै सुमन सो सज्जनन के, प्रभु-प्रभूत-प्रभावसों।
जलबिन्दु जैसे जलज दल परि, दिपत मुकता-भावसो।।८।।

O Lord! I assume that this panegyric though composed by me - a man of scanty intellect, will under thy influence captivate the minds of noble persons. Indeed the drops of water in contact with the lotus-leaves do obtain the splendor of pearls.

नाम-महिमा
आस्तां तव-स्तवनमस्त-समस्तदोषं,
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति।
छूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जलजानि विकासभान्जि।।९।।

पदच्छेद - आस्ताम् तव-स्तवनम् अस्त समस्त-दोषम्, त्वत् संकथा अपि जगताम् दुरितानि हन्ति, दूरे सहस्र-किरणः कुरुते प्रभा एव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभान्जि।

शब्दार्थ - आस्ताम् = दूर रहे, तव = आपका, स्तवनम् = स्तुति, अस्त = छिप जाना, समस्त दोषम् = समस्त दोष। त्वत् = आपकी; संकथा = सुकथा, पवित्र गाथा, अपि = भी, जगताम् = जगत के जीवों के, दुरितानि = पापों को, हन्ति = नष्ट करती है। दूरे = दूर, सहस्रकिरणः = सूर्य, कुरुते = कर देती है, प्रभा = प्रकाश, एव = ही। पद्याकरेषु = तालाबों में, जलजानि = कमलों को, विकासभान्जि = विकसित, प्रस्फुटित।।९।।

अन्वय - तव स्तवनं दूरे आस्तां त्वत्संकथा अपि जगतां दुरितानि हन्ति, सहस्रकिरणः दूरे प्रभा एव पद्याकरेषु जलजानि विकासभान्जि कुरुते अस्तसमस्तदोषं।

श्लोकार्थ- मात्र आपकी चारित्र-चर्चा ही जब प्राणियों के पापों को समूल नष्ट कर देती है तब स्तवन /स्तुति की शक्ति का तो कहना ही क्या! सूर्य-उदय से पहले जो उसकी आभा फैलती है उसी से जब कमल खिल उठते हैं तब सूर्य के उदय से कमल खिलेंगे- इसमें क्या संदेह है! ठसीप्रकार आपका यह स्तोत्र पापों का नाश करनेवाला होगा इसमंे क्या संदेह है! अर्थात् कोई संदेह नहीं है।

सब दोषरहित जिनेश, तेरो विरद तो दूरहि रहै।
तुव कथा ही इस जगत के, सब पाप-पुंजन को दहै।
सूरज रहत है दूर ही, पै तासु की किरणावली।
सरवरन में परि करत है, प्रमुदित सकल कुमुदावली।।९।।

Although the sun is far away, yet though its radiance alone blossoms the lotuses in the ponds. Likewise what to say the Encomium of you free of all defect, the narration of thy doings will itself prove destructive of the evils of the Living Beings.

श्रेष्ठ उद्धारक
नात्यद्भुतं भुवनभूषण! भूतनाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा,
भूतयाश्रितं य इह नात्मसमं करोति।।१॰।।

पदच्छेद - न अति अद्भुतम् भुवनभूषण-भूतनाथ, भूतैः गुणैः भुवि भवन्तम् अभिष्टवंतः, तुल्या भवन्ति भवतः ननु तेन किम् वा, भूत्या- आश्रितम् यः इह न आत्मसमम् करोति।

शब्दार्थ - न = नहीं, अति = बहुत, अद्भुतम् = आश्चर्यकारी, भुवनभूषण = जगत के भूषण, भूतनाथ = प्राणियों के रक्षक। भूतैः= सच्चे, गुणैः = गुणों के द्वारा, भुवि = पृथ्वी पर, भवन्तम् = आपकी, अभिष्टवंतः = स्तुति करनेवाले। तुल्या = बराबर, भवन्ति = हो जाते हैं, भवतः = आपके, ननु = निश्चय से, तेन = उनसे, किम् = क्या प्रयोजन, वा = अथवा। भूत्या = सम्पत्ति के द्वारा, आश्रितम् = अपने आधीन को, यः = जो, इह = इस लोक में, न = नहीं, आत्मसमम् = अपने बराबर, करोति = करता है।।१॰।।

अन्वय - भुवनभूषणभूत भुवि भूतैः गुणैः भवन्तम् अभिष्टुवन्तः भवतः तुल्यः भवन्ति अति अद्भुतं न। तेन् किम् प्रयोजन अस्तिः यः इह आश्रितम् भूत्या आत्मसमम् न करोति।

श्लोकार्थ- आप में विद्यमान गुणों की तन्मयता से स्तुति करनेवाले भव्य-पुरुष निःसंदेह आपके ही तुल्य प्रभुता को प्राप्त कर लेते हैं, आपके समान महान् बन जाते हैं, इसमें आश्चर्य करने योग्य कुछ भी नहीं है। जगत में जो उदार चित्त वाले स्वामी होते हैं वे अपने आश्रित सेवकों को अपने जैसा सुखी-समृद्ध बनालें तो इसमें क्या आश्चर्य है ? यदि वे अपने आश्रित सेवकों को अपना जैसा समृद्धिशाली नहीं बना लेते तो उनके धनिक होने से लाभी ही क्या ? अर्थात् आपके गुणों का स्तवन करके मैं भी आपके समान कर्मक्षय कर सकता हूँ और आपके समान सिद्ध/तीर्थंकर बन सकता हूँ।

हे भुवनभूषणरूप प्रभु, इसमें न कछु अचरज रहा।
जो सत्य-गुन-गायक तिहारे, होहिं तुव सम नर महा।
जो स्वामि स्वाश्रित जनन को, अपनी प्रभूतविभूति सों।
अपने समान न करत, ताकी कहा बहु करतूति सों।।१॰।।

O supremely splendid personality of the world and the protector of the living beings! It is not surprising that those who eulogise you, the abode of true virtues, become equal to you. What is the use of a master if he does not make his dependents equal to him in wealth and dignity.

परम दर्शनीय
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः।
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्धसिन्धोः,
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्।।११।।

पदच्छेद - दृष्टवा भवन्तम् अनिमेष विलोकनीयम्, न अन्यत्र तोषम् उपयाति जनस्य चक्षुः, पीत्वा पयः शशिकरः द्युति दुग्धसिन्धोः, क्षारं जलं जलनिधेः असितुम् कः इच्छेत्।

शब्दार्थ - दृष्टवा = देखकर, भवन्तम् = आपको, अनिमेष = अपलक, एकटक, विलोकनीयम् = देखने के योग्य। न = नहीं, अन्यत्र = और कहीं, दूसरी जगह, तोषम् = संतोष को, उपयाति = प्राप्त होते हैं, जनस्य = मनुष्यों के, चक्षुः = नेत्र, आँख। पीत्वा = पीकर, पयः = पानी को, शशिकरद्युति = चन्द्रमा के समान कान्तिवान, दुग्धसिन्धोः = दूध के सागर, क्षीर-समुद्र। क्षारं = खारे, जलम् = जल को, जलनिधेः = सागर के, समुद्र के, असितुम् = पीने की, कः = कौन, इच्छेत् = इच्छा रखेगा।।११।।

अन्वय - अनिमेषविलोकनीयं भवन्तम् दृष्ट्वा जनस्य चक्षुः अन्यत्र तोषम् न उपयाति शशिकरद्युतिदुग्धसिन्धौः पयः पीत्वा कः जलनिधेः क्षारं जलं असितुं इच्छेत्!

श्लोकार्थ- चन्द्रमा की शुभ किरणों की कान्ति के समान धवल क्षीरसागर का जल पी चुकने के पश्चात् ऐसा कौन पुरुष होगा जो लवण समुद्र के खारे पानी को चखने की इच्छा करेगा! उसी प्रकार जो आपको अच्छी तरह से देख लेता है वह फिर किसी अन्य देव को देखकर संतुष्ट नहीं होता।

अनिमेष नित्य विलोकनीय, जिनेश तुमहिं विलोक के।
पुनि और ठौर न तोष पावहिं, जन-नयन इस लोक के।
नव नीर पीकर चाँदनी सौं, छीर-निधि को पावनो।
कहो कौन पीवै सरितपति को, खार-जल असुहावनो।।११।।

The eyes of man after seeing you, who deserves to be looked at always with untwinkling eyes, do not find satisfaction elsewhere. Who will like to sip the saline water of the sea after he has tasted the water of the milky sea possessing the splendor of the moon.

परमं शांत
यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत!
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति।।१२।।

पदच्छेद - यैः शांत राग-रुचिभिः परमाणुभिः त्वम्, निर्मापितः त्रिभुवन-एक ललामभूत, तावन्त एव खलु ते अपि अणवः पृथिव्याम्, यत् ते समानम् अपरम् न हि रूपम् अस्ति।

शब्दार्थ - यैः जिनके द्वारा, शांतराग = रागरहित, रुचिभिः = रुचि से, परमाणुभिः= परमाणुओं के द्वारा, त्वम् = आप। निर्मापित: = रचे हुए, त्रिभुवनैक = त्रिभुवन के एक, ललामभूत = सुंदर प्राणी। तावन्त = उतने, एव = ही, खलु = निश्चय ही, ते = वे, अपि = भी, अणवः = अणु, पृथिव्याम् = पृथ्वी पर। यत् = क्योंकि, ते = आपके, समानम् = समान, अपरम् = दूसरा, अन्य, न हि = नहीं, रूपम् = रूप, अस्ति = है।।१२।।

अन्वय - त्रिभुवनैकललामभूत यैः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिः त्वं निर्मापित खलु ते अणवः अपि तावन्त एव यत् ते समानम् रूपम् पृथिव्यां अपरं न हि अस्ति।

श्लोकार्थ- आप अद्वितीय सुन्दर हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आपके परम औदारिक शरीर की रचना जिन उज्जवल, शांत, रागरहित पुद्गल परमाणुओं से हुई है, वे परमाणु संसार में इतने ही थे अर्थात् सीमित संख्या में ही थे। क्योंकि वैसे परमाणु और होते तो आप जैसा रूप औरों का भी दिखाई देता! अर्थात् समान रूपवान पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं है।

त्रिभुवन शिरोभूषण, अनूपम, शांत भावन सों भरे।
जिन रुचिर शुचि परमाणुवन सों, आप बनि के अवतरै।
ते अणु हते जग में तिते ही, जानि ऐसी मुहि परे।
जातैं अपूरब आप जैसो, रूप नहिं कहुँ लखि परै।।१२।।

O unique embellishment of the three worlds! Those quiet and splendid atoms with which your body has been built, are in fact limited to that extent only, as there is no other Beauty like you on this Earth.