।। निर्जराभावना ।।
ज्यों सरवार जल रूका, सूखता तपन पड़े भारी;
संवर रोके कर्म निर्जरा है सोखनहारी।
उदय भोग सविपाक समय पक जाय आम डाली;
दूजी है अविपाक पकावै पाल विषै माली।।
पहली सबके होय नहीं कुछ सरे काम तेरा;
दूजी करे जु उद्यम करके मिटे जगत फेरा।
संवर सहित करो तप प्राणी मिले मुकति रानी;
इस दुलहिन की यहीसहेली जाने सब ज्ञानी।।1

जिप्रकार सरोवर का रूका हुआ पानी भारी धूप में सूखता है; उसी प्रकार संवर नये कर्मों को आने से रोकता है और निर्जरा पुराने कर्मों को सोखती है। जिस प्रकार आम का फल समय आने पर डाली पर स्वयं पक जाता है, पर कभी-कभी माली उसे पाल में डालकर समय से पूर्व भी पका लेता है; उसीप्रकार कर्मों का स्वसमयानुसार उदय में आकर खिर जाना सविपाकनिर्जरा है और तप द्वारा उदयकाल के पहिले ही खिरा देना अविपाकनिर्जरा है।

पहली सविपाकनिर्जरा तो ज्ञानी-अज्ञानी सभी के सदाकाल होती ही रहती है; उससे किसी का कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वह आत्महित में रंचमात्र भी कार्यकारी नहीं हैं। दसूरी अविपानिर्जरा ज्ञानीजनों द्वारा उद्यमपूर्वक की जाती है और उसी से संसार परिभ्रमण मिटता है। इसलिए हे प्राणियों! संवर सहित तप करो, उससे तुम्हें मुक्तिरानी प्राप्त होगी; क्योंकि मुक्तिरूपी दुलहिन की सहेली अविपाकनिर्जरा ही है - यह सभी ज्ञानीजन भलीभांति जानते हैं। तात्पर्य यह है कि मोक्ष की प्राप्ति अविपाकनिर्जरा से ही होती है।

निर्जराभावना के स्वरूप और प्रकारों की चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द द्वादशानुप्रेक्षा में इसप्रकार करते हैं -

’’बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहिं पण्णत्तं।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे।।66।।
सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा।
चदुगदियाणं पढ़मा वयजुत्ताणं हवे विदिया।।67।।

कर्मबंध के प्रदेशों का गलता निर्जरा है और जिन कारणों से संवर होता है, उन्हीं से निर्जरा होती है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।

वह निर्जरा दो प्रकार की होती है। प्रथम तो स्वसमय में होनेवाली सविपानिर्जरा और दूसरी तप के द्वारा निष्पन्न होनेवाली अविपाकनिर्जरा। पहली सविपाकनिर्जरा चतुर्गति के सभी जीवों के होती है और दूसरी अविपाकनिर्जरा सम्यग्ज्ञानी व्रतधारियों को ही होती है।’’

उक्त कथन में सविपाक और अविपाक निर्जरावाली बात तो पूर्ववत् ही है, पर एक बात नई कही गई है कि जो कारण संवर के कहे गये हैं, निर्जरा भी उन्हीं कारणों से होती है। अतः उन कारणों पर संवरभावना में जिस प्रकार का चिन्तन किया जाता है, उसी प्रकार का चिन्तन निर्जरा-भावना के चिन्तन में भी अपेक्षित है।

निर्जरा के कारणों में संवर के कारणों के अतिरिक्त बारह प्रकार के तप को विशेषरूप से गिनाया गया है, तत्वार्थसूत्र के ’तपसा निर्जरा च’ सूत्र में भी यही बात परिलक्षित होती है। उपलब्ध बारह भावनाओं में विशेषरूप से तप की चर्चा है; गुप्ति समिति आदि संवर के कारणों की चर्चा नगण्य सी ही है। इसका एकमात्र कारण सीमित स्थान और पुनरावृत्ति से बचाव की प्रवृत्ति ही प्रतीत होता है। संवभावना में चर्चा हो जाने के तत्काल बाद उनकी दुबारा चर्चा करना किसी को भी उचित प्रतीत नहीं हुआ।

कार्तिकेयानुप्रेक्षा में निर्जरा के कारणों की चर्चा इसप्रकार की गई है -

’’वारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि।
वेरग्गभावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स।।102।।
जो समसोक्खणिलीणो वारं वारं सरेई अप्पाणं।
इन्दियकसायविजयई तस्स हवे णिज्जरा परमा।।114।।

अहंकार और निदान रहित ज्ञानी के बारह प्रकार के तप से तथा बैराग्यभावना से निर्जरा होती है।

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जो साम्यभावरूप सुख में लीन होकर बार-बार आत्मा का स्मरण करता है, ध्यान करता है तथा इन्द्रियों और कषायों को जीतता है; उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है।’’

उक्त गाथाओं में बारह प्रकार के तपों के साथ वैराग्यभावना को निर्जरा का कारण बताया गया है। सर्वाधिक महत्व इन्द्रियों और कषायों के तीतने, सम्यभाव धारण करने एवं आत्मस्मरण अर्थात् आत्मध्यान के जीतने, साम्यभाव धारण करने एवं आत्मस्मरण अर्थात् आत्मध्यान को दिया गयाा है; क्योंकि इनको सामान्यनिर्जरा का नहीं, परमनिर्जरा का कारण कहा गया है।

यद्यपि बारह तपों में ध्यान भी एक तप है; तथापि उसका उल्लेख पृथक्रूप से विशेष किया गया है। वस्तुतः बात तो यह है कि शुद्धोपयोगरूप आत्मध्यान की निरंतन वृद्धि ही भावनिर्जरा है और द्रव्यनिर्जरा का मूल है।

धर्म की उत्पत्ति संवर, वृद्धि निर्जरा और पूर्णता मोक्ष है। आत्मशुद्धि ही धर्म है; अतः इस प्रकार भी कह सकते हैं कि शुद्धि की उत्पत्ति संवर, शुद्धि की वृद्धि निर्जरा और शुद्धि की पूर्णता ही मोक्ष है।

भेदविज्ञान और आत्मानुभूतिपर्वूक निश्चयरत्नत्रयरूप शुद्धि की उत्पत्ति व स्थिति भावसंवर है और उसके निमित्त से आते हुए कर्मों का रूकना द्रव्यसंवर; आत्मध्यानरूप शुद्धोपयोग से उक्त शुद्धि की वृद्धि होते जाना-शुद्धि का निरंतर बढ़ते जाना भावनिर्जरा है और उसके निमित्त से पूर्वबद्ध कर्मों का समय से पूव ही खिरते जाना द्रव्यनिर्जरा है; तथा पूर्ण शुद्धि का प्रगट हो जाना ही भावमोक्ष है, तदनुसार सम्पूर्ण द्रव्यकर्मों से आत्मा का मुक्त हो जाना द्रव्यमोक्ष है।

जिसप्रकार वृक्ष की उत्पत्ति बिना उसकी वृद्धि और पूर्णता संभव नहीं है; उसीप्रकार आत्मशुद्धि की उत्पत्ति बिना उसकी वृद्धि और पूर्णता संभव नहीं है। यही कारण है कि निर्जरा संवरपूर्वक ही होती है।

जिसप्रकार संवरभावना में संवर के कारणों के विस्तार में जाना अभीष्ट नहीं होता, अपितु उनकी उपादेयता का विचार, भेदविज्ञान और आत्मानुभूति की प्रबल भावना ही अभीष्ट होती है; उसीप्रकार निर्जराभावना में भी निर्जरा के कारण बारह तपों के विस्तार में जाना अभीष्ट नहीं होता, शुद्धोपयोगरूप आत्मध्यान की प्रबल भावना ही अभीष्ट होती है।

ज्ञानीजनों का एकमात्र अभीष्ट अनन्तसुखमय मोक्ष ही होता है। उसकी प्राप्ति की प्रबल हेतुभूत एवं आत्मशुद्धि की वृद्धिरूप निर्जरा की भावना उनके सहज ही प्रस्फुटित होती है और होनी भी चाहिए।

ध्यान रहे बारह भावनाओं में मोक्षभावना नाम की कोई भावना नहीं है; अतः इस निर्जराभावना में ही शुद्धि की पूर्णतारूप मोक्ष की भावना भी होती ही है।

अशुद्धि का सम्पूर्णतः अभाव और शुद्धि की पूर्णतः प्राप्ति ही मोक्ष है; तथा शुद्धि की उत्पत्ति व स्थितिरूप संवर तथा वृद्धिरूप निर्जरा मोक्षमार्ग है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए मोक्ष की भावना से भी अधिक महत्व मोक्षमार्ग की भावना का है। यही कारण है कि बारह भावनाओं में मोक्षमार्गरूप होने से संवर ओर निर्जरा को भावनाओं के रूप में स्वतंत्र स्थान प्राप्त है, जब कि मोक्ष को इन्हीं में सम्मिलित कर लिया गया है।

समयसार जैसे ग्रन्थाधिराज को समाप्त करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समस्त जगत को मोक्षमार्ग में अपने आत्मा को स्थापित करने का आदेश देते कहते हैं -

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