।। लोकभावना ।।

यह बात पहले भी स्पष्ट की जा चुकी है कि लोकभावना में छहद्रव्यों के समुदायरूप लोक की बात भी चिन्तन का विषय बनती है और लोक की भौगोलिक स्थिति भी। लोकभावना की विषय-वस्तु संबंधी उत दोनों प्रकारों में से एक ने प्रथमप्रकार को एवं दूसरे ने दूसरेपकार को पकड़कर अपनी बात प्रस्तुत कर दी है। दो पंक्तियों के छोटे से छंद में इससे अधिक और कहा भी क्या जा सकता था? पर एक बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि लोकभावना की जो मूल भावना है, वह दोनों में समानरूप से विद्यमान है।

मूल बात लोक के स्वरूप प्रतिपादन की हीं, सम्यग्ज्ञान और समताभाव बिना जीव के अनादि परिभ्रमण की है; क्योंकि समम्यगान और समताभाव की तीव्रतम रूचि जागृत करना ही इस भावनाओं के चिनतन का मूल प्रयोजन है।

लोकभावना संबंधी सम्पूर्ण विषय-वस्तु एवं मूलभूत प्रयोजन की बात मंगतराय कृत बारह भावनाओं में समागत लोकभावना में और भी अधिक मुखरित हुई है, जो इसप्रकार है -

’’लोक अलोक अकाश माँहि थिर निराधार जानो।
पुरूषरूप कर कटी भये षट्द्रव्यन सों मानो।।
इसका कोई न करता हरता अमिट अनादी है।
जीव रू पुद्गल नाचे यामें कर्म उपाधी है।।
पाप-पुण्य सों जीव जगत में नित सुख-दुख भरता।
अपनी करनी आप भरै शिर औरन के धरता।।
मोहकर्म को नाश मेटकर सब जग की आशा।
निजपद में थिर होय लोक के शीश करो वासा।।

अलोकाकाश में यह षट्द्रव्यमयी लोक निराधार (स्वयं के आधार पर) स्थित है और कमर पर हाथ रखे पुरूष के आकार का है। इस लोक का कोई भी कत्र्ता-हत्र्ता नहीं है; क्योंकि यह अनादि-अनन्त अमिट है। इस लोक में कर्म उपाधि के कारण जीव और पुद्गल ही नृत्य कर रहे हैं, पाप-पुण्य के वश जीव निरन्तर दुख-सुख भोग रहा है।

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य़द्यपि यह जीव अपनी करनी का फल स्वयं ही भोगता है; तथापि उसे दूसरों के शिर मढ़ता रहता है। यह वृत्ति ही इसके दुःखों का, परिभ्रमण का मूल कारण है।

अतः हे भव्यप्राणियों! यदि अपना हित चाहते हो तो सम्पूर्ण जगत की सभी आशाओं को मेटरक और मोहकर्म का नाश करके निज पद में स्थिर हो जाओ। यदि ऐसा कर सके तो तुम्हारा आवास लोक के शिखर पर होगा। तात्पर्य यह है कि तुम्हें सिद्धपद की प्राप्ति होगी; क्योंकि सिद्ध भगवान ही लोकशिखर पर विद्यमान सिद्धशिला पर विराजते है।’’

उक्त छनद में लोक का आकार, स्वरूप, स्थान, स्थिति, स्वाधीनता, अकृत्रिमता, अनादि-अनन्तता आदि सब-कुछ आ गया है; साथ ही इस लोक में जीव के परिभ्रमण का कारणरूप कत्र्ताबुद्धि और दसूरों के माथे स्वयंकृत अपराधों को मढ़ने की अनादिकालीन वृत्ति-दुष्प्रवृत्ति का परिचय भी दे दिया गया है। अन्त में जगत की आशा छोड़ने और मोहकर्म के नाश करने की पावन प्रेरणा देते हुए अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में स्थिर होने का अनुरोध भी किया गया है और उसका फल सिद्धपद की प्राप्ति बताकर प्रेरणा को सबल बना दिया गया है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि जो अति-आवश्यक था, वह सब एक ही छंद में बड़े ही प्रभावक ढंग से समेट लिया गया है। निर्जराभावना के उपरान्त आनेवाली इस लोकभावना को लोकशिखर सिद्धशिला (मोक्ष) से जोड़कर अद्भुत संधि बिठा दी गई है। इतनी अधिक विषय-वस्तु एक ही छनद में समाहित कर देने के उपरान्त भी वैराग्यवर्धक भावना को ठेस न पहुँचाकर अद्भुत बल मिला है; भावनात्मक चिनतन का वेग, वैराग्यभावना का उद्वेग अपने पूरे प्रवाह पर कायम ही नहीं रहा, अपितु वृद्धिंगत रहा है।

लोकभावना की मूलभावना पंडित जयचन्दजी छाबड़ा के शब्दों में अति-संक्षेप में इस प्रकार है -

’’लोकस्वरूप विचारि कैं, आतमरूप निहारि।
परमारथ व्यवहार मुणि, मिथ्याभाव निवारि।।’’

उक्त छंद में प्रेरणा दी गई है कि हे आत्मन्! निश्चय-व्यवहार को अच्छी तरह समझ कर मिथ्याभावों को दूर करो, षट्द्रव्यमयी लोक के स्वरूप को भली-भांति विचार कर अपने को देखों, आत्मा का अनुभव करो।

विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां षट्द्रव्यों को तो मात्र जानने की ही बात कही, पर आत्मा को निहारने का आदेश दिया है; क्योंकि परद्रव्य होने से षट्द्रव्य तो मात्र ज्ञान के ज्ञेय ही हैं, पर आत्मा निजद्रव्य होने से परम-उपादेय है, ध्यये भी है।

मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप मिथ्याभावों के निवारण करने का एकमात्र उपाय अपने आत्मा को निहारना ही है; क्योंकि आत्मा के निहारने-दर्शन करने, जानने, ध्यान करने का नाम ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है।

जगत को जानकर उससे दृष्टि हटाकर निज भगवान आत्मा में स्थिर हो जाना ही लोकभावना के चिनतन का सुपरिणाम है। यही कारण है कि लोकभावना के चिनतन का मूल केन्द्रबिंदु षट्द्रव्यमयी लोक से भिन्न निज भगवान आत्मा की उपासना करने की प्रेरणा देना ही रहा है।

इस दृष्टि से निम्नांकित छनद द्रष्टव्य हैं -

’’तेरो जनम हुवो नहीं जहां, ऐसा ख्तर नाहीं कहाँ।
याही जनम-भूमि का रचो, चलो निकासि तो विधि तैं बचो।।1

सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां तेरा जन्म न हुआ हो। हे आत्मन् ! तू इस जन्मभूमि में ही क्यों रच-पच रहा है। यदि कर्मों के बन्धन से बचना है तो इससे अपनत्व तोड़ो, राग छोड़ो; इसी में भला है।

लोक माँहि तेरो कछु नाहिं, लोक आन तुम आन लखहिं।
वह षट्क्रव्यन को सब धाम, तू चिन्मूरति आतमराम।।1

इस जगत में तेरा कुछ भी नहीं है। जगत अलग है और तू अलग है - यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है; क्योंकि जगत षट्द्रव्यों का आवास है, षट्द्रव्यमयी है और तू चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा है।’’

उक्त छन्दों में जगत से भेदविज्ञान एवं वैराग्यभाव पर ही विशेष बल दिया गया है, लोक के स्वरूप या आकार पर नहीं; अतः यह अत्यनत स्पष्ट है कि लोकभावना के चिन्तन में जगत से विरक्ति एवं भिन्नता की प्रबलता ही मुख है।

एक सौ उनहत्तर गाथाओं में लोकभावना का विस्तृत विवेचन करने के उपरान्त कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय लोकभावना के चिन्तन का फल बताते हुए लिखते हैं -

’’एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्कसब्भाओ।
सो खविय कम्मपुँज तस्सेव सिहामणी होदि।।2

इसप्रकार लोक के स्वरूप को उपशमभाव से जो पुरूष एक (आत्मा) स्वभावरूप होता हुआ ध्याता है; वह कर्मसमूह का नाश करके उस ही लोक का शिखामणी होता है अर्थात् सिद्धदशा को प्राप्त होता है।’’

कार्तिकेयानुप्रेक्षा के हिन्दी वचनिकाकार पंडितप्रवन श्री जयचन्दजी छाबड़ा लोकानुप्रेक्षा की वचनिका लिखने के उपरान्त लोकानुप्रेक्षा की सम्पूर्ण विषय-वस्तु का उपसंहार करते हुए सारांश के रूप में एक कुण्डलिया लिखते हैं, जो इस प्रकार है -

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