मानतुंग आचार्य की कथा . भक्तामर स्तोत्र का प्रभाव
मालव प्रान्त की उज्जयिनी नगरी में संस्कृत भाषामर्मज्ञ, विद्याप्रेमी एवं गुणग्राही राजा भोज राज्य करते थे। उनके राज्य में बड़े-बड़े संस्कृतादि के विद्वान् थे। उनमें विप्र कालिदास और ब्रह्मरूचि विशेष ज्ञानी थे। कालिदास ने 7 दिन तक कालीदेवी की आरधना कर विद्या प्राप्त की थी। उसने 7 दिन तक मठ में जाकर साधना की, आठवें दिन देवी ने प्रसन्न हो वर मांगने को कहा। कालिदास ने वचन सिद्धि और विपत्ति में सहायक होने कावचन ले लिया।
एक दिन नगर सेठ, पुत्र मनोहर केसाथ लेकर दरबार में पहुंचे। राजा ने उनका सम्मान कर कुशल-क्षेम पूछा। पश्चात् राजा ने पूछा। आपका यह होनवार बालक क्या पढ़ता है। सेठजी ने उत्तर दिया अभी इसका विद्यारम्भ ही है। इसने केवल नाममाला के श्लोक कंठस्थ किये हैं। विद्वान राजा भोज ने नाममाला नाम का कोई संस्कृत ग्रन्थ सुना भी नहीं था, वे बोले-
राजा- नाममाला ग्रन्थ का नाम तो आप पहली बार आपके मुख से सुन रहा हूं, इस अद्भुत ग्रन्थ के रचयिता कौन हैं?
कालिदास सारी चर्चा सभी में बैठे हुए सुन रहे थे। उनको जैनियों से प्राकृतिक द्वेष था विशेषकर धनंजय तोउनकी आंखों को देखे भी नहीं सुहाते थे। अतः उनकी प्रशंसा कालिदास सहन नहीं कर सके और बीच में ही बोल पड़े कि-महाराज! कहीं वैश्य महाजन भी वेद पढ़ते हैं? इन बेचारों के पास विद्या कहां से आई? ये संस्कृत के रहस्य को क्या जानें? ग्रन्थ लिखना तो दूर रहा।
गुणानुरागी राजा भोज के मन पर कालिदास के इस कथन का कुछ भी प्रभाव नही पड़ सका अपितु उनहें विद्वद्वर धनंजय से मिलने की तीव्र उत्कंठा, उत्सुकता सताने लगी। कारण कि विद्वानों से प्रेम-सम्भाषण का आदिनाथ प्रभु के चरण-कमलों को ध्यान का आश्रय बना स्तुति रचना प्रारम्भ की। ज्योंही यन्त्र-मन्त्र और ऋद्धि से गर्भित आदिनाथ प्रभु का स्तोत्र पढ़ते गये तभी हथकड़ी, बेड़ी और सब ताले टूटते गये, खट-खट सब द्वार खुल गये, मुनिराज बाहर निकल कर चबूतरे पर जा विराजे। बेचारे पहरेदारों को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने बिना किसी से कहे सुने फिर उसी तरह उन्हें कैद कर दिया। परंतु थोड़ी ही देर में फिरवही दशा हुई, सेवकों ने फिर वैसा ही किया पर श्रीमानतुंगाचार्य फिर बाहर आ विराजे। अबकी बार सेवकों ने राजा से आके निवेदन किया औरस्वामी के बन्धर रहित होने पर वृत्तान्त सुनाया। यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ परंतु पीछे यह सोचकर कि शायद रक्षा में कुछप्रमाद हुआ होग, इसलिये सेवकों से फिर कहा कि उन्हें उसी तरह बन्द कर दो और खूब निगरानी रक्खो। सेवकों ने वैसा ही किया, परन्तु फिर यह हाल हुआ कि वे सकलव्रती साधु बाहर निकल कर सीधे राज्यभा में ही जा पहुंचे।
महात्माजी के दिव्य शरीर के प्रभाव से राजा का हृदय कांप गया। उन्होंने कालिदास को बुलाकर कहा कि कविराज! मेरा आसन कम्पित हो रहा है, मैं अब इस सिंहासन पर क्षण भर भी नहीं ठहर सकता हूं। कालिदास ने राजा को धैर्य बंधया और उसी समय योगासन पर बैठकर कालिका स्तोत्र पढ़ना शुरू कर दिया। तो थोड़े ही समय में कालिका देवी प्रकट हुई। इतने में मुनिराज के समीप चक्रेश्वरी देवी ने दश्ज्र्ञन दिये। चक्रेश्वरी का रूप सौम्य और कालिका का विकराल, चण्डी रूप देखकर राज्यसभा चकित हो गई। चक्रेश्वरी ने ललकार कर कहा कि कालिके! तू यहां क्यों आई? क्या अब तूने मुनि महात्माओं पर उपसर्ग करने की ठानी है? अच्छा देख अब मैं तेरी कैसी दशा करती हूं। प्रभावशालिनी चक्रेश्वरी को देखकर कुटिल कालिक कांप गई। और नाना प्रकार से स्तुति करके कहने लगी कि हे माता! क्षमा करो । अब मैं ऐसा कृत्य कभी नहीं करूंगी। इस पर चक्रेश्वरी ने काली को बहुत सा उपदेश दिया और अन्तर्धान हो गई। इसके पश्चात् कालिका ने मानतुंग आचार्यश्री से क्षमा प्रार्थना की और अदृश्य हो गई।
राजा और कालिदास ने मानतुंग का प्रताप देखकर क्षमा मांगी और नाना प्रकार से स्तुति की, राजा भोज ने मुनिराज से श्रावक के व्रत लिये और राज्य में जैनधर्म का खूब प्रचार किया, जिससे आज तक धर्म हरा-भरा बना है।
उन्हें एक अद्भुत व्यसन था। कालिदास के कथन की उपेक्षा करके उन्होंने शीघ्र ही कविराज को बुलाने भेजा और वे भी शीघ्र राजसभा में हाजिर हो गए।
आते ही उन्होंने राजा के लिए आशीर्वादात्मक एव श्लोक पढ़ा जिसे सुनकर सभाजन और राजा भोज भी प्रसन्न हुए। राजाने उचित आदर सम्मान के पश्चात् कुशल क्षेम पूछा। तदनन्तर वार्ताहोने लगी।
राजा - हमने सुना है आप एक प्रसिद्ध विद्वान् हैं; परंतु आश्चर्य है आप आज तक हमसे नहीं मिले।
धनन्जय - मुस्कराते हुए! कृपानाथ ् आप पृथ्वीपति हैं, जब तक पुण्य का दय नहीं हो तब तक आपके दर्शनों का लाभ कैसे मिल सकता है? आज हमारे धन्य भाग हैं जो आपसे साक्षात् करके सफल मनोरथ हुआ हूं।
राजा- कविवर! आप उच्चकोटि के विद्वान् हैं फिर वह छोटा-सा ग्रन्थ आपको शोभा नहीं देात। अवश्य ही कोई महाग्रंथ आपने लिखा होगा या लेखन चालू होगा।
ईष्र्यालु कालिदास की कषायग्नि फूट पड़ी-राजन्, नाममाला तो हम लोगों की है इसका वास्तविक नाम नाममंजरी है। ब्राह्मण विद्वान् ही इसको बनाने की योग्यता रखते हैं। ये बनिया लोग ग्रन्थ-रचना के मर्म का क्या जानें?
‘‘अभिमान करना नहीं, मान छोड़ना नहीं।’’ नीति अनुसार धनंजय का स्वाभिमान जाग उठा, सोचने लगे-देखो कैसी विचित्रता है। दिन-दहाड़े दूसरे की कृति पर अपना अधिकार! उन्हें बहुत बुरा लगा। वे राजा से बोले-कालिदास बिल्कुल झूठ बोलता है। मैंने यह ग्रन्थ बालकों के पठनार्थ रचा है। इस बात को बहुत लोग जानते हैं। आप एक पुस्तक मंगाकर देख लीजिये, लगता है इन्होंने मेरा नाम लोप करके अपना नाम रख लिया है और नाममंजरी नाम बताते हैं।
विद्या विशारद, निष्पक्ष न्यायदायक राजा भोज ने ग्रन्थ को मंगाकर आद्योपान्त देखा और विद्वत्मंडली का सम्पर्क पाकर कालिदास को कहा कि-तुमने बहुत अनर्थ किया है। दूसरे की कृति छिपाकर उसे अपनी कहना चोरी है? क्या आपको यह शोभा देता है (फटकारने लगे)।
कालिदास ने कहा कि महाराज ! यह धनंजय अभी कल ही तो उस अज्ञानी मानतुंग से जिसमें विद्या की गन्ध भी नहीं है, पढ़ता था, आज यह कहां से विद्वान् बन गया जो ग्रंथ रचने लगा है। उस मानतुंग को ही बुलाओं जिससे इसके पांडित्य की परीक्षा सहज हो जावेगी।
गुरूदेव मानतुंग का यह अपमान धनंजय को सहन नहीं हो सका अपितु वे कुपित हो बोले ‘‘कौन ऐसा विद्वान् है जो मानतुंग के चरण-कमलों की बराबरी कर सके। मैं देखता हूं कि तुम्हारी विद्वत्ता को,पहले मुझसे तो शास्त्रार्थ करें। कवि धनंजय और कालिदास के बीच परस्पर विवाद चलते रहे। स्याद्वादी धनंजय के सामने कालिदास निरूत्तर हो खिसिया गये। कालिदास फिर भी जागृत नहीं हुए, पुनः राजा के पास वही बात बोले कि मैं ‘‘धनंजय के गुरू मानतुंग से शास्त्रार्थ करूंगा।’’