ऐसे घोर उपसर्ग के समय जो नाग और नागिन मरकर पाताल लोक में धरणेन्द्र और पद्यावती हुए थे, वे अपने उपकारी के ऊपर उन्सर्ग हुआ जानकर तुरन्त आये। धरणेन्द्र ने सहस्रफण वाले सर्प का रूप धारण भगवान् के ऊपर अपन फण फैला दिया और इस तरह उपद्रव से उनकी रक्षा की। उसी समय पाश्र्वनाथ को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई उस वैरी देव ने उनके चरणों में शीश नवाकर उनसे क्षमा याचना की। फिर करीब 70 वर्ष तक जगह-जगह विहार करके धर्मोपदेश करने के बाद 100 वर्ष की उम्र में वे सम्मेदशिखर से निर्वाण को प्राप्त हुए। इन्हीं के नाम से आज सम्मेदशिखर पर्वत ‘पाारसनाथहिल‘ कहलाता है। इनकी जो मूर्तियां पाई जाती हैं, उनमें उक्त घटना के स्मृतिस्वरूप सिर पर सर्प का फन बना हुआ होता है। जैनेतर जनता में इनकी विशेष ख्याति है। कहीं-कहीं तो जैनों का मतलब ही पाश्र्वनाथ का पूजक समझा जाता है।
भगवान् महावीर
भगवान् महावीर अंतिम तीर्थंकर थे। लगभग 600 ई. पू. बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के घर में उनका जन्म हुआ। उनकी माता त्रिशला वैशाली नरेश राजा चेटक की पुत्री थी। महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। महावीर सचमुच में महावीर थे। एक बार बचपन में ये अन्य बालकों के साथ खेल रहे थे। इतने में अचानक एक सर्प कहीं से आ गया और उनकी ओर झपटा। अन्य बालक तो डरकर भाग गये किन्तु महावीर ने उसे निर्मद कर दिया। महावीर जन्म से ही विशेष ज्ञानी थे। एक बार एक मुनि उनको देखने के लिए आये और उनके देखते ही मुनि के चित्त में जो शास्त्रीय शंकाएं थीं वे दूर हो गईं। जब महावीर बड़े हुए तो उनके विवाह का प्रश्न उपस्थित हुआ किन्तु महावीर का चित्त तो किसी अन्य ओर ही लगा हुआ था। उस समय यज्ञादिक का बहुत जोर था और यज्ञों मंे पशु बलिदान बहुतायत से होता था। बेचारे मूक पशु धर्म के नाम पर बलिदान कर दिये जाते थे और ‘वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति‘ की व्यवस्था दे दी जाती थी। करूणा सागर महावीर के कानों तक भी उन मूक पशुओं की चीत्कार पहुंची ओर राजपुत्र महावीर का हृदय उनकी रक्षा के लिए तड़प उठा। धर्म के नाम पर किये जाने वाले किसी भी कृत्य का विरोध कितना दुष्कर है यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। किन्तु महावीर तो महावीर थे। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़कर वन का मार्ग अपना लिया और भगवाऩ् ऋषभदेव की तरह ही प्रव्रज्या लेकर ध्यानस्थ हो गये।
महावीर के जन्म आदि का वर्णन करने वाली कुछ प्राचीन गाथाऐं मिलती हैं जिनका भाव इस प्रकार हैं-
‘जो देवों के द्वारा पूजा जाता था, जिसने अच्युत कल्प नामक स्वयं में दिव्य भोगों को भोगा, ऐसे महावीर जिनेन्द्र का जीव कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु पाकर, पुष्पोत्तर नामक विमान से च्युत होकर, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन, कुण्डपूर नंबर के स्वामी सिद्धार्थ क्षत्रिय के घर, नाथवंश में, सैकड़ों देवियों से सेवित त्रिशला देवी के गर्भ में आया और वहां नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदेशी की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए महावीर का जन्म हुआ।‘
‘अट्ठाईस वर्ष सात माह और बारह दिन तक देवों के द्वारा किये गये अमानुषिक अनुपम सुख को भोगकर जो आभिनिबोधित ज्ञान से प्रतिबद्ध हुए, ऐसे देवपूजित महावीर भगवान् ने षष्ठोषवास के साथ मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन जिन-दीक्षा ली।‘
‘बारह वर्ष पांच माह और पन्द्रह दिन पर्यन्त छद्यस्थ अवस्था की बिताकर ;तपस्या करकेद्ध रत्नत्रय से शुद्ध महावीर भगवान् ने जृम्भिक ग्राम के बाहर ऋजुकूला नदी के किनारे सिलापट्ट के ऊपर षष्ठोपवारा के साथ आतापन योग करते हुए अपराह्न काल में जब छाया पादप्रमाण थी, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन क्षपक क्षेणी पर आरोहण किया और चार घातिया कर्मों का नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया।
केवल ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भगवान् महावीर ने 66 दिन तक मौन पूर्वक विहार किया, क्योंकि तब तक उन्हें कोई गणधर गण का-संघ का धारक, जो कि भगवान् के उपदेशों को स्मृति मंे रखकर उनका संकलन कर सकता, नहीं मिला था। विहार करते-करते महावीर मगध देश की राजधानी राजगृही में पधारे और उसके बाहर विपुलाचल पर्वत पर ठहरे। उस समय राजगृही में राजा श्रेणिक रानी चेलना के साथ राज्य करते थे।
वहीं पर आसाढ़ शुक्ला पूर्णिमा जिसे गुरूपूर्णिमा भी कहते है, के दिन इन्द्रभूति नाम का गौतमगोत्रीय वेद वेदांग में पारंगत एक शीलवान ब्राह्मण विद्वान जीव अजीव विषयक संदेह को दूर करने के लिये महावीर के पास आया और संदेह दूर होते ही उसने महावीर के पादमूल में जिन-दीक्षा ले ली और उनका प्रधान गणधर बन गया। उसके बाद ही प्रातःकाल में भगवान् की प्रथम देशना हुई। जैसा की प्राचीन गाथाओं में लिखा है-
पंचशैलपुर में ;पांच पर्वतों से शोभायमान होने के कारण राजगृही को पंचशैलपुर या पंचपहाड़ी कहते हैंद्ध रमणीक, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त और देव-दानव से वन्दित विपुल नामक पर्वत पर महावीर ने भव्य जीवों को उपदेश दिया।
‘वर्ष के प्रथम अर्थात् श्रावणमास में, प्रथम पक्ष अर्थात् कृष्णपक्ष में प्रतिपदा के दिन, प्रातःकाल के समय अभिजीत नक्षत्र के उदय रहते हुए धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।‘
‘इस प्रकार जिन श्रेष्ठ महावीर ने लगभग 82 वर्ष की अवस्था में राग, द्वेष और भय से रहित होकर अपने धर्म का उपदेश दिया।
भगवान् महावीर ने तीस वर्ष तक अनेक देश देशान्तरों में विहार करके धर्मोपदेश दिया। जहां वह पहुंचते थे वहीं उनकी उपदेश सभा लग जाती थी और उसमें ंिहन्सक पशु तक पहुंचते थे और जातिगत कू्ररता को छोड़कर शान्ति से भगवान् का उपदेश सुनते थे। इस तरह भगवान् काशी, कोशल, पांचाल, कलिंग कुरूजांगल कम्बोज, वाल्हीक, सिंधु, गांधार आदि देशों में विहार करते हुए अंत में पावा नगरी ;बिहारद्ध में पधारे और वहां से कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि में अर्थात् अमावस्या के प्रातःकाल में सूर्योदय से पहले मुक्तिलाभ किया। जैसा कि लिखा है-
‘उनतीस वर्ष, पांच मास और बीस दिन तक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों और बारह गणों अर्थात् सभाओं के साथ विहार करने के पश्चात् भगवान् महावीर ने पावानगर में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते हुए, रात्रि के समय शेष अघाति कर्मरूपी रज को छेदकर निर्वाण को प्राप्त किया।
वर्तमान में जो वीर निर्वाण सम्वत् जैनों में प्रचलित हैं, उसके अनुसार 527 ई. पू. में वीर का निर्वाण हुआ माना जाता है। कुछ प्राचीन जैन-ग्रन्थों में शकराजा से 605 वर्ष 5 मास पहले वीर के निर्वाण होन का उल्लेख मिलता है। उससे भी इसी काल की पुष्टि होती है।