।। चौबीस तीर्थंकर ।।

सप्तम तीर्थंकर सुपाश्र्वनाथ

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काशी देश की वाराणसी नगरी में भगवान् वृषभदेव के इक्ष्वाकु वंश में सुप्रतिष्ठ महाराज की पृथ्विीषेणा रानी से तीर्थंकर सुपाश्र्वनाथ का जन्म हुआ। आयु के प्रारंभिक आठ वर्ष बाद उन्हें देश संयम हो गया। अतः भोगोपभोग की वस्तुओं की प्रचुरता होने पर भी वे अपनी आत्मा को अपने वश में रखते थे। साम्राज्य सुख भोगते हुए एक बार ऋतु परिवर्तन देखकर उन्हें संसार की नश्वरता का बोध हुआ। उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। नौ वर्ष बाद उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। उनकी सभा में तीन लाख दिगम्बर मुनि थे। लोगों को धर्मामृत पान कराते हुए अन्त मंे योगों का निरोधकर सम्मेद शिखर से मुक्त हुए।

अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभ

चन्द्रपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी, काश्यप गोत्री तथा महान् वैभव के धारी महासेन राजा राज्य करते थे। उसकी महादेवी का नाम लक्ष्मणा था। उनके यहाॅं चन्द्रप्रभ भगवान् का जन्म हुआ। उनका शरीर शुक्ल था, भाव भी शुक्ल थे। उनके गुण निर्मल थे, अतः उनसे जो लक्ष्मी और कीर्ति उत्पन्न हुई थी, वह भी निर्मल ही थी। साम्राज्य संपदा का उपभोग करते हुए उनका बहुत समय बीत गया। एक बार वे दर्पण में अपन मुख देख रहे थे। वहाॅं उन्होंने मुख पर स्थित किसी वस्तु को वैराग्य का कारण निश्चित किया। वे इस प्रकार विचार करने लगे- ‘‘यह शरीर नश्वर है, इससे जो प्रीति की जाती है, वह ईति के समान दुःखदायी है। वह सुख ही क्या है, जो अपनी आत्मा से उत्पन्न न हो, वह लक्ष्मी ही क्या है, जो चंचल हो, वह यौवन ही क्या हो, जो नष्ट हो जाने वाला हो, वह आयु ही क्या है, जो अवधि सहित हो ? मैं वही हॅंू, पदार्थ वही है, इन्द्रियाॅं वहीं हैं, प्रीति और अनुभूति वही है तथा प्रवृत्ति भी वही है, किन्तु इस संसार की भूमि में यह सब बार बार बदलता रहता है।‘‘ ऐसा सोचकर उन्होंने वरचंद्र नामक पुत्र का राज्याभिषेक कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। वे श्रमण धर्म का पालन करने लग। जिनकल्पमुद्रा में तीन माह बिताकर उन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अंतराय कर्म का विनाश किया। अघातिया कर्मों में से भी कितनी ही प्रकृतियों का नाश हुआ। वे सयोगकेवली जिनेन्द्र हो गए। उन्होंने समस्त आर्य देशों में विहार कर धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति की। उनके समवसरण में ढाई लाख दिगम्बर मुनि थे। अन्त में सम्मेदशिखर पर पहुॅंच योग निराध कर उन्होंने सिद्धावस्था प्राप्त की।

नवम तीर्थंकर पुष्पदंत

काकन्दी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा राज्य करता था। जयरामा उसकी पटरानी थी। इनके यहाॅं तीर्थंकर पुष्पदंत का जन्म हुआ। उनका दूसरा नाम सुविधिभी था। दीर्घकाल तक राज्य करने के बाद एक बार उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। वे विचार करने लगे कि संसार मे न तो कोई वस्तु स्थिर है, न शुभ है, न सुख देने वाली है और न कोई पदार्थ मेरा है, मेरा तो अपना आत्मा ही है, सारा संसार मुझसे पृथक् है और मैं इससे पृथक् हूॅं। इस प्रकार विचार कर सुमति नामक पुत्र को राज्य देकर उन्होंने दिगम्बर मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्हें 4 वर्ष तक तप करने पर केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उनकी धर्मसभा मंे 88 गणधर, 1500 श्रुतकेवली, एक लाख पचपन हजार पाॅंच सौ शिक्षक, आठ हजार चार सौ अवधिज्ञानी, सात हजार केवलज्ञानी, तेरह हजार विक्रिया ऋद्धि के धारी, सात हजार पाॅंच सौ मनः पर्ययज्ञानी और छः हजार छः सौ वादी थे। घोषर्यादि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकायें तथा दो लाख श्रावक तथा 5 लाख श्राविकायें थीं। असंख्यात देव और संख्यात तिर्यच्च थे। अंत में सम्मेद शिखर से मुक्त हुए।

दशम तीर्थंकर शीतलनाथ

मलय नामक देश के भद्रपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी राजा दृढ़रथ की महारानी सुनंदा से तीर्थंकर शीतलनाथ का जन्म हुआ। देवों ने सुमेरू पर्वत पर उनका महाभिषेक किया। उनके जन्म लेने से पहले पल्य के चैथाई भाग तक धर्म-कर्म का विच्छेद रहा। जब उनकी आयु का चतुर्थ भाग शेष रहा तथा संसार भ्रमण अत्यंत अल्प रह गया तब उनके प्रत्याख्यानावरण कषाय का अंत हो गया। पाले के समूह की नश्वरता देख उन्हें वैराग्य हो गया। उन्होंने एक हजार राजाओं के साथ सकल संयम धारण कर लिया। असंख्यात देशों में विहार कर उन्होंने धर्मोपदेश दिया। वे एक लाख दिगम्बर मुनियों के स्वामी थे। अन्त में सम्मेदशिखर से उनका निर्वाण हुआ।

एकादशवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ

इक्ष्वाकुवंशी विष्णु नामक राजा के यहाॅं उनकी पटरानी नंदा से श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ। उनका जन्म होने पर रोगी मनुष्य नीरोग हो गए, शोक वाले शोक रहित हो गए और पापी जीव धर्मात्मा बन गए। सौधर्मेन्द्र जिनबालक को ऐरावत हाथी के कंधे पर विराजमान कर देवों की सेना के साथ मेरूपर्वत पर गया। वहांॅं क्षीरसमुद्र के जल से उनका अभिषेक कराया, आभूषण पहिनाए और श्रेयांस नाम रखा। उन्होंने बयालीस वर्ष तक राज्य किया। एक बार बसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। उनकी धर्म सभा में चैरासी हजार दिगम्बर मुनि थे। धर्म का उपदेश देते हुए अन्त में योग का निरोधकर विद्यमान कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा की और अ इ उ ऋ लृ इन पाॅंच लघु अक्षरों के उच्चारण में जिनता समय लगता है, उतने समय में अंतिम दो शुक्लध्यानों से समस्त कर्मों को नष्ट कर सम्मेदशिखर से मुक्ति प्राप्त की। जिस प्रकार चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हुआ, इसी प्रकार श्रेयांसनाथ के तीर्थ में त्रिपुष्ठ नामक प्रथम नारायण, अश्वग्रीव नामक प्रथम प्रतिनारायण और विजय नामक प्रथम बलभद्र हुआ।

द्वादशवें तीर्थंकर वासुपूज्य

अंग देश के चम्पापुर नगर में इक्ष्वाकुवंशी, काश्यप गोत्री राजा वसुपूज्य की जयावती रानी से वासुपूज्य तीर्थंकर का जन्म हुआ। वे दिनों दिन गुणों की वृद्धि करने लगे। वे कुमार काल में ही दिगम्बर रूप में प्रव्रजित हुए। एक वर्ष तक उन्होंने तप किया। तप के फलस्वरूप् उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। उन्होंने समस्त आर्यक्षेत्रों में विहार कर धर्मवृष्टि की। वे बहत्तर हजार दिगम्बर मुनियों से सुशोभित थे। उन्होंने मन्दरगिरि शिखर से मुक्ति प्राप्त की। इनके तीर्थ में द्विपृष्ठ नारायण, अचल बलभद्र तथा तारक प्रतिनारायण हुआ।

त्रयोदशवें तीर्थंकर विमलनाथ

काम्पिल्य नगर में ऋषभदेव का वंशज कृतवर्मा राजा राज्य करता था। जयश्यामा उसकी पटरानी थी। उनके तीर्थंकर विमानाथ का जन्म हुआ। जन्माभिषेक के समय सब देवों ने उनका विमलवाहन नाम रखा। उनकी कान्ति सुवर्ण के समान थी और वे ऐसे सुशोभित होते थे, मानों समस्त पुण्य की राशि हांे। राज्यावस्था में बहुत समय व्यतीत करते हुए एक बार हेमंत ऋतु में उन्होंने बर्फ की शोभा को तत्क्षण विलीन होते देखा, जिससे उन्हें उसी समय संसार से वैराग्य हो गया। उसी समय उन्हें अपने पूर्व जन्म की सब बातें याद आ गयी। वे सोचने लगे कि चूॅंकि प्रत्याख्यानावरण कर्म का उदय है, अतः मेरे चारित्र ;महाव्रतद्ध का लेशमात्र भी नहीं है, प्रमाद का भी सद्भाव है। इस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने दिगम्बर दीक्षा ले ली। देवों ने दीक्षा कल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव किया। अड़सठ हजार दिगम्बर मुनि उनकी स्तुति करते थे। तीन वर्ष तप करने के बाद उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने धर्मक्षेत्रों में निरन्तर विहार किया। वे सम्मेद शिखर से मुक्त हुए। इन्हीं के तीर्थ में धर्म नामक बलभद्र, स्वयम्भू नामक नारायण और मधु नामक प्रतिनारायण हुआ।

चतुर्दशवें तीर्थंकर अनंतनाथ

अयोध्या ;साकेतद्ध नगर में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्री महाराज सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। उनके यहाॅं तीर्थंकर अनंतनाथ का जन्म हुआ। राज्य करते हुए एक दिन उल्कापात देख उन्हें वैराग्य हुआ। उन्होंने श्रामण्य अंगीकार कर लिया। तप करते हुए उनके दो वर्ष बीत गए तब चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन सायंकाल के समय रेवती नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान हुआ। उन्होंने अपने समवसरण में बारह सभाओं में विद्यमान भव्य जीवों को संबोधित किया। छयासठ हजार दिगम्बर मुनि उनकी पूजा करते थे। अंत में सम्मेद शिखर पर जाकर चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में परम पद प्राप्त किया। उसी समय देवों ने आकर उनका अंतिम संस्कार किया। इन्हीं के तीर्थ में सुप्रभबलभद्र, पुरूषोत्तम नारायण और मधुसूदन नामक प्रतिनारायण हुआ।

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