।। सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान - सम्यक्चारित्र ।।

सम्यग्दर्शन

'दौल' समझ सुन चेत सयानेकाल वृथा मत खोवै।
यह नरभौ फिर फमलन कफिन हैजो सम्यक् नफहिं होवै॥3/17॥

अर्थात् मोक्षरूपी महल में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम सोपान पवित्र सम्यग्दर्शन है, इसके बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक्पने को प्राप्त नहीं होते हैं। हे भव्य! प्रथम में प्रथम इस सम्यग्दर्शन को धारण करो। कविवर दौलतराम जी कहते हैं कि हे चतुर! सुनो, समझो, चेत जाओ। व्यर्थ काल बर्बाद मत करो। क्योंकि यदि यह सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं हुआ तो पुनः मनुष्य भव का मिलना दुर्लभ हो जाएगा।

सम्यग्दर्शन धर्म का मूल स्तम्भ है। सम्यग्दर्शन के अभाव में न तो ज्ञान सम्यक् होता है और न चारित्र ही। इसीलिए सम्यग्दर्शन को मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र में अंक और शून्य का सम्बन्ध है। चाहे जितने भी शून्य हों, अंक के अभाव में उनका कोई महत्त्व नहीं होता। यदि शून्य के पूर्व एक ही अंक हो तो कीमत होती है। अंक उपरान्त शून्य से तो दशगुनी कीमत होती जाती है अर्थात् अंक के साथ शून्य होने पर अंक और शून्य दोनों ही का महत्त्व बढ़ जाता है। सम्यग्दर्शन अंक है और सम्यक् चारित्र शून्य। सम्यग्दर्शन से ही सम्यक् चारित्र का तेज प्रकट होता है। सम्यग्दर्शन रहित चारित्र तो उस अन्ध व्यक्ति की तरह है जो निरन्तर चलना तो जानता है पर लक्ष्य का पता नहीं है। लक्ष्यविहीन यात्रा, यात्रा नहीं, भटकन है। इसीलिए सूत्रकार आचार्य परम्परा ने सम्यग्दर्शन से ही मार्ग का प्रारम्भ कहा है।

विभिन्न दृष्टियों से सम्यग्दर्शन के अनेक लक्षण जिनागम में बताए गये हैं। यथा

1. परमार्थभूत देव-शास्त्र-गुरु पर तीन मूढ़ता, आठ मदों से रहित एवं आठ अंगों युक्त श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है।

श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥4॥

आचार्य समन्तभद्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार

2. तत्त्वार्थ की यथार्थ श्रद्धा ही सम्यक् दर्शन है।

त्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ 1/2 ||

आ. उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र

3. स्व-पर का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।

स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति || 314,315

आ. अमृतचन्द्र, समयसार आत्मख्याति टीका

4. आत्मा का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।

विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावे निज परमात्मनि यत् रुचिरूपं सम्यग्दर्शनम्।। 38 ।।

आचार्य जयसेन, समयसार तात्पर्यवृत्ति टीका

सम्यग्दर्शन के उक्त चारों मुख्य लक्षणों में सर्वांगीण स्वरूप विवेचन तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन में समाहित है।

सर्वज्ञता, वीतरागता एवं हितोपदेशिता लक्षण सच्चे देव, पूर्वापर विरोध रहित, आत्महितकारी जिनोपदिष्ट, वीतरागता पोषक सच्चे शास्त्र तथा विषय-कषाय और आरम्भ-परिग्रह रहित, ज्ञान-ध्यान और तप में लीन, नग्न दिगम्बर मुनिराज-सच्चे गुरु का श्रद्धान भी उनके द्वारा गृहीत, उपदिष्ट तत्त्वार्थश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन को प्रसिद्ध करता है।

जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्वों में से सारभूत सर्वप्रथम जीवत्व ही प्रयोजनभूत है, आश्रय योग्य आराध्य तत्त्व है, अन्य सभी तत्त्व ज्ञेय-हेय एवं प्रगट करने योग्य तत्त्व हैं। सभी तत्त्वों का जानने वाला भी जीव ही है। इसलिए आश्रय योग्य स्व-स्थायी तत्त्व परम उपादेय है। अजीव-कि जिनमें मेरा ज्ञान-दर्शन आदि चैतन्य निजत्व न पाया जाए वे मात्र ज्ञेय हैं। (मात्र ज्ञान से जानने में आने वाले ज्ञेय हैं।) राग-द्वेष-मोहादि रूप आस्रव तथा तदनुसारी कर्मबन्ध, उदयादि रूप बन्ध ये तत्त्वद्वय हेय हैं (छोड़ने योग्य हैं)। आस्रव से रहित निजाश्रित संवर-निर्जरा रूप परिणाम प्रकट करने योग्य उपादेय तथा कर्म से असम्बद्ध, स्वाधीन, स्थायी सुखरूप परिणाम मोक्ष, प्रकट करने योग्य परम उपादेय तत्त्व है।

तत्त्व व्यवस्था में आश्रय योग्य निजतत्त्व और बाकी सभी को परतत्त्व रूप जानकर स्व-पर भेदज्ञान रूप सम्यक्त्व लक्षण भी क्रमिक विकास रूप है।

स्व-पर भेदभाव पूर्वक मात्र निजाश्रित परिणति, स्वभाव आश्रित परिणाम, स्वाधीन परिणाम स्वरूप आत्मा का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है।

मोक्षार्थी जीव का क्रमिक प्रवर्तन सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की शरण में आकर, तत्त्व व्यवस्था से परिचित होकर, स्व को आश्रय योग्य और अन्य सभी को उदासीन होने योग्य जानकर मात्र ज्ञान स्वभावी स्वतत्त्व में सन्तुष्टि रूप होता है, तब यह जीव सम्यक्त्व रूप सुख को पाता है।

विरले ही जीव इस सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से अलंकृत हो पाते हैं। जिसकी सामर्थ्य तो जीव मात्र में है, किन्तु कुछ तात्कालिक योग्यताएँ आवश्यक हैं जिनमें भव्य, संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक, विशुद्धतर लेश्या वाला, अन्याय-अनीति-अभक्ष्य सेवन से विरहित जागृत जीव ही सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का अधिकारी है।

जिन लब्धियों पूर्वक यह सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, वे पाँच हैं

  1. क्षयोपशम-कर्मों के क्षयोपशम से तत्त्व विचार की शक्ति की उपलब्धता।
  2. विशुद्धि-कषायों की मन्दता जन्य स्वपुरुषार्थ के लिए परिणामों की विशुद्धता।
  3. देशना–सच्चे-देव-शास्त्र गुरु के समागम से सम्यक् तत्त्व श्रवण- मनन चिन्तन द्वारा आत्मजागृति के लिए तैयार होना।
  4. प्रायोग्य-परिणामों की विशुद्धतावश सत्ता में रहे हुए कर्मों की स्थिति घटकर अन्त:कोड़ा-कोड़ी सागर मात्र रह जाने रूप तथा प्रतिसमय बँधने वाली कर्म प्रकृत्तियों का क्षीण हो जाना।
  5. करण–परिणामों की उत्तरोत्तर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि, जिसमें अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप आत्मलक्षी परिणाम कि जिसके फल में स्व संवेदन रूप सम्यग्दर्शन प्रकट हो जाता है।

यह सम्यग्दर्शन 'तनिसर्गादधिगमाद्वा' अर्थात् निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का होता है।

  1. जब जीव बिना किसी प्रत्यक्ष निमित्त के स्वावलम्बी होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन कहलाता है।
  2. परोपदेश पूर्वक प्रकट होने वाला आत्मलक्ष्मी परिणाम अधिगमज सम्यग्दर्शन कहलाता है।

इनमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनबिम्ब दर्शन, वेदनानुभव, देव ऋद्धि दर्शन, जिन महिमा दर्शन आदि सहयोगी होते हैं।

सराग-वीतराग के भेद से भी सम्यग्दर्शन द्विविध रूप से आगम में वर्णित है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों से अभिव्यक्त राग अवस्था में होने वाला आत्म-श्रद्धान जिसमें अभी राग-द्वेष रूप चारित्रमोह का मन्द उदय निमित्त होने पर भी दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम रूप अविरति या देशविरति रूप मोक्षमार्ग प्रकट होता है, वह सराग सम्यग्दर्शन है।

जहाँ रागादि विकृत परिणामों से रहित मात्र शुद्धोपयोग रूप परिणति ही होती है कि जिसमें श्रेणी आरोहणपूर्वक केवलज्ञान तक का उद्भव हो जाता है वह वीतराग सम्यग्दर्शन है। यह वीतराग चारित्र का अविनाभावी होता है।

निश्चय-व्यवहार सम्यग्दर्शन के रूप में भी सम्यग्दर्शन दो भेद वाला कथित है शुद्ध आत्म तत्त्व की यथार्थ प्रतीति रूप श्रद्धानभाव निश्चय सम्यग्दर्शन है और इसके सहयोगी स्व-पर भेदविज्ञान, तत्त्व श्रद्धान एवं आप्त-आगम-तपोभृत (देवशास्त्र-गुरु) की यथार्थ श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन है।

सम्यक्त्व विरोधी कर्मों के उपशम, क्षयोपशम, क्षय की अपेक्षा सम्यग्दर्शन त्रिविध कहा गया है

अष्ट कर्म रचित जंजाल में दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति रूप तीन तथा चारित्र मोहनीय जन्य अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय चतुष्क के उपशमन पूर्वक उत्पन्न होने वाला निजानन्दी स्वलक्ष्य ही उपशम सम्यक्त्व कहलाता है। इस सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र है।

उक्त दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियाँ तथा चारित्र मोहनीय की अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क के सर्वथा क्षय से उत्पन्न मेरुवत् निष्कम्प, स्वसन्तुष्ट, आत्मावलोकन ही क्षायिक सम्यग्दर्शन कहलाता है। यह सम्यक्त्व प्राप्ति उपरान्त चिरस्थायी होता है। इसकी उपलब्धि केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में ही सम्भवित होती है।

इस मोहनीय कर्म की दर्शनमोह सम्बन्धी मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व तथा चारित्रमोह सम्बन्धी अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क रूप छह सर्वघाती प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय, इन्हीं प्रकृतियों का सवस्था में उपशम रूप अवस्था तथा देशघाती वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है वह क्षयोपशम सम्यग्दर्शन होता है।

आज्ञा, मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़, परमाव- गाढ़ रुचि के भेद से भी सम्यग्दर्शन के दश प्रकार विभक्त किए गये हैं

  1. आज्ञा सम्यक्त्व-वीतराग जिनेन्द्र की आज्ञा मात्र के श्रद्धान से उद्भूत सम्यग्दर्शन।
  2. मार्ग सम्यक्त्व-मोक्षमार्ग को कल्याणकारी समझकर उसपर अचल श्रद्धान।
  3. उपदेश सम्यक्त्व-तिरेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
  4. सूत्र सम्यक्त्व-मुनिराजों के चरित्र निरूपक शास्त्रों के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
  5. बीज सम्यक्त्व-बीज पदों के ज्ञान पूर्वक होने वाला असाधारण उपशमवश श्रद्धान।
  6. संक्षेप सम्यक्त्व-संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन के श्रवण से उत्पन्न तत्त्वश्रद्धान।
  7. विस्तार सम्यक्त्व-अंग-पूर्व के विषय, प्रमाण, नयादि के विस्तृत तत्त्वविवेचनोत्पन्न सम्यक्श्रद्धान।
  8. अर्थ सम्यक्त्व-वचन विस्तार बिना केवल अर्थ ग्रहण से उत्पन्न तत्त्व श्रद्धान।
  9. अवगाढ़ सम्यक्त्व-आचारांगादि द्वादशांग के साथ अंगबाह्य श्रुत अवगाहन से उत्पन्न दृढ़ श्रद्धान।
  10. परमावगाढ़ सम्यक्त्व-परमावधि या केवलज्ञान-दर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थ विषयक प्रकाश में जिनकी आत्मा विशुद्ध है, वे परमाव-गाढ़ रुचि सम्यक्त्व युक्त हैं।

नास्ति रूप में कर्मों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदिरूप अनेक तरह से वर्णन किया ही गया है। यह सम्यग्दर्शन इन अष्ट अंगों से सुशोभित होता है

(1) निःशंकित-जिनेन्द्र कथित व्यवस्थित विश्व व्यवस्था को स्वभाव से नियत, स्थायी तथा अवस्था से क्षणिक जान कर और उसमें अपने को अनादि-निधन, ज्ञातादृष्टा रूप मानने में नि:शंकता पूर्वक इहलोक, परलोक, अरक्षा, अगुप्ति, मरण, वेदना और अकस्मात् रूप सातों भयों से रहित अविचल आस्था रखना।

(2) नि:कांक्षित-शुभ रूप इहलोक तथा परलोक सम्बन्धी कर्मफलों तथा कुधर्मों की अभिलाषा रहित निज आत्मोत्थ सुखरूपी अमृत रस में सन्तुष्टि ही नि:कांक्षितता

(3) निर्विचिकित्सा-समस्त राग-द्वेष आदि रूप मलिन विकल्प तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज शुद्धात्मा में स्थिति के बल से सभी वस्तु धर्मों या स्वभावों में अथवा दुर्गन्धादि विषयों में ग्लानि या जुगुप्सा नहीं करना, निन्दा नहीं करना, द्वेष नहीं करना ही निर्विचिकित्सा अंग है।

(4) अमूढदृष्टि-अन्तरंग और बहिरंग तत्त्व निर्णय के बल से मिथ्यात्व रागादि शुभ-अशुभ संकल्प विकल्पों में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से रहित, विशुद्ध दर्शन- ज्ञान स्वभावी निजात्मा में निश्चल स्थिति होने से कुदेव में देवबुद्धि, कुधर्म-अधर्म में धर्मबुद्धि तथा कुगुरु में गुरुबुद्धि नहीं होना ही अमूढदृष्टि हैं।

(5) उपगूहन-जो चेतयिता सिद्धों की, शुद्धात्मा की भक्ति से युक्त है और पर वस्तुओं के सर्वधर्मों कोगोपन करने वाला है अर्थात् रागादि भावों से युक्त नहीं होता है। पवित्र जिनधर्म की अज्ञानी असमर्थ जनों के आश्रय से उत्पन्न हुई निन्दा को दूर करता है वह उपगूहन गुणधारी है।

(6) स्थितिकरण-कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्ट होने के कारण मिलने पर भी अपने धर्म से च्युत नहीं होना, निरन्तर मार्ग में स्थापित रहना तथा अन्य को भी पतनोन्मुख देखकर धर्मबुद्धि रखते हुए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र में दृढ़ करना स्थितिकरण अंग है।

(7) वात्सल्य-जिनधर्म और जिनधर्म धारक धर्मात्मा जनों में अन्तरंग प्रीति रखना। जैसे कि गाय के हृदय में तत्काल जन्मे बछड़े के प्रति अकारण अगाध प्रीति होती है, वात्सल्य अंग है।

(8) प्रभावना-विद्या रूपी रथ पर आरूढ़ हुआ, ज्ञान रूपी रथ के चलने के मार्ग में स्वयं भ्रमण करता है, वह जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करने वाला सम्यग्दृष्टि है तथा जिन प्रवचन की कीर्ति, विस्तार या वृद्धि करना जिसका जीवन है वह जिनधर्म प्रभावक जानना चाहिए।

जिनागम में विस्तार से इन अंगों में प्रसिद्ध महापुरुषों का उल्लेख भी पाया जाता है। उनके नाम क्रमशः निम्न हैं, जिनकी कथाओं को 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से विस्तृत जानना चाहिए (1) अंजन चोर (2) अनन्तमती (3) उद्दायन राजा (4) रानी रेवती (5) जिनभक्त सेठ (6) वारिषेण मुनिराज (7) मुनिराज विष्णुकुमार (8) मुनिराज वज्रकुमार।

पवित्र सम्यग्दर्शन में सम्भवित दोष पच्चीस होते हैं। जिनके होने, पर सम्यग्दर्शन कलंकित होता है अथवा सम्यग्दर्शन हो ही नहीं पाता है-

आठ दोष

1. शंका-वीतराग जिनोपदिष्ट तत्त्वों में विश्वास न कर उनके प्रति सशंकित रहना।

2. कांक्षा-भौतिक भोगोपभोग एवं ऐहिक सुखों की अपेक्षा रखना।

3. विचिकित्सा-रत्नत्रय के प्रति अनादर रखते हुए धर्मात्मा जनों के उपेक्षित मलिन शरीर को देखकर उनसे ग्लानि, घृणा करना।

4. मूढदृष्टि-सत्य-असत्य का विचार-विवेक किये बिना उन्मार्ग और उन्मार्गियों के प्रति झुकाव होना।

5. अनुपगृहन-आत्म प्रशंसा और पर निन्दा का भाव रखते हुए धर्मात्माजनों के कादाचित्क दोषों को उजागर कर धर्ममार्ग की निन्दा करना।

6. अस्थितिकरण-कषाय व प्रमाद आदि कारणों से धर्म से स्खलित होते हुए स्वयं या अन्य धर्मात्माजनों को धर्म मार्ग में स्थिर करने का प्रयास न करना।

7. अवात्सल्य-साधर्मी जनों से प्रेम नहीं करना, उनसे मात्सर्य और विद्वेष रखना।

8. अप्रभावना-अपने खोटे श्रद्धान व आचरण प्रवृत्तियों से धर्म मार्ग को कलंकित करना व धर्म मार्ग के प्रचार-प्रसार में सहभागी न बनना।

आठ मद

क्षणिक संयोगों/भौतिक उपलब्धियों में मदहोश होकर घमण्ड में चूर रहना मद कहलाता है। निमित्तों की अपेक्षा से मद आठ प्रकार के हैं

  1. ज्ञानमद-थोड़ा ज्ञान पाकर अपने आपको बड़ा ज्ञानी समझना और यह मानना कि मुझसे बड़ा ज्ञानी कोई और नहीं है, ज्ञानमद है। यह अज्ञानियों को ही होता है।
  2. पूजामद-अपनी पूजा, प्रतिष्ठा या लौकिक सम्मान के गर्व में चूर रहना पूजा मद है।
  3. कुलमद-अपने पितृपक्ष की उच्चता का गर्व करना कुलमद है।
  4. जातिमद-अपने मातृपक्ष की उच्चतावश अभिमानी रहना जातिमद है।
  5. बलमद-शारीरिक बल के कारण अपने को बलवान समझते हुए अन्य सभी को निर्बल समझना, तज्जन्य मद को बलमद कहते हैं।
  6. ऋद्धि/ऐश्वर्यमद-धन, वैभव, ऐश्वर्य पाकर या तपोजनित ऋद्धि के बल पर अभिमानी बने रहना ऋद्धि मद है।
  7. तपमद-स्वयं को सबसे बड़ा तपस्वी समझते हुए अन्य साधकों को तुच्छ समझना तपमद है।
  8. रूपमद-दैहिक सुन्दरता के बल पर अपने को रूपवान मानकर सुन्दरता के घमण्ड में रहना रूपमद है।

तीन मूढ़ता

मूढ़ता का अर्थ है धार्मिक अन्ध विश्वास। आत्महित का विचार किए बिना ही अन्ध श्रद्धालु बनकर अज्ञानपूर्ण प्रवृत्ति करना मूढ़ता है। मूढ़ता तीन प्रकार की है।

  1. देवमूढ़ता-लौकिक फल या वरदान की अभिलाषा से राग-द्वेषादि से मलिन देवी-देवताओं में श्रद्धा, आदर, पूज्य भाव रखना।
  2. लोकमूढ़ता-ऐहिक फल की आकांक्षा एवं धर्मबुद्धि से नदी, सागर आदि में स्नान करना, पर्वत से कूदना, अग्नि में प्रवेश करना, पत्थरों का ढेर लगा कर पूजना इत्यादि का पूज्यभाव।।
  3. गुरु मूढ़ता-आरम्भ, परिग्रह, हिंसा से युक्त और संसार में डुबोने वाले कार्यों में लीन रागी-द्वेषी साधुओं, गुरुओं की श्रद्धा करना, सत्कार करना।

छह अनायतन

आयतन अर्थात् घर, आवास या आश्रय है। सम्यग्दर्शन के प्रकरण में धर्म के आयतन का अर्थ धर्म का घर, स्थान, आवास, आश्रय है। इसके विपरीत अधर्म, मिथ्यात्व के घर आवास को अनायतन कहते हैं।

अनायतन छह हैं (1) कुगुरु (2) कुदेव (3) कुधर्म (4) कुगुरु सेवक (5) कुदेव सेवक (6) कुधर्म सेवक या आराधक।

ये छहों मिथ्यात्व के पोषक होने से हमारे चित्त की मलिनता और संसार के अभिवर्धक हैं। भय, आशा, स्नेह और लोभ के वशीभूत होकर इनकी पूजा आराधना करना और भक्ति प्रशंसा करना सम्यग्दर्शन के छह अनायतन रूप दोष हैं।

सम्यग्दर्शन की महिमा अद्भुत है कि जिसमें जीव स्वतन्त्र, निश्चिन्त, निर्भय और निराकुल हो जाता है। सम्यग्दर्शन का माहात्म्य गाने के लिए समस्त जिनागम परम्परा ने अपनी संस्तुति एवं अभिव्यक्ति दी है। कतिपय उद्धरण दृष्टव्य हैं-

आचार्य शिवकोटि मुनिराज ने 'भगवती आराधना' में

णगरस्स जह दुवारं मुहस्स चक्खू तरुस्स जह मूलं।
तह जाण सुसम्मत्तं णाण चरण वीरिय तवाणं || 735॥
दंसणभट्टो भट्टो दंसणभट्टस्स णत्यि णिव्वाणं।
सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति | 737 ॥

अर्थात् नगर में जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है उसी प्रकार ज्ञान, चरित्र, वीर्य और तप आराधनाओं में एक सम्यक्त्व ही प्रधान है।

दर्शन भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है। क्योंकि दर्शन भ्रष्ट को कभी निर्वाण नहीं होता। चरित्र भ्रष्ट को तो निर्वाण हो सकता है किन्तु दर्शनभ्रष्ट को कभी नहीं।

आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी 'मोक्षपाहुड़' में लिखते हैं

दसण सुद्धो सुद्धो दंसण सुद्धो लहेइ णिव्वाणं।
दसण विहीण पुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं।। 39 ।।

सम्यग्दर्शन से शुद्ध ही वास्तव में शुद्ध है; क्योंकि दर्शन शुद्ध ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। दर्शन विहीन पुरुष इष्टलाभ अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त नहीं करते।

जह णवि लहदि हु लक्खं रहियो कंडस्स वेज्झय विहीणो।
तह णवि लक्खदि लक्खं अण्णाणी मोक्ख मग्गस्स || बोध पाहुड 21 ||

जैसे बाण रहित बेधक धनुष के अभ्यास से रहित होता हुआ निशाने को प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्व को प्राप्त नहीं करता है।

जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं।
अहियो तह सम्मतो रिसि सावय दुविह धम्माणं ।। भाव पाहुड 144 ।।

जैसे ताराओं में चन्द्र और समस्त मृगकुलों (पशुओं) में मृगराज सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि और श्रावक दोनों धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है।

आचार्य शुभचन्द्र विरचित 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ में-

चरण ज्ञानयो: जं यमप्रशम जीवितम् ।
तपः श्रुताद्यधिष्ठानं सद्भिः सद्दर्शनं मतः ।। 54।।

सत्पुरुषों ने सम्यग्दर्शन को चारित्र व ज्ञान का बीज, यम व प्रशम का जीवन, तथा तप व स्वाध्याय का आश्रय माना है।

आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में-

विद्या वृत्तस्य संभूति स्थिति वृद्धि फलोदयाः।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ 32 ||

जैसे बीज के अभाव में वृक्ष नहीं होता वैसे ही सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की उत्पत्ति नहीं होती। इसी से सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र से उत्कृष्ट है।

न सम्यक्त्व समं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम् ।। 34॥

तीनों कालों और तीनों लोकों में प्राणियों को सम्यग्दर्शन के समान कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्व के समान कोई अकल्याणकारी नहीं है।

दर्शनं ज्ञान चारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते ।
दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥31॥

ज्ञान और चारित्र से सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ है; क्योंकि वह मोक्षमार्ग में कर्णधार कहा जाता है।

वैदिक वाङ्मय के 'मनुःस्मृति' ग्रन्थ में भी सम्यक्त्व की महिमा इस प्रकार गाई गयी है।

सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबध्यते ।
दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते || 6/74||

अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्पन्न जीव कर्मों से नहीं बँधता है और दर्शन से विहीन ही संसार कहा जाता है।

इस सम्यग्दर्शन के माहात्म्य मात्र के बारे में पूर्वाचार्यों ने जो लेखनी चलाई है। वह इतनी है कि यदि उस माहात्म्य सम्बन्धी विवेचना को उद्धृत मात्र ही किया जाए तो एक स्वतन्त्र विस्तृत ग्रन्थ का ही निर्माण हो जाए। अलंविस्तरेण। निर्णय स्वरूप में यही जानने योग्य है कि सम्यक्त्व के साथ ही ज्ञान व चारित्र की सार्थकता है। सम्यग्दर्शन से रहित ज्ञान, चारित्र व तप सब निरर्थक हैं। अतः रत्नत्रय में सबसे प्रथम सम्यग्दर्शन को ही अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। उसके बिना अनन्त संसार शान्त नहीं हो सकता। जबकि मात्र एक बार अन्तर्मुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन होने से अनन्त संसार शान्त हो जाता है।

सम्यक् ज्ञान

आचार्य समन्तभद्र विरचित 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' ग्रन्थ में सम्यक् ज्ञान को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-

अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं बिना च विपरीतात्।
निःसन्देहं वेद यदाहु स्तज्ज्ञानमागमिनः ।। 42 ।।

जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित, अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसको आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं।

'द्रव्य संग्रह' ग्रन्थ में सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी भी लिखते हैं-

संसय विमोह विब्भम विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स।
गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु।। 42 ।।

आत्मस्वरूप और अन्य पदार्थ के स्वरूप को जो संशय, विमोह और विभ्रम (विपर्यय) रूप कुज्ञान से रहित जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है।

जानने वाला ज्ञान जिसका है उसे जाने, वही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है, यही सम्यग्ज्ञान की वास्तविकता है। निरूपण (कथन) अपेक्षा से जिनमें ज्ञान नहीं पाया जाता ऐसे अजीव और जिनमें ज्ञान पाया जाता है ऐसे अन्य जीवों से जो अपने को भिन्न जानता है वही हितकारी सम्यग्ज्ञान है।

सम्पूर्ण विश्व दो प्रकार के पदार्थों में विभक्त करने योग्य है। एक ज्ञाता, दूसरा ज्ञेय। ज्ञाता वह है जो जानता है ज्ञाता को और ज्ञेयों को भी। परन्तु ज्ञेय वे हैं जो जानने वाले की ज्ञान स्वच्छता में जनाते हैं। ज्ञेयों को भी दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है।

(1) स्वज्ञेय (2) परज्ञेय। जो स्वयं जानता है और स्वयं अपने को जनाता है वह स्वज्ञेय। और जो मात्र ज्ञान की स्वच्छता में जानने में आते हैं परन्तु जिनमें मेरा ज्ञान पाया नहीं जाता है वे परज्ञेय हैं। जिस ज्ञान में स्वज्ञेय ही प्रमुख रहा वह सम्यग्ज्ञान है। इसी सम्यग्ज्ञान को नास्ति से कहें तो जो ज्ञान परज्ञेयों से विमुख रहा वह सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। जो ज्ञान परज्ञेयों के प्रति उन्मुख हुआ वह विकल्प जाल में उलझा हुआ मिथ्याज्ञान रूप रहता है।

पं. दौलतराम जी ने 'छहढाला' में कहा है-

आप रूप को जानपनो सो सम्यग्ज्ञान कला है।। 3/2

अर्थात् अपने को आप रूप जानने वाली अद्भुत कला का नाम ही सम्यग्ज्ञान है। यह सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होता है।

सम्यग्दर्शन वस्तुतत्त्व के भेदविज्ञानपूर्वक होता है। ज्ञान का उपयोग सम्यग्दर्शन के लिए भी चाहिए और सम्यग्दर्शन उपरान्त आत्म स्थिरता रूप सम्यक् चारित्र के लिए भी।

सम्यग्दर्शन से पूर्व जो ज्ञान का उपयोग होता है वह भेदज्ञान नाम पाता है और सम्यक् चारित्र के लिए जो आवश्यक है वह सम्यग्ज्ञान है। इसीलिए सूत्र में सम्यग्ज्ञान को मोक्षमार्ग निरूपण में मध्य स्थान प्राप्त है। "सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः।"

आत्मा के अनन्त गुणों में ज्ञान का नाम सर्वप्रथम प्रमुख रूप से आता है। यही वह विशेषता है कि जिससे यह आत्मा अपने लक्षणों रूप प्रसिद्ध होता है और पर से भिन्न रूप में भी प्रसिद्ध होता है। और पर की प्रसिद्धि रूप पर-प्रकाशकपने भी प्रसिद्ध होता है।

'बृहन्नयचक्र' में आचार्य देवसेन स्वामी ने उद्धृत किया है-

णियदव्वजाणणठे इयरं कहियं जिणेहिं छद्दव्वं ।
तम्हा पर छपव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं ।। 284 ।।

जिनेन्द्र भगवान ने निजद्रव्य को जानने के लिए ही अन्य छह द्रव्यों का कथन किया है, अत: मात्र उन पररूप छह द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है।

स्व-पर का भेद कराने वाले विकल्परूप व्यवहार ज्ञान के द्वारा साध्य निश्चय ज्ञान का कथन करते हैं। जिनागमोपदेश श्रवण-पठन-चिन्तन रूप व्यवहार ज्ञान से षद्रव्य आदि का परिज्ञान है और निश्चय से निजनिरंजन शुद्धात्म संवित्ति से उत्पन्न परमानन्द रूप एक लक्षण वाले सुखामृत के रसास्वाद रूप स्व संवेदन ज्ञान है।

ज्ञान की आराधना को प्रेरित करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में कहा है-

दुरिततिमिरहंसं मोक्षलक्ष्मी सरोजं मदन भुजगमन्तं चित्तमातङ्ग सिंह।
व्यसनघनसमीरं विश्वतत्त्वैकदीपं, विषयशफरजालं ज्ञानमाराधयत्वम् || 7/22

हे भव्य! तू ज्ञान का आराधन कर; क्योंकि ज्ञान पापरूपी तिमिर नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है, मोक्षरूपी लक्ष्मी के निवास करने के लिए कमल के समान है। कामरूपी सर्प के कीलने को मन्त्र के समान है, मनरूपी हस्ती को सिंह के समान है, आपदारूपी मेघों को उड़ाने के लिए पवन के समान है, समस्त तत्त्वों के प्रकाश के लिए दीपक के समान है तथा विषयरूपी मत्स्यों को पकड़ने के लिए जाल के समान है। ऐसे निज ज्ञान स्वभाव की महिमा से आनन्दित रहते हुए ज्ञानरत रहना ही सम्यग्ज्ञान है।

सम्यग्ज्ञान के अंग

सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग निरूपित किए गये हैं-

1. शब्दाचार-मूल ग्रन्थ के वर्ण, पद, वाक्य को शुद्ध पढ़ना।

2. अर्थाचार-अनेकान्त स्वरूप अर्थ को ठीक-ठीक समझना।

3. उभयाचार-अर्थ को ठीक-ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढ़ना।

4. कालाचार-सामायिक के काल में न पढ़कर स्वाध्याय योग्य काल में ही शास्त्र पढ़ना। दिग्दाह, उल्कापात, चन्द्र-सूर्यग्रहण, संध्याकाल आदि में मूल शास्त्र नहीं पढ़ना चाहिए। सामायिक उत्कृष्ट कार्य है। सामायिक को छोड़कर स्वाध्याय नहीं होना चाहिए।

5. विनयाचार-द्रव्य, क्षेत्र आदि की शुद्धि के साथ मन-वचन-काय से शास्त्र का विनय करना।

6. उपधानाचार-शास्त्र के मूल एवं अर्थ का बार-बार स्मरण करना उसे विस्मृत नहीं होने देना। अथवा नियम विशेष पूर्वक पठन-पाठन करना उपधानाचार है।

7. बहुमानाचार-ज्ञान के उपकरण एवं गुरुजनों की विनय करना।

8. अनिह्नवाचार-जिस शास्त्र या गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है, उनका नाम न छिपाना।

उक्त आठ अंगों के पालन से सम्यग्ज्ञान पुष्ट एवं परिष्कृत होता है। 'महापुराण' ग्रन्थ में आचार्य जिनसेन एवं आचार्य गुणभद्रस्वामी ने इस सम्यग्ज्ञान की पाँच भावनाएँ भी व्यक्त की हैं-

वाचना पृच्छ ने सानुप्रेक्षणं परिवर्तनम्।
सद्धर्मदेशनं चेति ज्ञातव्याः ज्ञानभावना।।

21 सर्ग/96 श्लोक

शास्त्रों का स्वयं पढ़ना, दूसरों से पूछना, पदार्थ स्वरूप का पुनः पुनः चिन्तवन करना, श्लोक आदि कण्ठस्थ करना तथा समीचीन धर्म का उपदेश देना ये पाँच ज्ञान की भावनाएँ जाननी चाहिए।

सम्यक चारित्र

आचार्यवर कुन्दकुन्दस्वामी ने प्रमाण वाक्य रूप में प्रवचनसार' ग्रन्थ के आरम्भ में धर्म को चारित्र स्वरूप कहा है।

चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो।
मोह क्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥7॥

अर्थात् चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा कहा है। और साम्य मोह-क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है।

'दर्शन पाहुड़' में उपदिष्ट 'धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है' (दंसण मूलो धम्मो) इस लक्षण को पढ़कर जागरुकता के अभाव में अज्ञानता वश भ्रम पैदा होता है कि धर्म सम्यग्दर्शन रूप है या सम्यक्चारित्र रूप है? किन्तु यदि शब्द प्रयोग को जागरुकता पूर्वक देखा जाए तो भ्रम स्वयमेव नष्ट हो जाता है।

दर्शन के साथ प्रयुक्त 'मूल' शब्द नींव रूप धर्म का उद्घोषक है और चारित्र के साथ 'खलु' शब्द 'वास्तव में धर्म है' कह कर निर्देश किया है कि सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाला चारित्र ही सम्यक्चारित्र रूप होता है। सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, फलागम में से कुछ भी सम्भव नहीं है। आचार्य उमास्वामी महाराज ने भी 'तत्त्वार्थ सूत्र' में 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः 'में सम्यग्दर्शन को प्रथम कारण रूप ही प्रस्तुत किया है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं। और सम्यक्चारित्र को अन्त में रखने का कारण यह है कि वह सम्यक्चारित्र मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात कारण है। अर्थात् जैसे सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्चारित्र के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।

इस प्रकार सम्यक्चारित्र ही यथार्थ में धर्म है। उसकी आराधना में सब आराधनाएँ समाविष्ट हैं। किन्तु जगत् दृष्टि का चारित्र धारण कर लेने से ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो जाती। जैसे यदि किसी ने मुनिदीक्षा ले ली। वह मुनिदीक्षा ले लेने मात्र से अपने आपको सम्यग्दर्शन की भी प्राप्ति हुई मान ले तो यह अज्ञान ही है। इसी से समस्त जिनागम में सम्यक्चारित्र धारण करने से पहले सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना आवश्यक बतलाया है। सम्यग्दर्शन के बिना धारण किया गया जैनाचार भी सम्यकचारित्र नहीं कहलाता।

चारित्र धारण से पूर्व यह निश्चय कर लेना चाहिए कि हम इस चारित्र को क्यों धारण कर रहे हैं। उसका लक्ष्य या उद्देश्य क्या है? धर्म का लक्ष्य तो पंचपरावर्तन रूप दुःखमयी संसार से छुड़ाकर उत्तम, अविनाशी, स्वाधीन सुख अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति है। और वह संसार के दुःखों के मूलकारण कर्मबन्धन रूप मोह-अज्ञान भाव को नष्ट किये बिना सम्भव नहीं है। अतः सच्चा, यथार्थ धर्म वही है जिससे कर्मबन्धन कटते हैं। ऐसी दृष्टि से जो धर्माचरण करता है, वही यथार्थ में धर्मात्मा होता है। ऐसी दृष्टि के लिए मोक्ष का श्रद्धान होना आवश्यक है। यदि मोक्ष का ही श्रद्धान न हो तो मोक्ष के उद्देश्य से धर्माचरण की भावना कैसे हो सकती है? मोक्ष के श्रद्धान के लिए आत्मा के शुद्ध स्वरूप का श्रद्धान होना आवश्यक है।

जो आत्मा के इस शुद्ध स्वरूप की श्रद्धा करके उसकी प्राप्ति की भावना से धर्माचरण करता है, वह संसार के विषय जन्य सुख में उपादेय बुद्धि नहीं रखता है।

स्व-पर पदार्थों के भेद विज्ञान पूर्वक जैसे-जैसे उत्तम तत्त्व अर्थात् शुद्ध आत्मा का स्वरूप जानने, अनुभव में आने लगता है, वैसे-वैसे ही सहज उपलब्ध रमणीय पंचेन्द्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होने लगते हैं। यदि जीव की विषय-भोगजन्य सुख में उपादेय बुद्धि है अर्थात् वे अच्छे लगते हैं तो यह जीव तो आस्रवबन्ध को अच्छा समझता है, संसार रुचि वाला है, वह मोक्षसुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न ही नहीं कर रहा है। और ऐसी स्थिति में समस्त धर्माचरण संसार की प्राप्ति, वृद्धि एवं दुःखरूप फल का ही कारण है।

आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने 'समयसार' में कहा है।-

सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि।
धम्म भोग णिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। 275॥

अर्थात् वह (अभव्यजीव) भोग के निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसी की प्रतीति करता है। उसी की रुचि करता है और उसी का स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षय में निमित्त रूप धर्म की नहीं (अर्थात् कर्मक्षय के निमित्त रूप धर्म की न तो श्रद्धा करता है, न उसकी प्रतीति करता है, न रुचि करता है, और न ही उसका स्पर्श करता है।)

किन्तु इसका मतलब यह भी नहीं है कि धर्म करने से सांसारिक सुख प्राप्त नहीं होता। अरे! जिस धर्म की आराधना से पारमार्थिक मोक्ष सुख प्राप्त होता है उससे क्या सांसारिक सुख प्राप्त नहीं हो सकता? जिस खेती के करने से अन्न प्राप्त होता है उससे क्या भूसा भी प्राप्त नहीं होगा? प्राप्त तो होगा, किन्तु कोई किसान भूसे की इच्छा से खेती नहीं करता। भूसे की इच्छा किसान को नहीं अपितु पशुओं को ही होती है। क्योंकि किसान तो यह जानता है कि अन्न की उपज पर भूसा तो स्वयमेव/अनायास ही मिल जाता है। खेती का मुख्य फल अन्न है, भूसा नहीं। उसी प्रकार धर्म पुरुषार्थ का भी मुख्य फल मोक्ष है। इस मोक्ष पुरुषार्थरत जीव के अबुद्धिपूर्वक हिंसादि पापों के तथा क्रोधादि कषायों के अभाव होने की दशा में बिना प्रयास-पुरुषार्थ के उत्कृष्ट पुण्य का संचय स्वयमेव होता रहता है। जिससे अनुकूल लगने वाले सांसारिक सुख स्वयमेव मिलते रहते हैं। ज्ञानी धर्मात्मा इस सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए धर्म नहीं करता। सांसारिक, काल्पनिक सुख की इच्छा मोक्षार्थी जीव को नहीं होती अपितु संसारवृद्धि इच्छुक जीव को ही होती है।

स्वस्वरूप में रमना सो चारित्र है। स्व समय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है।

भेद

इस पूज्य सम्यक् चारित्र को ही निश्चय चारित्र-व्यवहार चारित्र रूप से या अन्तरंगबहिरंग चारित्र रूप से तथा सराग-वीतराग चारित्र के भेद से दो-दो प्रकार का कहा गया है।

सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात के रूप में अवस्थागत भेद से पाँच प्रकार का भी वर्णित किया गया है। तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह रूप पंच महाव्रत, ईर्या, भाषा, ऐषणा, आदान निक्षेपण तथा प्रतिष्ठापन रूप पाँच समिति तथा मन-वचन-काय (इन्द्रियमन) की प्रवृत्ति का निग्रह रूप तीन गुप्ति। इस तरह 5+5+3=13 प्रकार का चारित्र भी आगम में निर्दिष्ट है।

उक्त भेदों में प्रथम निश्चय तथा अन्तरंग रूप चारित्र तो निज आत्माधीन स्थायी, आनन्द भोग रूप परिणाम है यह विधि रूप या प्रवृत्ति रूप स्वकार्य है। यही करणीय है, इसके होने पर ही जीव चारित्रवन्त होता है और इसके बिना चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं, फिर वृद्धि, स्थिति और फलागम की कल्पना ही बेमानी है।

सामायिक आदि पंचभेद युक्तता का स्वरूप निम्न प्रकार से ज्ञातव्य, ध्यातव्य है

(1) सामायिक-शत्रु-मित्र व बन्धुवर्ग में, सुख-दुख में, प्रशंसा-निन्दा में, स्वर्णलोहपाषाण में, जीवन मरण में, संयोग-वियोग में, प्रिय-अप्रिय में राग-द्वेष के अभाव रूप समता के परिणामों में सामायिक होती है। आत्म स्वभाव में स्थिरता रूप परिणामों में, सर्व सावध (पाप) योग से निवृत्ति रूप सामायिक होती है। तीनों ही संन्ध्याओं में, या पक्ष और मास के सन्धि दिनों में या अपने इच्छित समय में बाह्य और अन्तरंग समस्त कषायों का निरोध करना सामायिक है।

(2) छेदोपस्थापना-निर्विकल्प सामायिक संयम की प्रतिज्ञाबद्धता में, जिसमें कि विकल्पों का सेवन नहीं होता, ऐसी दशा में जीव टिक नहीं पाता है तब व्रत, समिति, गुप्ति रूप छेद के द्वारा पुनः स्वयं को सामायिक में स्थापित करना या विकल्पात्मक चारित्र का नाम छेदोपस्थापना है।

(3) परिहार विशुद्धि-मिथ्यात्व, रागादि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके, विशेष रूप से आत्म शुद्धि अथवा निर्मलता ही परिहार विशुद्धि है।

(4) सूक्ष्म साम्पराय-स्थूल-सूक्ष्म प्राणियों के वध के परिहार में जो पूरी तरह अप्रमत्त हैं, जागरुक हैं। अत्यन्त निर्वाध, उत्साहशील, अखण्डित चारित्र जिसने कषाय के विष रूप अंकुरों को खोंट दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में ढकेल दिया है, उस परम सूक्ष्म लोभ वाले साधु के सूक्ष्म साम्पराय होता है।

(5) यथाख्यात–अशुभ रूप मोहनीय कर्म के उपशान्त अथवा क्षीण हो जाने पर 'जैसा निष्कम्प सहज शुद्ध स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है' वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया है, सो यथाख्यात चारित्र है। यथाख्यात चारित्र उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोग केवली तथा अयोगी केवली इन चार गुणस्थानों में होता है।

उक्त रूप से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमयी एक मोक्षमार्ग द्वारा ही समस्त कर्मजाल रूप दुख का नाश होकर स्वाधीन, अविनाशी, यथार्थ सुख मोक्ष प्रगट होता है।

आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' में संक्षेप में यही बात कही है-

जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रायादी परिहरणं चरणं ऐसो हु मोक्ख पहो।। 155 ।।

जीव आदि तत्त्व का श्रद्धान् सम्यग्दर्शन, जीव आदि तत्त्व का ज्ञान सम्यग्ज्ञान एवं रागादि का परिहार रूप सम्यक्चारित्र, यही मोक्षपथ, मोक्षमार्ग है।