संशय विपरीत तथा विभ्रम, इन दोषों से वर्जित होकर। अपने स्वरूप औ परस्वरूप को, ग्रहण करे निश्चित होकर।। सविकल्परूप बहुभेद सहित, वह सम्यग्ज्ञान कहाता है। जो स्वपर प्रकाशी ज्ञान सदा, निज पर का भान कराता है।।४२।।
आत्मा के स्वरूप का और पर के स्वरूप का संशय, विपरीत और अनध्यवसाय रहित ग्रहण करना-जैसे को तैसा जानना सो सम्यग्ज्ञान है, जो कि साकार-सविकल्प और अनेक भेद सहित है।
शुद्ध आत्मतत्त्व आदि के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र 'ज्ञान' कहलाते हैं। यहाँ पर कारण में कार्य का उपचार करके शास्त्रों को ही ज्ञान कह दिया है। वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे गये पदार्थ सत्य हैं या अन्यमतियों द्वारा कहे गये पदार्थ सत्य हैं ? इस प्रकार का विचार संशय है। परस्पर सापेक्ष द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नयों के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्यायों को नहीं जानना विमोह है, इसी का नाम अनध्यवसाय है। जैसे रास्ते में चलते हुए तृण आदि का स्पर्श हो जाने पर कुछ लगा' परन्तु क्या लगा यह स्पष्ट नहीं हुआ है। अनेकांतात्मक वस्तु को 'यह नित्य ही है यह अनित्य ही है' ऐसा एकातरूप निर्णय कर लेना विभ्रम है, इसे ही विपरीत कहते हैं, जैसे सीप को चाँदी समझ लेना।
सम्यग्ज्ञान के भेद - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये ज्ञान के पाँच भेद हैं अथवा श्रृतज्ञान की अपेक्षा अंग और अंगबाह्य ऐसे दो भेद हैं।
इनमें भी अंग के बारह भेद हैं - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादश अंगों के नाम हैं। इनमें से अंतिम दृष्टिवाद अंग के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पाँच भेद हैं। परिकर्म भी चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति के भेद से पाँच प्रकार का है। सूत्र और प्रथमानुयोग में भेद नहीं हैं। पूर्वगत के १४ भेद हैंउत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणानुवाद, क्रियाविशाल और लोकसार ये १४ पूर्वो के नाम हैं। चुलिका के भी जलगता, स्थलगता, आकाशगता, मायागता और रूपगता ये पाँच प्रकार हैं। ये सब भेद बारहवें अंग के अन्तर्गत हैं।
अंगबाह्य के १४ भेद हैं - सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और अशीतिक, इन्हें चौदह प्रकीर्णक भी कहते हैं। ये अंग और अंगबाह्य की अपेक्षा श्रुतज्ञान के भेद हैं अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार अनुयोग या चार वेदरूप श्रुतज्ञान है। जिसमें तीर्थकर आदि महापुरुषों का चरित कहा जाता है वह प्रथमानुयोग है। जिसमें लोक का कथन है वह करणानुयोग है। जिसमें मुनि और श्रावकों के धर्म का कथन है वह चरणानुयोग है और जिसमें द्रव्यों का कथन किया जाता है वह द्रव्यानुयोग है।
अथवा निश्चयज्ञान और व्यवहारज्ञान की अपेक्षा ज्ञान के दो भेद हैं। उनमें से व्यवहार ज्ञान हेय और उपादेय रूप दो प्रकार का है। छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नवपदार्थ इनमें निश्चयनय से अपना शुद्ध आत्मद्रव्य, शुद्ध जीवास्तिकाय, शुद्ध जीवतत्त्व और निज शुद्ध आत्मपदार्थ ही उपादेय है। इनके सिवाय शुद्ध-अशुद्ध, अन्य जीव, अजीव आदि सभी हेय हैं, इत्यादि प्रकार से तत्त्व हेय और उपादेय रूप से जानने योग्य है।
माया, मिथ्या और निदान शल्यरूप विभाव परिणाम आदि समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित, परम निज स्वभाव के अनुभव से उत्पन्न, परमानन्द सुखामृत से तृप्त अपनी आत्मा के द्वारा जो निज स्वरूप का संवेदन–अनुभव है, वही निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान निश्चयज्ञान है।
यह निश्चयज्ञान व्यवहारज्ञान के द्वारा ही साध्य है अत: व्यवहारज्ञान साधन है, यहाँ ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के भेदों का संक्षेप से नाममात्र कथन किया है। विस्तार से सम्पूर्ण वाङ्मय सम्यग्ज्ञान ही है, उसे श्रुतकेवली ही जानते हैं। अब दर्शन का लक्षण कहते हैं -
जो भावों का आकार नहीं, करके सामान्य ग्रहण होता। अर्थों में नहीं विशेष करे, वह दर्शन नाम कहा जाता।। जिनशासन में इस विध से यह, दर्शन उपयोग कहा जाता। भावों की सत्ता का ग्राहक, यह निराकार समझा जाता।।४३।।
पदार्थों में विशेषता - भेद नहीं करके और उनके आकार को ग्रहण नहीं करके जो पदार्थ का सामान्य सत्तामात्र ग्रहण करना है, वह जैन आगम में 'दर्शन' इस नाम से कहा जाता है।
'यह सफेद है, यह काला है, यह छोटा है, यह बड़ा है' इत्यादि विकल्प न करके जो पदार्थों की सत्ता का प्रतिभास होता है, वह दर्शन है यह निराकार-निर्विकल्प होता है। यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन नहीं है चूँकि यह सभी जीवों में पाया जाता है। इसके चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं। यह दर्शन कब किनको होता है ?
दर्शनपूर्वक ही ज्ञान सदा, छद्मस्थजनों को होता है। इसलिए नहीं युगपत् दोनों, उपयोग उन्हों के होता है।। पर केवलियों भगवन्तों के, युगपत दोनों उपयोग रहें। वे लोकालोक प्रकाशी जिन, बस एक समय में सर्व गहें।।४४।।
छद्मस्थ - अल्पज्ञानियों के पहले क्षण में दर्शन पुनः ज्ञान इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है क्योंकि उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवली भगवान के दोनों उपयोग एक साथ होते हैं।
चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शनपूर्वक मतिज्ञान होता है और मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है। अवधिदर्शनपूर्वक अवधिज्ञान होता है तथा केवलदर्शन और केवलज्ञान एक साथ प्रगट होते हैं।
श्रुतज्ञान दो तरह का है-लिंगत्र और शब्दज। एक पदार्थ को जानकर उसके द्वारा जो दूसरे पदार्थ का जानना है वह लिंगज श्रुतज्ञान है और शब्दों के सुनने से जो ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है। यहाँ श्रुतज्ञान को उत्पन्न करने वाला अवग्रह मतिज्ञान है और मन:पर्यय ज्ञान को उत्पन्न करने वाला ईहा मतिज्ञान है। यह अवग्रह, ईहा मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक ही होता है अतः वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान को भी दर्शनपूर्वक ही जानना चाहिए।
छद्मस्थ जीव ज्ञानावरण आदि के आवरण से सहित अल्पज्ञानी हैं। इस कारण उनको पहले दर्शन होता है पुनः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा आदि रूप ज्ञान होता है। केवली भगवान का ज्ञान क्षायिक है, जैसे- मेघपटल के हट जाने पर सूर्य के प्रगट होते ही आतप और प्रकाश एक साथ होते हैं वैसे ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण के नष्ट होते ही उनके केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ प्रगट हो जाते हैं, ऐसा समझना, क्योंकि केवली भगवान एक समय में एक साथ सम्पूर्ण लोक-अलोक और चराचर पदार्थों को देख भी लेते हैं और जान भी लेते हैं। यह केवली भगवान का ही माहात्म्य है।
इस प्रकार सामान्य ज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान ही सम्यक्त्व के प्रगट होने पर सम्यग्ज्ञान हो जाता है वही मति, श्रुतरूप समीचीन ज्ञान चारित्र के बल से अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान हो जाता है पुनः वही ज्ञान चारित्र के विशेष भेद शुक्लध्यान को प्राप्त कर केवलज्ञान बन जाता है। ज्ञान स्वयं में पंगु के समान है, जब सम्यक्त्व का अवलंबन मिलता है तब वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है और जब चारित्र का आश्रय मिलता है तब वह केवलज्ञान रूप महान पूर्ण ज्ञान बन जाता है।
जो वस्तुओं को जैसा का तैसा जानता है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान मनुष्यों का तीसरा नेत्र है। जैसे जन्म से अन्धे मनुष्य को लाठी ऊँची-नीची जगह को बतलाकर उसे चलने और रुकने में मदद देती है वैसे ही सम्यग्ज्ञान हित और अहित का विवेचन करके धर्मात्मा पुरुष को हितकारक कार्यों में लगाता है और अहित करने वाले कार्यों से रोकता है।
मतिज्ञान तो इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को ही जानता है किन्तु शास्त्रज्ञान इन्द्रियों के विषयभूत और अतीन्द्रिय दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान कराता है अत: यदि ज्ञाता का मन ईर्ष्या, द्वेष आदि दुर्भावों से रहित है तो उसे तत्त्व का ज्ञान होना दुर्लभ नहीं है।
यदि तत्त्वों के जान लेने पर भी मनुष्य की बुद्धि अन्धकार में रहती है तो जैसे उल्लू के लिए प्रकाश व्यर्थ होता है वैसे ही उस मनुष्य का ज्ञान भी व्यर्थ है।
सामान्य से ज्ञान एक है, प्रत्यक्ष परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भेद से पांच प्रकार का है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य चारों ज्ञानों में से प्रत्येक के अनेक भेद होते हैं।