जो अशुभ क्रियाओं से विरती, औ शुभ में सदा प्रवृत्ती है। उसको ही तुम चारित जानो, वह व्रत समिती औ गुप्ती है।। इन रूप चरित्र कहा जिनने, व्यवहारनयापेक्षा समझो। इन बिन निश्चय चारित्र न हो, इसलिए इन्हें साधन समझो।।४५।।
अशुभ क्रियाओं से विरक्त होना और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति करना चारित्र है जो कि व्रत, समिति और गुप्ति रूप है, ऐसा तुम जानो। यह चारित्र व्यवहारनय की अपेक्षा से जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित है।
मोक्षमार्ग रत्नत्रयात्मक है। उसमें चारित्र तीसरा अवयव है जो कि सम्यग्दर्शन, ज्ञानपूर्वक होता है। उस चारित्र के भी वीतराग चारित्र और सराग चारित्र ऐसे दो भेद हैं। अपनी शुद्ध आत्मा की अनुभूतिरूप शुद्धोपयोग लक्षण वीतराग चारित्र है। उसका परम्परा से साधक सराग चारित्र है, जो व्रत, समिति और गुप्ति से तेरह प्रकार का है।
इसी सरागचारित्र का एकदेश अवयवभूत देशचारित्र होता है। सम्यग्दृष्टि अव्रती जब देशव्रतों को ग्रहण कर लेता है तभी वह पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहलाता है। इस देशचारित्र के ग्यारह भेद माने हैं। इन्हें ही ग्यारह प्रतिमा कहते हैं-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा अथवा दिवामैथुनत्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरंभ त्याग प्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्याग प्रतिमा और उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। इन ग्यारह प्रतिमाओं में रहने वाले श्रावकों में से छह प्रतिमा तक व्रतों के पालने वाले श्रावक तरतमता से जघन्य श्रावक कहलाते हैं। सातवीं,आठवीं और नवमी प्रतिमा के धारी श्रावक तरतमता से मध्यम हैं और दशवी तथा ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उत्तम हैं। अंतिम ग्यारहवें स्थान के श्रावक पिच्छी-कमण्डलुधारी क्षुल्लक-ऐलक होते हैं, छठी प्रतिमाधारी तक गृहस्थाश्रम में रहते हैं। सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी कोई घर में भी रहते हैं, कोई मुनि संघों में रहते हैं तथा कोई घर का त्याग भी कर देते हैं।
इस एकदेश चारित्र के अनंतर सकलचारित्र को कहा है -
हैवह सकल चारित्र अशुभ से हटकर शुभ में प्रवृत्ति करने रूप होता है। अशुभ क्या है ?
जिसका उपयोग विषयों और कषायों में गाढ़ लगा हुआ है, जो खोटे शास्त्र सुनने में दुष्टचित्त-दुष्ट अभिप्राय में और दुष्ट गोष्ठी-संगति में तत्पर हैं, उग्र तथा उन्मार्ग-बुरे मार्ग में लगे हुए हैं उनकी जो प्रवृत्तियाँ हैं, वे सब अशुभ हैं।
शुभ क्या है?
पाँच पापों के सर्वथा त्याग रूप पाँच महाव्रत धारण करना, पाँच समिति रूप प्रवृत्ति करना और तीन गुप्ति धारण करना ये अपहृत संयम कहलाता है। इसी को शुभोपयोग लक्षण सरागचारित्र कहते हैं। इस शुभ प्रवृत्ति में बाह्य विषयों में पंचेन्द्रिय के विषयों का परित्याग होता है और अंतरंग में रागादि का परिहार होता है,
यह सब सरागचारित्र है जो कि तरतमता से दशवें गुणस्थान तक माना गया है। अध्यात्म ग्रंथ में शुद्धोपयोग सातवें गणस्थान से ध्यानावस्था से माना गया है। उस अपेक्षा से निर्विकल्प ध्यान में भी वीतराग चारित्र माना गया है किन्तु सिद्धांत की अपेक्षा मोहनीय के अभाव में ग्यारहवें गुणस्थान से ही वीतरागता होती है।
यहाँ अभिप्राय यही है कि जो अव्रती हैं यदि वे वीतराग चारित्र की भावना भाते रहें और देशचारित्र भी न ग्रहण करें तब तो वे बेचारे चारित्रमोहनीय कर्म से ही स्वयं ठगे गये हैं और व्रत, प्रतिमा आदि चारित्र की उपेक्षा करके दूसरों को भी उधर से हटाकर मोक्षपथ से वंचित कर रहे हैं क्योंकि जब तक पाँच महाव्रतरूप व्यवहार चारित्र नहीं धारण करेंगे तब तक निश्चय चारित्र की प्राप्ति असंभव ही है, पुनः उसकी चर्या मात्र से क्या लाभ? अतः क्रम से एकदेश आदि चारित्र धारण करते हुए आगे बढ़ना चाहिए। अब जो इसी व्यवहारचारित्र से साध्य है ऐसे निश्चयचारित्र का लक्षण कहते हैं –
भव कारण के नाशन हेतू, ज्ञानी के बाह्य क्रियाओं का। औ आभ्यंतरी क्रियाओं का, इन सबका जो रोधन होता।। वह जिनवर द्वारा कहा गया, निश्चय सम्यक्चारित्र सही। जो साधू उसको पा लेते, वे पा लेते हैं मोक्ष मही।।४६।।
ज्ञानी जीव के संसार के कारणों का नाश करने के लिए जो बाह्य और अभ्यंतर क्रियाओं का रोकना है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित परम सम्यकचारित्र है।
परमचारित्र, परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र, निश्चय चारित्र, अभेद रत्नत्रय,शुद्धोपयोग अथवा निश्चय रत्नत्रय ये सब पर्यायवाची नाम हैं। निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग से अविनाभावी वह निश्चयचारित्र है। बाह्य विषयों में शुभ-अशुभ वचन और काय के व्यापार रूप क्रिया बाह्य क्रिया है तथा शुभ-अशुभ मन के विकल्परूप क्रिया अंतरंग क्रिया है। इन बाह्य और अभ्यंतर क्रियाओं के पूर्णरूप से रुक जाने पर जो निर्विकल्प ध्यानावस्था होती है वही निश्चय चारित्र है। यह पाँच प्रकार के संसार का नाश करने वाला है। यह चारित्र निश्चय रत्नत्रय से परिणत अभेदज्ञानी महामुनि के ही होता है। उस अवस्था में ध्यान, ध्याता और ध्येय का विकल्प भी उनको नहीं रहता है।
इस उत्कृष्ट चारित्र को प्राप्त करने के लिए ही महाव्रतरूप सरागचारित्र धारण किया जाता है। जिस प्रकार आम के वृक्ष में ही आम के फल लगते हैं उसी प्रकार से इन नग्न दिगम्बर मुनि के वेष में ही यह चारित्र होता है। आज तक किसी ने भी वस्त्र में रहते हुए इस निश्चय चारित्र को नहीं प्राप्त किया है। चक्रवर्ती भरत ने भी जब दैगम्बरी दीक्षा ली थी तभी उनके यह निर्विकल्प ध्यानरूप निश्चयचारित्र हुआ था अतः महाव्रत को धारण कर देशसंयमी बनना चाहिए, बिना व्रत के जीवन नहीं बिताना चाहिए, चूँकि मनुष्य पर्याय में व्रत और संयम ही सार है।
अधर्मकर्मनिर्मुक्तिधर्मकर्मविनिर्मितिः। चारित्रं तच्च सागारानगारयतिसंश्रयम्।।
अशुभ कार्यों से बचना और अच्छे कार्यों में लगना चारित्र है। वह चारित्र गृहस्थ और मुनि के भेद से दो प्रकार का है। गृहस्थों का चारित्र देशचारित्र कहा जाता है और मुनियों का चारित्र सकलचारित्र कहा जाता है। जिनके चित्त सद्विचारों से युक्त हैं वे ही चारित्र का पालन कर सकते हैं। जिस मनुष्य में स्वर्ग और मोक्ष किसी को भी प्राप्त करने की योग्यता नहीं है वह न तो देशचारित्र ही पाल सकता है और न सकलचारित्र ही पाल सकता है।
जो मनुष्य सम्यग्दर्शन से रहित है उसका शास्त्रवाचन मुख की खाज मिटाने का एक साधन मात्र है और जो मनुष्य ज्ञान से रहित है उसका चारित्र धारण करना अभागे मनुष्य के आभूषण धारण करने के समान है।
सम्यग्दर्शन से अच्छी गति मिलती है, सम्यग्ज्ञान से संसार में यश फैलता है और सम्यक्चारित्र से पूजा प्राप्त होती है तथा इन तीनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। चारित्र अग्नि है, सम्यग्ज्ञान उपाय है और सम्यग्दर्शन रसौषधि है। इन सबके मिलने पर आत्मारूपी पारद धातु अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। सम्यग्दर्शन का आश्रय चित्त है, सम्यग्ज्ञान का आश्रय अभ्यास है, सम्यक्चारित्र का आश्रय शरीर है और दान आदि क्रियाओं का आश्रय धन है।
जैसे - चूने की पुताई से मकान, पौरुष करने से दैव, पराक्रम से नीति और विशेषज्ञता से सेव्यपना चमक उठता है वैसे ही व्रत भी सम्यक्त्वरूपी रत्न को चमका देता है।
गृहस्थों के व्रत मूलगुण और उत्तरगुण के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
आगम में पांच उदुंबर (बड़, पीपर, पाकर, ऊमर और कठूमर) मद्य, मांस और मधु का त्याग ये आठ मूलगुण गृहस्थों के बतलाए हैं।