|| श्री पार्श्वनाथ विधान - Shri Parshvanatha Vidhan ||
Shri Parshvanatha Vidhan

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श्रीपार्श्वनाथ वंदना
(उपजातिछंदः)
कल्याणकल्पद्रुमसारभूतं, चिंतामणिं चिंतितदानदक्षम्।
श्रीपार्श्वनाथ स्य सुपादपद्मं, नमामि भक्त्या परया मुदा च।।१।।

ध्याने स्थितो यो बहिरंतरंगं, त्यक्त्वोपधिं तत्र तदा जिनस्य।
मातामहः स्यात् कमठासुरोऽसौ, अभूत् कुदेवः कुतपोऽभिरेव।।२।।

रुद्धं विमानं पथि गच्छतो हा! ध्यानस्थपाश्र्वं प्रविलोक्य रुष्ट्वा।
शत्रुं च मत्वा कृतभीमरूपो, धाराप्रपातैः स चकार वृष्टिं।।३।।

चकास्ति विद्युत् दशदिक्षु पिंगा, वात्या महद्ध्वांतमयं च कालं।
घनाघनो गर्जति घोररावैः, प्रचंडवातैः परिमूलयन् द्रून्।।४।।

परीषहैर्वातकृतैस्तदासौ, महामना धीरगभीरपाश्र्वः।
अकम्पचित्तः कनकाचलो वै, तं पाश्व्र्रनाथं त्रिविधं प्रवंदे।।५।।

पुण्यप्रभावाद् विचलासनाच्च, यातः फणीन्द्रश्चकितः सभार्यः।
फणातपत्रैरुपसर्गकाले, भत्तिंâ व्यधात् यस्य नमोऽस्तु तस्मै।।६।।

श्रीपार्श्वनाथ ः स्वपरात्मविज्ञः, श्रेणीं श्रितः स्वात्मजशुक्लयोगैः।
घातीनि हत्वा जगदेकसूर्यः, वैâवल्यमाप्नोत् तमहं स्तवीमि।।७।।

माणिक्यगारुत्मणिरत्नगर्भैः, वैडूर्यमुक्तामणिहीरकाद्यैः।
शक्राज्ञया वृत्तसभां जिनस्य, आकाशमध्ये व्यतनोद् धनेशः।।८।।

स्तंभांतमानादिविशालकायाः, सरांसि पुष्पस्य सुवाटिका स्युः।
प्राकारतुंगास्त्रयसालशोभाः, वाप्यादयः स्वच्छजलाः सुरम्याः।।९।।

क्षिपंति धूपस्य घटेषु देवाः, सौगंध्यधूपं सुरभिः समंतात्।
सुतोरणाद्या ध्वजपंक्तयश्च, मयूरहंसादिकचिह्नयुक्ताः ।।१०।।

भामंडले सप्तभवान् सुभव्याः, वापीजलेऽपि प्रविलोकयंति।
सर्वाः सुसंपत्नधयोऽपि विश्वे, रत्नानि सर्वाणि बभुश्च तत्र।।११।।

द्वारेषु देवाः किल रक्षकाः स्युः, सद्दृष्टिमद्भिःसह रज्यमानाः।
मध्ये त्रिसालस्य हि गंधकुट्यां, सिंहासनस्योपरि देवदेवः।।१२।।

विराजते रत्नमणिप्ररोचिः, वंâजासने या चतुरंगुलास्पृक्।
छत्रत्रयं चंद्रनिभं प्रवक्ति, ‘‘त्रैलोक्यनाथोऽय’’ मिति स्तुवे तं।।१३।।

देवा व्यधुर्दुंुदुभिनादमुच्चैः, त्रैलोक्यजंतुं प्रति सूचयंतं।
जयारवं कल्पतरोश्च वृष्टिं, गंधोदवैâश्च प्रणमाम्यहं तं।।१४।।

अशोकवृक्षो जनशोकहारी, वियोगरोगार्तिविनाशकारी।
सुवीज्यमानाश्चमरीरुहाश्च, भांतीव ते निर्झरवारिधाराः।।१५।।

भाश्चक्रकांतिः प्रभुदेहदीप्त्या, विडंबयत्कोटिरविप्रभासौ।
सर्वार्थभाषामयदिव्यवाक् ते, त्रिकालमाविर्भवति स्तुवे त्वां।।१६।।

देवा मनुष्याः पशु-पक्षिवृंदं, श्रीपाश्र्वमानम्य मिथश्च सर्वे।
विरोधभावं परिहृत्य नित्यं, तिष्ठंति प्रीत्या शुभभावनातः।।१७।।

दिशोऽमलाः स्वच्छसरांसि भांति, षडर्तुजातास्तरवो लताद्याः।
शाल्यादिसस्यान्यभवन् स्वतश्च, जीवस्य हिंसा न तदा कदाचित् ।।१८।।

केशा नखाः वृद्धिमगु प्रभोर्न, दृग्निर्निमेषे चतुरास्यता च।
तनुश्च ते दर्पणवत् चकास्ति, वंदे तमेतेऽतिशयाश्च यस्य।।१९।।

सेन्द्रा नरेन्द्राश्च तथा फणीन्द्राः, नत्वा जिनेन्द्रं गणिनं च भक्त्या।
तत्र स्थिता धर्मसुधां पिबन्तः, संतर्पितास्तानुपदिश्य पाश्र्वः।।२०।।

विहारकाले शुभमग्रगामि, श्रीधर्मचव्रंâ विबभौ विभोस्ते।
सुहेमपद्मेषु विभुश्च पादौ, धृत्वांतरिक्षे व्यहरत् स्तुवे तं।।२१।।

नष्टोपसर्गे रविकेवलोत्थे, जातं त्वहिक्षेत्रमिदं सुतीर्थं।
क्षेत्रं पवित्रं जगति प्रसिद्धं, भक्त्या सदा भव्यजनाः स्तुवंति।।२२।।

श्रीपार्श्वनाथ ाय नमोऽस्तु तुभ्यं।
दुःखार्तिनाशाय नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अभीप्सितार्थाय नमोऽस्तु तुभ्यं।
त्रैलोक्यनाथाय नमोऽस्तु तुभ्यं।।२३।।

शार्दूलविक्रीडित छंद
यो लोकांतर्भूतवस्तुसकलं नक्षत्रवत् लोकते।
यो जित्वा ह्यु पसर्गवंâ ‘‘जिन’’ इति प्रख्यश्च कर्माण्यपि।।
वामानंदन एष एव भगवान् लोवैâककल्पद्रुमः।
भूयात् मे त्वरमश्वसेननृपजः श्री ‘‘ज्ञानमत्यै’’ श्रियै।।२४।।

अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।


श्री पार्श्वनाथ वंदना


चौबोल छंद
जो कल्याण कल्पतरु सार-भूत चिंतामणि चिंतितदा।
श्रीपारस प्रभु पादकमल को, भक्तिभाव से नमूं मुदा।।१।।

अंतर्बहिः परिग्रह तजकर, ध्यान लीन जब खड़े प्रभो!।
कमठासुर वूâतप से मरकर, तब मातामह हुआ प्रभो!।।२।।

पथ में जाता रुका विमानं, हा! ध्यानस्थ पाश्र्व को लख।
व्रुâधित शत्रु गिन भीमरूप धर, मूसलधार वृष्टि को कर।।३।।

विद्युत चमके दश दिश में, आंधी अँधियारी काल समान।
गरजे मेघ भयंकर वायू, वृक्ष उखाड़े शैल समान।।४।।

वायु भयंकर उपसर्गों से, महामना पारस प्रभु धीर।
अचलितमना मेरु सम पारस, त्रयविधि वंदूं महागभीर।।५।।

पुण्योदय से फणपति आसन, वंâपा पद्मावति के साथ।
आकर फण का छत्र किया प्रभु-शिरपर वंदूं पारसनाथ।।६।।

स्वपरभेदवित् पारस स्वात्मज, ध्यानशुक्ल श्रेणी पर चढ़।
घात घातिया केवल पायो, त्रिभुवनसूर्य नमूं शुचि कर।।७।।

माणिकरत्न गरुत्मणि मुक्ता, हीरकमणि वैडूर्यों से।
इन्द्राज्ञा से धनपति रचियो, समवशरण गगनांगण में।।८।।

अतिऊँचे मानस्तंभों से, पुष्पवाटिका सरवर से।
परकोटे सालत्रय शोभें, वापी रम्य स्वच्छ जल से।।९।।

धूपघटों में सुरगण खेते, धूप सुगंधित चउदिश में।
तोरण ध्वजपंक्ती बहु शोभें, हंस मयूर चिह्न युत हैं।।१०।।

देखें सप्तभवों को भविजन, भामंडल वापी जल में।
नवनिधि चौदहरत्न सभी, संपत्ति वहां बहुविध शोभें।।११।।

रक्षकदेव खड़े द्वारों पर, सम्यग्दृष्टी के प्रिय हैं।
तीनसाल के मध्य गंधकुटि, सिंहासन पर प्रभु शोभें।।१२।।

रत्नमणीमय कमलासन पर, चतुरंगुल ऊपर राजें।
तीन छत्र ‘‘त्रिभुवनपति’’ सूचक, उन प्रभु को हम नित वंदे।।१३।।

दुंदुभि बजती त्रिभुवन जन को, सूचित करती तव जयकार।
कल्पतरु से पुष्पवृष्टि, गंधोदक वर्षा हो सुखकार।।१४।।

तरुअशोक जन शोकहरे, रोगार्ति वियोग विनाश करें।
चौंसठ चमर ढुरे निर्झरजल-सम प्रभु पर हम उन्हें नमें।।१५।।

प्रभुतनु कांती से भामंडल, दिपे कोटिरवि शशि लज्जें।
सब भाषामय दिव्यध्वनि तव, त्रिसमय प्रगटे नमूं तुम्हें।।१६।।

देव असुर नर पशु पक्षीगण, मिल पारस का कर वंदन।
वैरभाव को छोड़ परस्पर, परमप्रीति धारें सब जन।।१७।।

निर्मल दिश सब स्वच्छ सरोवर, शाली आदिक खेत फलें।
प्राणी हिंसा कभी न होती, षट् ऋतु के फल पूâल खिलें।।१८।।

नख अरु केश बढ़े नहिं प्रभु के, दृग् टिमकार रहित शोभें।
दिखें चतुर्मुख तनु दर्पणवत्, इन अतिशय युत को वंदे।।१९।।

इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र नमन कर, प्रभु को गणधर को भजकर।
बैठे सभा में धर्मपिपासु, प्रभु उपदेश दिया सुखकर।।२०।।

प्रभु विहार में आगे चलता, धर्मचक्र राजे सुखकर।
कनक कमल पर प्रभु पग धरते, गगन गमन करते मनहर।।२१।।

दूर हुआ उपसर्ग तुरत, वैâवल्यज्ञान रवि उदित हुआ।
तीर्थ पवित्रं ‘‘अहिच्छत्र’’ भविजन, संस्तुत जग सिद्ध हुआ।।२२।।

नमोऽस्तु पारसनाथ! तुम्हें, दुःखार्ति विनाशि नमोऽस्तु तुम्हें।
नमोऽस्तु ईप्सित हेतु तुम्हें, हे त्रिभुवननाथ! नमोऽस्तु तुम्हें।।२३।।

जो सब त्रिभुवन की वस्तू को, इक नक्षत्र सदृश देखें।
जो उपसर्ग रु कर्मशत्रु को, जीता ‘‘जिन’’ इस विधि से हैं।।२४।।

अश्वसेन सुत वामानंदन, वे लोवैâककल्पतरु हैं।
उन पारस प्रभु के प्रसाद से, ‘‘ज्ञानमती’’ श्री मम होवे।।२५।।

अथ जिनयज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।